योगी कैसे बनें ? पहले अंतर्मुखी हों ! एक साक्षात्कार

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(aryatv.com) के पिछले कई अंकों में भारतीय सनातन ज्ञान के विषय में समझने के लिए सनातन प्रचारक स्कॉलर और चिंतक विपुल लखनवी जी के कई साक्षात्कार प्रकाशित हुए हैं। पूर्व परमाणु वैज्ञानिक कवि लेखक और संपादक विपुल जी के द्वारा जटिल से जटिल प्रश्नों के उत्तरों को बड़ी सहजता से संकलित करने का प्रयास किया गया। आर्य टीवी को बड़ी प्रसन्नता है कि इस संबंध में लोगों के प्रश्न निरंतर प्राप्त होते रहते हैं और बड़ी जिज्ञासा से लोग आने वाले साक्षात्कार की प्रतीक्षा करते हैं। सभी पाठकों को धन्यवाद देते हुए पत्रकार डॉक्टर अजय शुक्ला को जो प्रश्न प्राप्त हुए वह एक बार पुनः विपुल जी के पास उत्तर के लिए पहुंच गए।
प्रस्तुत है साक्षात्कार के कुछ पाठकों के प्रश्नों के उत्तर।

वैसे हमारे पाठक जान तो गए होंगे कि योग यानी जुड़ना। किससे जुड़ना? वेदांत महावाक्य प्राथमिक द्वैत के अनुसार “आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है”।

यह भक्ति मार्ग से सहजता से प्राप्त होता है। सनातन चिंतक स्कालर प्रचारक विपुल जी के अनुसार “जब हम द्वैत से अद्वैत का अनुभव करने लगे तब समझो योग हुआ है”

विपुल जी के अनुसार पातंजलि जो समझाते है जो काफी आगे की बात “चित्त में वृति का निरोध” यानी कार्य में आसक्ति के बिना कार्य” जिसे निष्काम भाव कहते हैं। जिससे हमारे चित्त में कोई तरंग न पैदा हो हलचल न हो जो चित्त में संस्कार संचित कर दे। यानी कर्म योग। यह तब होता है जब हम कर्म करते समय भी योग में रहें। भगवान श्री कृष्ण ने योगक्षेम की बात भी की है। आगे श्रीमद्भग्वद्गीता में कहते है। जिसको यूं समझा जा सकता है कि पहले मिला भक्ति योग जब यह परिपक्व हुआ तो आया कर्म योग और जब यह भी परिपक्व हुआ तो आया ज्ञान योग।

वास्तव में सारे योग के अर्थ एक साथ ही घटित होते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार जिसमें समत्व की भावना समबुद्धि यानी स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्धी है वह योगी है। यह सब बहुत आगे की योग परिपक्वता के साथ ही होता है। जब कृष्ण का निराकार रुप समझ में आने लगता है। शिव शक्ति भी कृष्णमय होने का अनुभव होता है तब आता है ज्ञान योग। इनको जानने हेतु सत्युग में हजारों साल का तप द्वापर में कुछ सैकड़ों त्रेता में कुछ महीने और कलियुग में कुछ घंटों में जाना जा सकता है। एक जीवनकाल पर्याप्त है कलियुग में। यही कलियुग की महानता है। क्योंकि कम्प्टीशन है ही नहीं। जहां सत्युग में प्रत्येक मानव ज्ञान प्राप्त करना चाहता था वहीं कलियुग में नाम जपनेवाला भी ज्ञान मांगनेवाला भी करोड़ों में एक।

आज के समय में योग की ऐसी की तैसी हो गई है। जरा सा पालथी मार कर बैठे पेट पिचकाया हो गये महायोगी। या जरा सी अनुभूति जैसे रोंगटे खड़े हो गये, शरीर जरा सा प्रसन्नचित्त हुआ, हल्का हुआ, प्रकाश दिखा हो गये योगी। और उससे बडी मजे कि बात यदि रटकर श्लोक बोलकर कहीं प्रवचक या राम कृष्ण कथाकार हो गये तो बोलो वह महायोगी के आगे।

दुखद तो यह है वेद और भगवद्गीता की तो दुर्दशा कर दी है। यहां तक अंतर्मुखी होने की पद्वतियां भी योग हो गई है। क्या कहूं ऐसे महाज्ञानियों को और जगत्गुरुओं को। मैं सोंचता हूं प्रभु इनको कौन सी गति देगा वो ही जाने पर ढंग की मानव योनि तो बिल्कुल न मिलेगी।

डॉ. अजय शुक्ला: प्रणाम सर। अंतर्मुखी के क्या अर्थ है?

