पहली फिल्म में कमलेश पांडे का टैलेंट देखकर जावेद अख्तर ने कहा- मेरे पेट पर लात ना मारो

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(www.arya-tv.com) आप इन्हें नाम से भले ही ना पहचान पाएं लेकिन इन्होंने बॉलीवुड की कई सुपरहिट फिल्में लिखी हैं। कमलेश पांडे सालों से स्क्रिप्ट राइटर और डायलॉग राइटर हैं। इन्होंने ही आमिर खान की ऑस्कर नॉमिनेटेड फिल्म रंग दे बसंती, माधुरी दीक्षित को स्टार बनाने वाली तेजाब, पहला अवॉर्ड दिलाने वाली दिल और खलनायक, सौदागर, चालबाज समेत 45 से ज्यादा हिट फिल्में लिखी हैं। कमलेश को उनके पिता ने पढ़ाई के लिए मुंबई भेजा था, लेकिन इसमें उनका मन नहीं लगा। स्वाभिमान के चलते घर से पैसे लेने से इंकार किया तो मुंबई में खाने के लाले पड़ गए। दो हफ्ते भरपेट खाना नहीं मिला तो सुसाइड के बारे में सोचने लगे, लेकिन मुफलिसी में भी कमलेश ने किताबों का साथ नहीं छोड़ा और यही आदत उन्हें आगे ले गई।

काफी मशक्कत के बाद ऐडवर्टाइजिंग कंपनी में नौकरी लगी और फिर टैलेंट ने फिल्मों के रास्ते खोल दिए। एक के बाद एक हिट फिल्में लिख रहे कमलेश के लिए जावेद अख्तर ने भी एक बार अपने दोस्त से कहा था- उससे कहना मेरे पेट पर लात ना मारे।

गांव बह गया तो बेघर हुआ परिवार

कमलेश पांडे का जन्म बलिया जिले के गांव हंस नगर, उत्तर प्रदेश में हुआ। जिस गांव में ये रहा करते थे वो गंगा नदी में उफान आने पर डूब गया। इनका घर और सारा सामान नदी में बह गया और पूरा गांव बेघर हो गया। उस समय बलिया के कलेक्टर महमूद गांव के दौरे पर आए और हालात देखकर उन्होंने अपने बगीचे पर ही लोगों को सिर छिपाने की जगह दी। घर तो बस गए लेकिन बच्चों की शिक्षा का क्या? ये सोचकर कमलेश के दादाजी ने अपने खेत बेचकर बच्चों के लिए स्कूल बनवाई। गरीबी ऐसी रही कि बिना चप्पल के कभी तपती सड़कों पर नंगे पांव कई किलोमीटर तक चलते। कमलेश बोले, मेरे पिताजी सालों तक बेरोजगार थे, तो खेत बेचकर दादाजी के पास जो पैसे बचे उससे उन्होंने पिता जी को लंदन में लेबर लॉ की डिग्री लेने भेजा।

माता-पिता के प्यार से महरूम रहे कमलेश पांडे

जब कमलेश के पिता ढाई साल बाद लौटे तब भी 5-6 सालों तक उन्हें भारत में नौकरी नहीं मिली। पिताजी का ज्यादातर समय नौकरी ढूंढने में ही बीतता था, जिससे वो कभी कमलेश को समय नहीं दे सके। ना बाप-बेटे की बॉन्डिंग हुई, ना ही पिता ने परवरिश में कोई मदद की। पिताजी बेरोजगार थे तो मां का ज्यादातर समय भी जॉइंट फैमिली में आर्थिक मदद देने वाले लोगों की सेवा करते हुए गुजरा, ऐसे में मां भी कमलेश पर ध्यान नहीं दे सकीं। ताऊजी नौकरी में थे तो कमलेश भी उनके साथ शहर बदलते रहते थे।

करियर की फिक्र में पिताजी ने करवा दिया आर्ट्स कॉलेज में दाखिला

पढ़ाई में कमजोर कमलेश पांडे का पूरा परिवार उनके रवैये से निराश था। सब फिक्र में थे कि उनका करियर कैसा होगा। जब पिता की नौकरी सीमेंट फैक्टरी में लगी तो उनके साथी ने सलाह दी कि बेटे को खाली बैठाने से बेहतर है कि उसका मुंबई के जेजे इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट्स में दाखिला करवा दो। ऐसा ही हुआ। 1965 में कमलेश ने जेजे कॉलेज में एडमिशन लिया। पिताजी हर महीने मनी ऑर्डर भेजते थे।

टॉयलेट पेपर में बनाते थे फिल्मी किताबों के नोट्स

पढ़ाई और सिलेबस पर कमलेश की रोजाना टीचर से बहस होती और उन्हें क्लास से निकाला जाता था। क्लास से निकाले जाने पर कमलेश यूएसआई, ब्रिटिश काउंसिल और अमेरिकन सेंटर जैसी अलग-अलग लाइब्रेरी में समय गुजारते थे। उस लाइब्रेरी में 60 के दशक के हिंदी सिनेमा मूवमेंट से जुड़ी कई किताबे थीं। कमलेश की पढ़ने की रुचि बढ़ने लगी और ये हर सप्ताह में 6 किताबे पढ़ने लगे। पेन और पेपर नहीं होता था तो कमलेश लाइब्रेरियन से पेन मांगकर टॉयलेट पेपर में नोट्स बनाते थे, जिसे देखकर सारे टीचर खूब खुश होते।

कमलेश को 17-18 साल की उम्र में जिंदगी जीने की नई दिशा मिली, जो थी दुनिया को जानने की जिज्ञासा। ज्यादातर सवालों के जवाब इन्हें किताबों में मिले। किताब के जरिए ही कमलेश ने स्क्रीनप्ले (फिल्म की स्क्रिप्ट को सीन बनाना) को समझा। उन्हें समझ आया कि फिल्म कैसे लिखते हैं, हर सीन कैसे बनता है, डायलॉग कैसे होते हैं और उसका फॉर्मेट क्या है।

पढ़ाई छोड़कर लिया 3 सालों का ब्रेक

जब कॉलेज में बात बनती नहीं दिखी तो कमलेश ने बिना घर में बताए पढ़ाई छोड़ दी। एक दिन कमलेश ने पिता को फोन कर कहा कि अब पैसे ना भेजें और यहीं से इनकी भुखमरी और संघर्ष का असल दौर शुरू हुआ।

कई दिनों भूखे रहकर गुजारे दिन

1967-1971 तक कमलेश के लिए संघर्ष का दौर रहा। एक समय ऐसा भी आया जब तीन दिनों तक भूखा रहने के बाद इन्हें भूख लगनी ही बंद हो गई। कमलेश ने भूखा रहने का यही अनुभव एक टीवी शो के डायलॉग में लिखा था। आज भी जब कमलेश किसी फिल्म का डायलॉग लिखते हैं तो उन्हें एक बार अपनी भूख की याद जरूर आती है।