(www.arya-tv.com) हिमाचल और उत्तराखंड लगातार बारिश से बेहाल हैं। पिछले दो महीने से इन दोनों ही राज्यों के किसी न किसी क्षेत्र में बादल फट जाने (cloud Burst) की घटना हो जाती है। नतीजा यह है कि पूरा क्षेत्र बर्बाद हो जाता है। दस साल पहले 2013 में केदार नाथ हादसा हुआ था, जिससे पूरा गढ़वाल क्षेत्र चौपट हो गया था।उस समय चूंकि चार धाम यात्रा भी चल रही थी, इसलिए कोई दस हजार के करीब तीर्थ यात्री मारे गये थे।
यही अब हिमाचल में हो रहा है। जुलाई में मंडी के आसपास का इलाका नष्ट हुआ था और अगस्त की बारिश ने राजधानी शिमला को ध्वस्त कर दिया। सरकारी आंकड़े ही 108 लोगों के इस बारिश में मारे जाने की पुष्टि कर रहे हैं। कुछ पर्यटक भी इस ताबड़तोड़ बारिश में लापता हुए होंगे, जिनकी सूचना नहीं मिल सकी है। पहाड़ों पर शहर बसाने की शुरुआत अंग्रेजों के समय हुई थी। किंतु उन्होंने इस बात का पूरा ख्याल रखा कि पहाड़ों की प्रकृति यथावत रहे।
पहाड़ों पर शहर अंग्रेजों ने सलीके से बसाये थे
शिमला, नैनीताल, दार्जिलिंग से ले कर सुदूर उत्तर-पूर्व में शिलांग अंग्रेजों की ही देन था। शायद कम लोगों को पता होगा, कि आज भी शिलांग को हिल सिटी का दर्जा है। बाकी शहरों को हिल टाउन का। शिमला तो ब्रिटिश कालीन भारत की समर कैपिटल हुआ करती थी। गर्मियां शुरू होते ही वायसरॉय कलकत्ता से शिमला आ जाया करते। कालका एक्सप्रेस ट्रेन चलाई ही इसीलिए गई थी। हावड़ा से वाया दिल्ली कालका और फिर टॉय ट्रेन से शिमला।
इतना करने के बाद भी ब्रिटिशर्स ने किसी भी पहाड़ी शहर का प्राकृतिक दोहन नहीं किया। क्योंकि उन्हें पता था, कि हिमालय के पहाड़ कच्चे हैं। उनका व्यावसायिक इस्तेमाल किया तो वे ढह जाएंगे। यही कारण है कि जब तक अंग्रेज रहे न यहां कभी बादल फटा न आफत की बारिश आई।जबकि आज से 125 साल पहले 1898 में यह बननी शुरू हुई थी। ढाई फुट चौड़े ट्रैक पर से यह ट्रेन गुजरती है।
पहले पहाड़ जाना यानी चार धाम यात्रा पर जाना था
लेकिन आजादी के बाद से भारत की हर चीजों को लूटने का सिलसिला शुरू हुआ।पहले उत्तराखंड जाने का आशय चार धाम- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा करना हुआ करता था। श्रद्धालु हरिद्वार से वाया ऋषिकेश चढ़ाई शुरू करते और बद्री-केदार जाते। यात्रा में वे वही मार्ग चुनते जिससे पहाड़ी लोग जाते अथवा साधु-संत। न कोई सड़क न कोई मोटर। बिहार के एक बाबू साहब साधु चरण प्रसाद ने 1885 से 1890 तक हिंदुस्तान की यात्रा की।
उनका गांव उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से सटा हुआ था और कभी वह गाजीपुर में आ जाते तो कभी वहां से सटे हुए बिहार के जिले में। अंततः वह गांव अब बिहार में है। जब वे यात्रा से लौटे तो 1891 में उन्होंने चार खंडों में एक अद्भुत पुस्तक लिखी- ‘मेरी हिंदुस्तान यात्रा’। वे पूरे देश के हर तीर्थ में गए। कहीं पैदल तो कहीं मोटर तो कहीं ट्रेन से। उन्होंने इन चार धामों की यात्रा का अद्भुत वर्णन किया है।
बद्रीनाथ जाने के लिए एक महीना
बाबू साधु चरण प्रसाद ने सारे पहाड़ी तीर्थ पैदल ही पूरे किए. उन्होंने लिखा है, कि बद्रीनाथ आने-जाने में एक महीने से अधिक का समय लगता. पहाड़ी लोग तो दौड़ते चले जाते पर हमें जाने में समय लगता, लेकिन यह भी दिलचस्प है कि हर पहाड़ दूसरे से जुड़ा हुआ है। हालांकि तब तक अंग्रेजों के कई शोध कर्त्ता पहाड़ों पर घूमने लगे थे। किंतु वे पैदल अथवा खच्चरों पर ही पहाड़ों की यात्रा करते। ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों के पहले लोग पहाड़ों पर नहीं जाते थे।
बल्कि पहले भी लोग वहां रहते थे। सल्तनत और मुगल काल में बहुत से हिंदू राजा पराजित हो कर पहाड़ियों की तरफ चले गए थे। इन मुस्लिम शासकों ने पहाड़ों पर हमला करने की कोई योजना नहीं बनाई। हिमाचल में कांगड़ा और मंडी के राजाओं की बड़ी शान रही है। गढ़वाल में टिहरी स्टेट तो आजादी के पहले तक रही है। कुमाऊं पर नेपाल का कब्जा था। नैनीताल का इलाका 1814 में अंग्रेजों ने नेपाल से जीता था।