विपुल जी: इस जगत में हम जो करते हैं वाहिक करते हैं यानी अपनी स्वयं की उर्जा निरंतर बाह्य दुनिया में निकालते रहते हैं, नष्ट करते रहते हैं। जिनमें इंद्रियो का योगदान होता है। जैसे देखना, सुनना, बोलना, सूंघना इत्यादि। इन कार्यो में हमारी उर्जा का निरंतर क्षय होता रहता हैं। हमको यही उर्जा जो बाहर खर्च हो रही हैं इसी को अंदर की ओर प्रवाहित करना यानि अंतर्मुखी होना होता है।

डॉ. अजय शुक्ला: वह कैसे करें।

विपुल जी: सबसे आसान तरीका है जिस मार्ग से ऊर्जा निकल रही है उसी मार्ग से उसको अंदर की ओर मोड़ कर हम भी अंदर प्रवाहित हो जायें। पर कैसे उस पर बात करता हूं। जैसे सबसे ऊपर है आंखे। तो त्राटक विधि यानी लगातार घूरना की पद्धतियां। फिर नासिका जिससे सांसों के द्वारा विपश्यना, प्रेक्षा ध्यान, सुगंध, शीतो ऊष्ण विधि, कम से कम अपने हाथ की उंगलियों की गिनती के बराबर तो विधियां हैं ही। फिर आते हैं कान जिसमें हम अक्षर या नाद ब्रह्म के विभिन्न आयामों के द्वारा अंतर्मुखी हो सकते हैं। फिर मुख जिसमें सबसे सस्ता सुंदर टिकाऊ और सहज मार्ग है मंत्र जप। जिसे मंत्र योग, जप योग का नाम दिया है।

साथ ही प्राणायाम में हठयोग, खेचरी इत्यादि और कहो तो मैं एक तरीका और बताऊं जिसे मैं बोलूं स्वाद योग।

डॉ. अजय शुक्ला: लेकिन यह सब करने की विधि क्या है?

विपुल जी: यह सारी विधियां अलग अलग समय पर मैं बताता रहूंगा। क्योंकि फिर बातचीत बहुत लंबी हो जाएगी और आप बोलेंगे कि सर साक्षात्कार लंबा हो गया कुछ काट दिया। (हंसते हुए) फिलहाल इन इंद्रियों द्वारा अंदर गये। तो हमारी मन बुद्धि, चेतना सब धीरे धीरे अंदर हुये। अब फिर क्या। आगे विभिन्न अनुभूतियों के साथ आप शरीर की नाड़ियों में भी चले गये। पर फिर क्या। तो बाबा कुछ कुछ साधकों की कुंडलनी जाने अंजाने में खुली। खुल तो गई फिर क्या। फिर दिव्य अनुभव।

डॉ.अजय शुक्ला: तो क्या देव दर्शन भी हो सकते हैं?

विपुल जी: जी बिल्कुल। यदि आप साकार मार्गी हैं तो देव दर्शन।

डॉ. अजय शुक्ला: देव दर्शन वह भी कलियुग में!

विपुल जी: जी बिल्कुल सत्य है देव दर्शन होते थे होते हैं और होते रहेंगे। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह सब आपकी आंतरिक ऊर्जा किस स्तर पर पहुंची है उस पर निर्भर करता है।

