दुनिया आप​के कदमों में है आप कदम तो बढ़ाईए, एक महिला फोटोग्राफर

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(www.arya-tv.com) मेरे पिता के लिए हम पांच बहनें घर में किसी कुकरमुत्ते से कम नहीं थीं। हमें एक घर से दूसरे घर में ऐसे फेंक दिया था जैसे एक घूरे से दूसरे घूरे पर कचरा। जैसे कूड़े को दोबारा कोई देखने नहीं जाता, वैसे बाप-भाई नहीं गए। पिता के लिए बोझ समान ये सर्वेश जब 17 साल में ब्याह दी गई, तो वहां भी चैन नहीं मिला। शादी का मतलब मैं समझती थी बिंदी, चूड़ी, साड़ी लिपस्टिक, गहने और खूब प्यार करने वाला पति, जो मुझे प्यार से कभी छूता, मुझसे मीठी-मीठी बातें करता, मेरी दुनिया वो होता, लेकिन शादी की पहली रात ही सारे सपने ऐसे चूर हुए कि आज तक वो नीले निशान याद करने पर सिहर जाती हूं।

…जब फील्ड में उतरीं सर्वेश
वो सैडिस्ट था। मेरे कपड़े फाड़ कर, शरीर पर नील डालकर संबंध बनाता था। कोई रात ऐसी नहीं गुजरी, जिस रात वो मुझे न काटता हो। उसे मेरे शरीर पर नील डालकर ही रिश्ता बनाना अच्छा लगता था। वो भयानक रातें मैं आज तक नहीं भूली।

पति के घर में 12 साल का नरक भोगा, क्योंकि शादी के बाद बच्चा नहीं हुआ। रोज की मार-खसोट, बेइज्जती जैसे अपना लिबास बना लिया था। इतने पर भी घर नहीं छोड़ती, अगर उस दिन वो घटना नहीं घटी होती। बाकी दिनों की तरह उस दिन भी मैं छत पर झाड़ू लगा रही थी, और गलती से कूड़ा नीचे खड़े आदमी पर गिर गया। जैसे कोई लड़ने का मौका ताक रहा था, वैसे वो पड़ोसी मेरे पास आया और मुझे उठाकर फेंकने की धमकी दी। ‘उठा के फेंकने’ की इस लाइन ने मेरी जिंदगी बदल दी। पति के सामने एक पत्नी के आत्मसम्मान पर कालिख पोती जा रही थी, और पति गठरी की तरह जमा था। उस दिन के बाद समझ आया कि अगर किसी दिन कोई मेरा बलात्कार भी कर देगा तब भी ये पति नाम का देवता पत्थर बना रहेगा। उस दिन मेरी आंखें शायद हमेशा के लिए खुल गईं थीं। मन की उधेड़बुन को समेटते हुए सामान की गठरी बनाई और शेल्टर होम में आ गई। बाप ने भी घर में जगह नहीं दी क्योंकि मैं ससुराल छोड़कर आई थी। शेल्टर होम में मेरी मुलाकात आलोक (सोशल वर्कर) से हुई। बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थी सिर्फ 11वीं पास थी, लेकिन उसने मेरे अंदर छिपी असली सर्वेश को पहचाना। कुछ समय बाद मैंने पति को तलाक दिया और बीए भी पास किया।