इंग्लैंड के अनुकूल पहाड़ी शहर
किंतु देश में जब ब्रिटिश राज कायम हो गया तब उन्होंने इंग्लैंड की आबो-हवा के अनुकूल भारत में पहाड़ी क्षेत्र तलाशे, जहां पर गर्मी में भी ठंड का एहसास रहे। हिमालय की शास्वत नीरवता, रोमांचक और आकर्षक छवि ने अंग्रेजों को लुभाया। पहाड़ के भव्य और अनोखे नजारे अंग्रेजों को भा गए। पहाड़ों की स्वास्थ्य वर्धक और स्फूर्ति दायक जलवायु और आबो-हवा इंग्लैंड जैसी ही थी।
पहाड़ों का स्वच्छ, शुद्ध वातावरण बच्चों के पोषण और विकास के लिए आदर्श समझा गया। इस प्राकृतिक वातावरण के कारण यहां नैनीताल जैसे हिल स्टेशन बसाए गए। पहाड़ों में आवासीय स्कूलों की स्थापना होने लगी। ब्रिटिश साम्राज्य की अखंड एवं ताकतवर सामर्थ्य के प्रतीक साम्राज्यवादी स्थापत्य शैली के भवनों का निर्माण शुरू हुआ। इससे पहाड़ का उन्मुक्त शुद्ध वातावरण और पर्यावरण बिगड़ने लगा।
लेकिन अंग्रेजों ने यहां की प्रकृति से खिलवाड़ नहीं किया
अंग्रेजों ने फिर भी इन पर्वतीय स्थलों की प्राकृतिक स्थिति से अधिक खिलवाड़ नहीं किया। वे हिमालय के कच्चे पहाड़ों की प्रकृति को समझते थे।जरा-सी भी खुदाई से यहां के पहाड़ धसकने लगते। इसलिए स्वाभाविक मार्गों को चौड़ा करने अथवा नदी के प्रवाह क्षेत्र में मकान बनवाने की उन्होंने कभी नहीं सोची। मगर आजाद भारत की सरकारों ने इन पहाड़ों की प्रकृति को समझे बिना हर तरह के भू-उपयोग को छूट दी।
छोटे-छोटे राज्य छूट पाते ही कमाई की दिशा में दौड़ पड़े. न सिर्फ नदी के प्रवाह क्षेत्र को घेरा गया बल्कि पहाड़ों के मूल से लेकर शिखर तक निर्माण चालू हुए, नतीजा सामने है। मध्य हिमालय में सब कुछ स्वाहा हो गया है। अब तो सरकार के बूते की भी बात नहीं है कि वह हिमाचल में शिमला और मंडी, मलानी को वही स्वरूप दे सके जैसा कि पहले था। और इस क्षति का अगर कोई जिम्मेदार है तो वह है अंधाधुंध आधुनिकीकरण। सड़कों को चौड़ा करना और उन घाटियों तक ऊंची इमारतें फैला देना जो पहाड़ को सुरक्षित रखती थीं।
चौड़ीकरण ने चौपट किया शिमला का मार्ग
आज हिमाचल की स्थिति बहुत ख़राब हो चली है। कालका-शिमला रोड को चौड़ा करने के पहले भी कई बार आगाह किया गया था, कि यहां पहाड़ों का खनन ठीक नहीं है। पर तब सरकार नहीं चेती।कालका से शिमला जाते हुए धर्मपुर को इतना व्यावसायिक स्वरूप दे दिया गया है, कि पूरा क्षेत्र बर्बादी के कगार पर है। सोलन शहर में घनी बस्ती के बीच ऊंची-ऊंची इमारतें हैं, जबकि वहां से असली चढ़ाई शुरू होती है।
आज की सरकारों ने कभी नहीं सोचा कि क्यों यहां अंग्रेजों ने टॉय ट्रेन का स्टेशन नीचे बनाया था, ताकि पानी निकलता रहे। मगर सड़क ऊंचाई पर है। इसके बाद खाइयां हैं। कहीं भी ऊपर से लुढ़कने वाले पत्थरों को रोकने के लिए जाल नहीं लगाया गया है। सोलन से डॉ. वाईएस परमार बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के बीच के सारे खाली क्षेत्र पर मकान बन चुके हैं। जब जंगल काटेंगे तो पानी रोकेगा कौन!
कौन रुकता है अब शिमला में?
शिमला की बर्बादी का कारण यह अवैध निर्माण है। पहले हर वर्ष शिमला में 31 दिसंबर को बर्फ जरूर गिरती। ओल्ड गवर्नर हाउस बेटनी कैसल को खूबसूरत भले बना दिया गया गया हो, लेकिन बार-बार पुरानी इमारतों से खिलवाड़ के चलते अब शिमला एक सामान्य पहाड़ी शहर बन कर रह गया है।पुरानी लकड़ी की इमारतें अब ध्वस्त हो रही हैं।
सरकार ने इनके मूल स्वरूप को बनाए रखने पर कोई जोर नहीं दिया। माल रोड की शामें अब नहीं लुभातीं न जाखू मंदिर का वह वीरानापन। अब तो दिल्ली के सैलानी भी शिमला में रुकने की बजाय और आगे बढ़ जाते हैं। वे कुफ़री और फागू जा कर रुकते हैं। सरकार जब विशुद्ध व्यापार की दृष्टि से सोचने लगती है तो यही हश्र होता है।