डॉ. अजय शुक्ला: ऊर्जा! मैं समझा नहीं।
विपुल जी: देखो इन अंतर्मुखी पद्धतियों में जाने अंजाने तुम अपनी ध्यान शक्ति को यानि ऊर्जा को बढ़ा रहे हो। यानि तुम्हारी मस्तिष्क की उर्जा और शक्ति बढ़ती जाती है पर तुमको पता नहीं। वह इतनी बढ़ जाती है कि तुम्हारी साकार की धारणा निराकार ब्रह्म को रुप धारण करने हेतु मजबूर कर देती है। बस इसी आधार पर कब्रों में रहने वाले मुर्दे, जो को मांस तक खाते थे। वह भी आदमी को दर्शन देने लगते हैं। उनके मंदिर पर लाखों की भीड़ लगी रहती है सिर्फ मूर्खता के कारण। आपको सिर्फ अपनी उर्जा बढ़ानी है उसके लिए साकार सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

आप एक गधे की कब्र भी बनाकर ध्यान कर सकते हैं और एक दुकान खोल सकते हैं। भारत में मूर्खों की कमी नहीं वह वहां पर भी मन्नत मांगने चले जाएंगे जबकि उनका यह नहीं पता कि जिस भांति कुत्ता अपने ही घाव को चाटता है और सोचता है मैं रक्त पी रहा हूं कुछ उसी भांति वह अपनी आंतरिक शक्ति अपनी ऊर्जा को बढ़ाकर उस कब्र पूजन कर अपना धन व्यय करते हैं। अपने आने वाले भविष्य के बच्चों के लिए मृत्यु का सामान भी खरीद लेते हैं।

डॉ. अजय शुक्ला: तंत्र में भी तो ऊर्जा का खेल होता है।

विपुल जी: यही तंत्र विधि में कुछ विशेष ध्वनि तरंगे जो संस्कृत के शब्दों में अपने शरीर के विभिन्न चक्रों को आंदोलित कर हमारी ध्यान शक्ति को और मजबूत कर उस निराकार को साकार बना कर अपने मन के मुताबिक काम भी करवा लेते हैं। जिससे तांत्रिक पैदा हैं यानी तंत्र भी।

डॉ. अजय शुक्ला: सर देवदर्शन अनुभूति में क्या होता है?

विपुल जी: जब हमको दर्शनाभूति होती है तो उसके पहले हम अपना देहाभान खो बैठते हैं। आंखें बंद पर नींद नहीं। कुछ पता नहीं कि अचानक दिव्य भगवा पीला अग्निवर्ण का तीव्र प्रकाश और फिर आपके मंत्र के अनुसार देव दर्शन। वहीं निराकार को सफेद प्रकाश के बाद काला धुंधला प्रकाश या आगे पीछे। देहाभान नहीं। सृष्टि का कोई सुंदर चित्र या घटती हुई कोई घटना। इसमें कई ध्वनियां, वार्तायें, आत्म गुरु का जागरण जिसे आकाशिय बोली जो भी कहो।

डॉ. अजय शुक्ला: फिर और क्या?

विपुल जी: मेरे हिसाब से इसके बाद यात्रा आरम्भ होती है वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा या योग की यात्रा। इसी के साथ कुछ आगे पीछे मानव को अहम् ब्रह्मास्मि , कोई वेद महावाक्य, एकोअहं द्वितियोनास्ति, सोअहं, शिवोहम्, कृष्णोहम् इत्यादि अनुभूतियां हो सकती हैं।

डॉ. अजय शुक्ला: अच्छा इन अनुभूतियां में क्या होता है?

विपुल जी: इन अनुभूतियों में मानव का दिल दिमाग सोंच मन बुद्धि अहंकार पूरा का पूरा आकाश तत्व अपने को ब्रह्म समझने लगता है। शरीर के विशालकाय होने का अनुभव होता है। एक अलग तरीके की अनुभूति होती है। पर यह कुछ समय से लम्बे समय तक हो सकती हैं। यह होता है वास्तविक योग। वेदांत वाक्य घट गया क्योकि “ आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव हो गया। द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो गया। पर यह चला गया। पर योग की अनुभुतियां दे गया। पर अभी महायोगी नहीं हुये। क्योंकि योगक्षेम नहीं हुआ।