शादी के बाद सर्वेश
पतली कमर, लंबे बाल और माथे पर बड़ी सी बिंदी लगाने वाली सर्वेश अब ससुराल-मायके के बंधनों आजाद थी। हाथ में कैमरा आते ही सबसे पहले बाल कटवाए और पहली बार आजादी को चखा। कैमरे के साथ मेरे करिअर की शुरुआत देहरादून से हुई। पहला फोटो मैंने एक जूता पॉलिश करते बच्चे का खींचा, जो ‘देहरादून टाइम्स’ में छपा और इसी के साथ मैं देहरादून की पहली महिला फोटोग्राफर कहलाई। देहरादून से जब दिल्ली आई तो उस समय ‘जंगल में आग’ की फोटो नवभारत टाइम्स में मेरे नाम के साथ छपी तो उस तस्वीर को मैं सबको ऐसे दिखाती जैसे कोई नई गुड़िया किसी लड़की को मिल गई हो। वो जंगल की आग शांत हो गई थी पर मेरे फोटो खींचने की आग शांत नहीं हुई। पुरुषों से भरी फोटोग्राफी की फील्ड में एक बाल कटी महिला का उनके साथ खड़े होना भी उन्हें गंवारा नहीं था। मर्दानगी ऐसे गुबार मारती थी कि मेरे घर पर रात में गंदे-गंदे फोन कॉल्स आते, किसी ने काम के बहाने घर बुलाकर सेक्सुअली एब्युज किया तो कोई कार्ड देकर कहता – ‘कोई दिक्कत हो तो मैं सेवा में हाजिर हूं।’ बेघर हुई लड़की का स्वागत दुनिया ने ऐसा किया कि मैं फफकर कई रोई। कई रातें ऐसे रोकर निकालीं। फोटोग्राफी की धक्का-मुक्की के बीच एक सधा हुआ हाथ भी किसी पुरुष का मिला और मुझे ठीक से कैमरा पकड़ना सिखाया। फील्ड में बतौर फ्रीलंसर पैर जमा रही थी, कई रातें भूखे भी निकालीं। खर्च निकालने के लिए ब्यूटीशन का काम भी किया। लंगर में खाना खाकर पेट भरा, लेकिन कोई शॉर्टकट रास्ता नहीं अपनाया। काम करने का जुनून ऐसा था कि फ्रीलांस फोटो जर्नलिस्ट होने पर भी एक दिन करगिल युद्ध कवर करने का मौका मिला। चारों तरफ से गोलियों के बीच मौत को सामने से देखा, पर जोश कहीं रुका नहीं। इसके बाद मेरी करीब 100 से ज्यादा फोटो तमाम अखबारों में छपीं और ‘रॉकेट लॉन्चर से एक शैल टाइगर हिल’ पर जाने के फोटो को भारत सरकार की तरफ से सम्मान भी मिला। इसके बाद मैंने गुजरात सूखा, उत्तरकाशी भूकंप, सीतामढ़ी दंगे जैसे तमाम युद्ध, दंगे, मुद्दे अपने 30 साल के करिअर में कवर किए। फ्रीलांसिंग के अलावा 6 साल तक हिंदुस्तान अखबार में भी काम किया।

करगिल युद्ध कवरेज के दौरान
1989 का ये वो समय था जब फोटोग्राफी में लड़िकयां बहुत कम थीं। अकेली लड़की का फील्ड में उतना आसान नहीं था। जब कोई मुझे अवेलबेल समझता तो मैं लोगों से झूठ कहती कि मेरा पति जर्मनी में रहता और बच्चे घर पर हैं। 2001 में मैंने महिलाओं के फोटोज का एग्जिबिशन लगाया औaर यह मेरी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट था। उस एग्जिबिशन में हंसती और मेहनती महिलाओं के फोटो लगाए थे। इसके बाद मुझे अच्छी फोटोग्राफर की पहचान मिली। वो सारे शौक जो मैं पति और पिता के घर पर नहीं कर पाई थी, वो घर से बाहर निकलकर पूरे किए। घर से निकलकर पैरों में जैसे पंख लग गए हों, फिर मैं ऐसे उड़ी कि कहीं रुकी ही नहीं। दिल्ली से कैलाश मानसरोवर पैदल और कन्याकुमारी तक पैदल गई। रुद्रनाथ से कल्पेश्वर तक ट्रेकिंग में अकेले ही निकल गई। रास्ता भूली, भगवान को याद किया, पर रोते-सिसकते, डरते-डरते जहां जाना था, वहां पहुंच गई।

अब जिंदगी को ऐसे जीतीं हैं
पहली बार हवाई जहाज से लंदन गई तो खुले आसमान को देखती आंखें एक पल के लिए नहीं झपकीं। आज उम्र 60 से ऊपर है, लेकिन जिंदगी जीने की इच्छा नौजवान है। रनिंग, स्किपिंग, ट्रेकिंग, योग सबकुछ करती हूं। हेल्थ का पूरा ध्यान रखती हूं। गॉड फ्रे समेत तमाम अवॉर्ड से सम्मानित हूं और सबसे बड़ी बात जो लड़की कभी डरी सहमी और सताई थी आज उसे बहादुरी के अवॉर्ड मिलते हैं। कभी मेरे पास रहने को रैनबसेरा था। आज मेरे नाम का पता है, मेरे नाम का टू व्हीलर है, मेरी जमीन और मेरा आसमान है।

posted by- Rajesh singh