वैक्सीन का विकल्प तलाशने की जद्दोजहद

Health /Sanitation

(www.arya-tv.com) पूरी दुनिया को कोविड की वैक्सीन का इंतजार है। पिछले दिनों अमेरिका की फाइजर और मोडेर्ना कंपनियों तथा ऑक्सफर्ड की वैक्सीनों के प्रभावी होने की खबरों से उम्मीद बंधी है कि इस साल के अंत तक कोई न कोई वैक्सीन अवश्य आ जाएगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि ये वैक्सीनें उपलब्ध भी हो जाएं तो इनका वितरण और रखरखाव कैसे होगा

फाइजर की वैक्सीन को लेकर पश्चिमी देशों में बड़ा उत्साह है लेकिन इसका भंडारण और वितरण बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य होगा। यह वैक्सीन माइनस 70 डिग्री सेल्सियस तापमान पर ही टिक सकती है। एंटार्कटिक की सर्दी जितना तापमान हम कहां से लाएंगे  भारत में ऐसी वैक्सीन ज्यादा कामयाब होगी जो गर्मियों के उच्च तापमान को बर्दाश्त कर सके। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी कोविड वैक्सीन विकसित की है जो 100 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान भी झेल सकती है। इसे 37 डिग्री सेल्सियस तापमान पर एक महीने तक रखा जा सकता है। अब इस वैक्सीन के ट्रायल शुरू करने की तैयारी चल रही है।

दुनिया में बहुत से लोग कोविड वैक्सीनों को लेकर आशंकित हैं। वैक्सीन आ जाने पर भी कुछ लोग वैक्सीन लगवाने से बचना चाहेंगे। ऐसे लोगों के लिए एक अच्छी खबर यह है कि वैज्ञानिक वैक्सीन के विकल्पों पर भी काम रहे हैं, जिनमें नाक के स्प्रे और एंटीबॉडी ट्रीटमेंट शामिल हैं।

रिसर्चरों ने पता लगाया है कि नाक का स्प्रे फेरेट (बिल्ली जैसा फर वाला जानवर) को कोरोना वायरस से संक्रमित होने से रोकता है। यही स्प्रे मनुष्यों में भी कारगर हो सकता है। इस स्प्रे में लिपोपेप्टाइड नामक रसायन वायरस को कोशिकाओं को संक्रमित करने से रोकता है। प्रयोग के दौरान रिसर्चरों ने पाया कि स्प्रे दिए जाने के बाद फेरेट बिल्लियां बीमार बिल्लियों से संक्रमित नहीं हुईं जबकि फेरेट बिल्लियों के जिस दूसरे ग्रुप को स्प्रे नहीं दिया गया, उसमें वायरस का भारी लोड पाया गया।

अमेरिका में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वेजिलोस कॉलेज ऑफ फिजिशियंस एंड सर्जन्स की टीम का कहना है कि यह स्प्रे उन लोगों को इम्यूनिटी दे सकता है जो वैक्सीन नहीं लगवाना चाहते। रिसर्चर अक्सर सांस के रोगों के अध्ययन के लिए फेरेट बिल्लियों का प्रयोग करते हैं क्योंकि उनके फेफड़े मनुष्यों जैसे होते हैं। इसके अलावा फेरेट बिल्लियों के कोरोना वायरस से संक्रमित होने का खतरा ज्यादा रहता है और यह मनुष्यों की तरह संक्रमण को तेजी से फैलाती हैं।

इस अध्ययन में प्रयुक्त लिपोपेप्टाइड का प्रयोग मीजल्स और नीपा वायरस से होने वाले इंफेक्शंस को रोकने के लिए किया जा चुका है। लिपोपेप्टाइड विकसित करने वाले रिसर्चरों का कहना है कि उनकी एंटी-वायरल दवा बहुत सस्ती है और इसे तेजी से बनाया जा सकता है। इसके लिए रेफ्रिजेशन की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसकी शेल्फ लाइफ भी बहुत लंबी है। इन खूबियों की वजह से इसका प्रयोग घरों, स्कूलों और अस्पतालों में आसानी से किया जा सकता है। यह स्प्रे आबादी के उन वर्गों के लिए बहुत लाभकारी होगा, जिन्हें वैक्सीन नहीं दी जा सकती। इनमें बहुत छोटे बच्चे और बहुत बूढ़े लोग शामिल हैं।