डॉ. अजय शुक्ला: क्यों ऐसा क्यों।

विपुल जी: क्योंकि योगक्षेम नहीं हुआ। क्योकिं पातंजलि महाराज के अनुसार “चित्त में वृत्ति का निरोध नहीं हुआ” बल्कि तुम्हारी वृत्ति भले ही सात्विक हो पर बढ़ गई। क्यों। क्योकिं तुम गुरु बनने की सोंचने लगे। प्रवचक बन कर अपनी शोहरत धन इज्ज्त को खोजने लगे। जो अधिकतर लोग करते हैं। बिना परम्परा के गुरु बन बैठे। दुकान का निर्माण करने में जुट गये। तुम धर्म के व्यापारी हो गये। कुछ तो जो महामूर्ख पापी ज्ञानी होते हैं वह तो भगवान ही बन बैठते हैं जापानी भाषा में ओशो तक बन बैठते हैं। अपने मन की वाणी को अपनी आत्मगुरु की वाणी समझकर नये नये सिद्धांत यहां तक परम्परायें और धर्ममार्ग तक बना बैठते हैं। जो भगवध गीता बन जाता है भग्वद्गीता नहीं। भग्वद्गीता के विपरीत बोलता है। वेद वाणी को गलत बोलकर शक्तिहीन भोले भाले मानव को बहकाने का पाप करता है। मजे की बात है वह इसी धरा के कानून के अंतर्गत बेमौत जैसे जेल में सड़कर, सूली पर चढ़कर या भूखा प्यासा किसी गुफा में छिपकर तड़पकर मरता है। पर उसके अनुयायी इसको नहीं समझ पाते।

डॉ. अजय शुक्ला: ऐसा क्यों?
विपुल जी: कारण ईश वह जिसके अधीन माया। मानव वह जो माया के अधीन। यह तो अनुभव हुआ पर माया हमारे अधीन तो न हुई। पर यह मूर्ख भूल जाते हैं अभी यात्रा शुरु हुई है। खत्म नहीं अधिकतर निराकार की आराधना करने वाले अहंकार का शिकार होकर होने लगते हैं। जिसके कारण उनका पतन आरंभ हो जाता है।

डॉ. अजय शुक्ला: तो फिर क्या करें?

विपुल जी: प्राय: जो साकारवाले होते हैं इसको प्रभु का खेल समझकर इन अनुभूतियों में न उलझकर आगे चलते रहते हैं। उनको निराकार की अनुभुति स्वयं शिव कृष्ण या निराकार दुर्गा शक्ति स्वयं करा देती है। फिर उस मानव को किसी पद चाहे वह गुरु का हो या सन्यासी का हो या कोई जगत का पद, उसका लालच नहीं रहता। इस तरह के मानव को रमता राम या आत्माराम ही कहते हैं।

दूसरी बात जब आप अध्यात्म के मार्ग पर अनजाने में भी आगे बढ़ते हैं तो अक्सर कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और तब जो साकार सगुण आराधना करते हैं उनको आवश्यकता पड़ने पर साकार देव इष्ट बनकर सहायता करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर समर्थ गुरु के पास स्वयं पहुंचा देते हैं। यह अनुभव तो मेरा भी है। पर जो निराकार निर्गुण साधना करते हैं उनको प्राय: मनोचिकित्सक के पास तक जाने की नौबत आ जाती है।

डा अजय शुक्ला: तब आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

विपुल जी: मित्रों आप गुरु को ढूंढना छोड़कर साकार साधना में लग जाइये। मेरा सुझाव है सगुण,साकार, आराधना और उपासना ही करे तो बेहतर है। अच्छा तो यह रहेगा आप अपने घर पर सचल मन सरल वैज्ञानिक ज्ञान विधि करने के साथ अपने इष्ट का मंत्रजप सतत, निरंतर, निर्बाध आरंभ कर दे। यह मंत्र जाप आपको गुरु से लेकर ज्ञान तक भौतिक सुखों से लेकर आध्यात्मिक स्तर की ऊंचाई तक यहां तक मोक्ष भी प्रदान कर सकता है।

डा. अजय शुक्ला: आपका बहुत-बहुत आभार। आपने हमारे पाठकों की जिज्ञासाओं को शांत किया।

विपुल जी: जी आपको भी बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप जन मानस को आध्यात्मिक जानकारी देने हेतु तत्पर रहते हैं।