कर्मफल, संस्कार, भाग्य और प्रारब्ध क्या होते है ? देवीदास विपुल के उत्तर

Lucknow

(aryatv.com) के एक पाठक ने पूछा है कि क्या भाग्य और प्रारब्ध एक ही शब्द के दो नाम है? वही किसी अन्य ने पूछा की क्या भाग्य से संस्कार मिलते हैं?

इन्हीं प्रश्नों के उत्तर के लिए पत्रकार डॉक्टर अजय शुक्ला ने अपने को सनातन पुत्र देवीदास विपुल बोलने वाले विपुल जी से बातचीत की और एक साक्षात्कार का रूप दे दिया।

ज्ञात हो विपुल जी पोस्ट ग्रैजुएट इंजीनियर पूर्व परमाणु वैज्ञानिक जो युवावस्था में विपुल लखनवी के नाम से काव्य मंचों पर धूम मचा चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अनेकों वैज्ञानिक लेख लिख चुके हैं। हिंदी के एकमात्र जर्नल वैज्ञानिक के संपादक भी रह चुके हैं। मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र से सेवा निवृत्ति के पश्चात अपनी ट्रस्ट ग्रामीण आदिवासी रिसर्च और वैदिक इनोवेशन ट्रस्ट, जिसे संक्षेप में गर्वित कहते हैं, के माध्यम से। अपने ब्लॉग और वेब चैनल के माध्यम से हजारों जिज्ञासाओं और प्रश्नों के उत्तर देते रहते हैं।

विपुल जी के जीवन का अंतिम लक्ष्य आधुनिक विज्ञान के माध्यम से प्राचीन भारतीय सनातन साहित्य की ऊंचाई को और हिंदुत्व मूल्य की गहराई को जनमानस तक पहुंचना है।

डॉ. अजय शुक्ला: चरण स्पर्श सर। पाठकों के कई प्रश्न प्राप्त हो रहे हैं। एक प्रश्न है क्या भाग्य और प्रारब्ध एक ही होते हैं?

विपुल जी: नमस्कार शुक्ला जी। भाग्य और प्रारब्ध में अधिकतर लोगों को अंतर पता नहीं होता है जिस कारण वह भाग्य को प्रारब्ध के कारण कोसने लगते हैं। वास्तव में हमको इसे समझने के लिए पहले कर्मफल और संस्कार को समझना होगा तब हम भाग्य को और प्रारब्ध को उचित प्रकार से समझ सकेंगे।

डॉ. अजय शुक्ला: जी कृपा करके बताइए।

विपुल जी: देखिए आप जब कोई भी किसी भी गुण का, मतलब सतोगुण रजोगुण अथवा तमोगुण का कर्म करते हैं तो उसका कोई न कोई फल अवश्य प्राप्त होता है वह चाहे सही हो या गलत हो चाहे अभी प्राप्त हो अथवा बाद में प्राप्त हो। जिसको हम कर्म फल कहते हैं।

अब इस कर्म फल को क्या प्राप्त होगा अच्छा या बुरा सही या गलत आपकी निगाह में कुछ भी हो उसके प्रति एक भाव पैदा हो जाता है। कभी-कभी तो हम भाव के वशीभूत होकर कर्म करते हैं जो भी फल अवश्य देता है। अब यह भाव आपके चित्त में संस्कार के रूप में किसी कंप्यूटर के फीड के भांति अंकित हो जाता है।

डॉ. अजय शुक्ला: सर अब यह बताएं चित्त क्या होता है?

विपुल जी: कुछ यह समझिए कंप्यूटर की एक मेमोरी होती है और मेमोरी के लिए प्रोग्रामिंग करते हैं लेकिन प्रोग्रामिंग करने के लिए एक प्लेट चाहिए जिसके ऊपर विभिन्न प्रकार के यंत्र लगाकर उसमें मेमोरी स्टोर की जाए। बस इसी भांति हमारा चित्त है। मेमोरी तो आप खो सकते हैं भूल सकते हैं और बुढ़ापे में तो भूल जाते हैं लेकिन चित्त में जो अंकन है वह सदैव रहता है वह नष्ट नहीं होता। और चित्त में जो छपाई होती है उसे हम संस्कार कहते हैं।

डॉ. अजय शुक्ला: संस्कार के विषय में कुछ बताएं?