ब्रिटेन में बर्मिंघम यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने भी कोविड से बचाव के लिए नाक का स्प्रे तैयार किया है। यूनिवर्सिटी के हैल्थ केयर टेक्नोलॉजिस इंस्टीटयूट की टीम ने अमेरिका,यूरोप और ब्रिटेन की नियमन संस्थाओं द्वारा मंजूर किए गए यौगिकों का प्रयोग करके यह स्प्रे बनाया है।

इसका अर्थ यह हुआ कि इस स्प्रे को स्वीकृति के लिए उन लंबी-चौड़ी प्रक्रियाओं से नहीं गुजरना पड़ेगा जो किसी नयी दवा के लिए जरूरी होती हैं। पहले से मंजूर उत्पादों से तैयार स्प्रे को शीघ्र ही बाजार में उतारने में कोई कठिनाई नहीं होगी। इस स्प्रे में दो तरह के ‘पोलिसेकराइड पोलिमर रसायनों का प्रयोग किया गया है। इसमें से एक ‘केरजीनन है। यह एंटी-वायरल रसायन है, जिसका प्रयोग खाद्य उत्पादों में गाढ़ेपन के लिए किया जाता है।

दूसरे रासायनिक घोल का नाम ‘गेलान है। यह चिपचिपा रसायन नाक के भीतर कोशिकाओं से चिपक जाता है। इसीलिए स्प्रे के लिए इसे चुना गया है। नाक के भीतर सूक्ष्म बूंदों के रूप में इस घोल का स्प्रे किया जा सकता है। ये बूंदें नाक की भीतरी सतह पर समान रूप से फैल जाती हैं और नीचे नहीं खिसकतीं। यह स्प्रे नाक के भीतर वायरस को रोक कर उस पर परत चढ़ा देता है। नाक को छिड़क कर इस वायरस को शरीर से बाहर किया जा सकता है। स्प्रे के घोल की परत चढऩे के बाद वायरस शरीर में दाखिल नहीं हो सकता। यदि यह छींक या खांसी के जरिए दूसरे व्यक्ति में पहुंचता है तो उसके संक्रमित होने के चांस बहुत कम रहेंगे।

इस अध्ययन के सह-लेखक लीयम ग्रोवर का कहना है कि हमारी नाक हर रोज हजारों लीटर हवा को छानती है लेकिन वह संक्रमण से सुरक्षा प्रदान नहीं करती। हवा में मौजूद अधिकांश वायरस नाक के रास्ते दाखिल हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि हमने जो स्प्रे तैयार किया है, वह वायरस से बचाव करता है। यह स्प्रे एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को संक्रमित करने से भी रोकेगा। स्प्रे का प्रयोग विमानों और कक्षाओं जैसी जगहों पर उपयोगी रहेगा जहां उपस्थिति को सीमित रखना मुश्किल रहता है।

दूसरी तरफ, ऑस्ट्रेलिया के रिसर्चरों ने दावा किया है कि मुर्गी के अंडों से निकाली गई एंटीबॉडीज से तैयार बूंदों को नाक के अंदर लगाकर कोविड के खिलाफ अल्पकालीन इम्यूनिटी हासिल की जा सकती है। मुर्गियां मनुष्य की तरह ही कोरोना संक्रमण के खिलाफ एंटीबॉडीज बनाती हैं और ये एंटीबॉडीज उनके अंडों में भी मौजूद होती हैं। रिसर्चर वायरस के खिलाफ तेजी से एंटीबॉडीज बनाने के लिए मुर्गियों का प्रयोग कर रहे हैं।

रिसर्चरों का ख्याल है कि चार-चार घंटे बाद एंटीबॉडीज से तैयार बूंदों के प्रयोग से अत्यधिक जोखिम वाली जगहों पर स्वास्थ्य कर्मियों को संक्रमण से बचाया जा सकता है। भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाने, फ्लाइट पकडऩे या ड्यूटी पर जाने से पहले इन बूंदों को नाक में लगाने से अस्थायी इम्यूनिटी मिल सकती है। अभी यह साबित नहीं हो पाया है कि मुर्गियों से निकाली गई एंटीबॉडीज मनुष्यों को भी सुरक्षा प्रदान करेंगी। इस बारे में रिसर्च अभी जारी है। रिसर्चरों का मानना है कि एंटीबॉडीज के स्रोत के रूप में मुर्गियों का प्रयोग आसान है और यह सस्ता भी पड़ेगा।