विपुल जी: संस्कार तीनों गुण के हो सकते हैं और इनका अंकन जब तक में नष्ट नहीं होगा तब तक में आपका जन्म और मरण होता रहेगा। पतंजलि महाराज का दूसरा सूत्र चित्त में वृति का निरोध ही योग है। मतलब यहां पर सिर्फ और सिर्फ निष्काम कर्म के द्वारा ही हमारे मन में कर्म फल के प्रति कोई आसक्ति नहीं पैदा होगी और हम अपने चित्त में किसी भी प्रकार का कर्म फल का प्रभाव यानी संस्कार का अंकन नहीं होने देते हैं।

डॉ. अजय शुक्ला: अब आप भाग्य और प्रारब्ध के बारे में भी कुछ बताएं।

विपुल जी: (हंसते हुए) जी बिल्कुल आपका प्रश्न तो यही था लेकिन इनको समझाने के लिए बहुत सारे ऐसे शब्द हैं जब तक में वह स्पष्ट नहीं होंगे आपकी समझ में हो सकता है न आए।

देखिए जब हम जन्म लेते हैं तो हम पूर्व जन्म के कर्मफल के संस्कार जो चित्त में अंकित हो गए थे उनको लेकर इस जगत में आते हैं। आप यह सोचिए अभी आपको प्यास लगे तो आपका पानी पी सकते हैं लेकिन एक समय ऐसा होता है जब हमको प्यास लग रही है भूख लग रही है या कुछ और निवृत्ति लग रही है उस समय यदि हम अपने प्राण त्याग दें तो हम न पानी पी पाएंगे न खा पाएंगे और न कोई त्यागन कर पाएंगे। तो उस समय भाव पैदा होगा कष्ट का वह हमारे संस्काररूप में चित्त में अंकित हो जाएगा। अब जब आप अगला जन्म लेंगे तो आप होश संभालते ही पहले पानी पीने का प्रयास करेंगे।

एक साथ एक ग्रह नक्षत्र में अनेकों बालक पैदा होते हैं कोई साधु बनता है कोई संत बनता है ऐसा क्यों होता है? क्योंकि हम यह सब जो हमारे साथ होना है और हो रहा है उसको पूर्व जन्म में प्रारब्ध के अनुसार ज्योतिष की गणना के अनुसार लिखकर लाए हैं। और लगभग 8 वर्ष की आयु तक बालक के कर्म से कोई संस्कार चित्त में संचित नहीं होता है। लेकिन 8 वर्ष के पश्चात वह जो भी कर्म करेगा तीनों गुणों के उनके संस्कार कर्म फल के द्वारा उत्पन्न हो जाएंगे और वह भाग्य बन जाएंगे मृत्यु के होने तक।

आप देखें अक्सर ज्योतिषी गणना की बातें गलत निकल जाती है क्यों? क्योंकि प्रारब्ध तो आप प्रारंभ लब्भयते अर्थात अपने आप जन्म के साथ लेकर आए थे घटित होने के लिए। उदाहरण के लिए समझिए किसी व्यक्ति की 20 साल की आयु में कोई दुर्घटना होनी है या उपलब्धि प्राप्त होनी है। अब यदि मनुष्य तमोगुण कर्म में लिप्त हो जाएगा तो वह 20 साल की दुर्घटना पहले घटित हो सकती है और वह उपलब्धि 20 साल के बाद आगे बढ़ सकती है। यदि सत्यगुणी और उस दिशा में कर्म करेगा तो हो सकता है वह उपलब्धि 20 साल के पहले मिल जाए। मतलब यह हुआ हम 8 साल के बाद जो कर्म कर रहे हैं वह कर्मफल देकर हमारा भाग्य बना रहे हैं। और हम जन्म के साथ जो लेकर आए वह प्रारब्ध है। इसीलिए कहते हैं मनुष्य अपना भाग्य स्वयं बनाता है। अब यही कर्मफल या भाग्य आपने मृत्यु के पूर्व नहीं भोगा तो वह प्रारब्ध के रूप में अगले जन्म में चला जाएगा।

डॉ. अजय शुक्ला: जी बहुत-बहुत धन्यवाद आपने बहुत सुंदर तरीके से उदाहरण देकर समझाया। आर्य टीवी आपका आभारी है मैं और प्रश्न लेकर उपस्थित होता रहूंगा। आप और कुछ कहना चाहेंगे!

विपुल जी: देखिए बोलते हैं “लाभ हानि यश मरण। सब विधना के हाथ। मतलब जो मुख्य घटनाएं हैं मृत्यु इत्यादि यह आप अपने हाथ में लिख कर लाए हैं। लेकिन अपने कर्म के द्वारा आप इनको आगे पीछे कर भी सकते हैं।

इसलिए हे पाठकों अभी से अपने ईष्ट का मंत्र जाप आरंभ कर दो। गुरु के चक्कर में मत पड़ो। मंत्र जप तुमको गुरु तक अपने आप पहुंचा देगा। मंत्र जाप को परिपक्व करने का प्रयास करो। यह तुमको इस ब्रह्मांड में सब कुछ प्राप्त करा सकता है। यदि मन चाहे तो सनातन की शक्ति के अनुभव के लिए सचल मन सरल वैज्ञानिक ज्ञान विधि कर लो। सनातन की शक्ति का अनुभव होने के बाद तुम्हारी आस्था और बढ़ जाएगी। तब आपको सनातन की वास्तविक शक्ति का अनुभव होगा और जो मूर्ख शक्ति के विरुद्ध बोलते हैं उनकी मूर्खता को समझ में आएगा।
आप सभी स्वस्थ रहें व्यस्त रहें मस्त रहें लेकिन अस्तव्यवस्त न रहे। जय सनातन की सर्व व्यापक शक्ति।