(www.arya.tv-com) भारत, कनाडा, अमेरिका, जी-20, भारत के दोस्त और प्रतिद्वंद्वियों से संबंधित खबरों की बाढ़ के बीच हम जिस एक चीज को नजर अंदाज नहीं कर सकते, वह है आम भारतीय लोगों के रोजमर्रा का जीवन, जिन्हें अपने घर चलाने के लिए काम करना पड़ता है और जिनके पास ज्यादा पारिवारिक संपत्ति या सामाजिक मदद नहीं है। भारतीय रिजर्व बैंक का ताजा आंकड़ा बताता है कि भारतीय परिवार बचत कम करता है और उधार ज्यादा लेता है।
इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन एक प्रमुख कारण अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियों की कमी है, जो चिंतित करने वाली बात है। अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियों का मतलब वस्तुत: ऐसी नौकरियों से है, जो मानक जीवन जीने के लिए पर्याप्त वेतन की पेशकश करते हों। इस मोर्चे पर हमें अभी लंबा रास्ता तय करना है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की हालिया रिपोर्ट इस बारे में उपयोगी जानकारी प्रदान करती है कि रोजगार के मोर्चे पर हम अभी कहां हैं।
स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया, 2023 रिपोर्ट हमारे लिए कुछ अच्छी खबरें भी लेकर आई है कि जातिगत अलगाव कम हुआ है। 1980 के दशक की शुरुआत में अनुसूचित जाति के श्रमिकों का प्रतिनिधित्व कचरा निष्पादन से संबंधित कार्यों में पांच गुना से ज्यादा और चमड़े से संबंधित कार्यों में चार गुना से ज्यादा था। समय के साथ इसमें तेजी से कमी आई है, हालांकि वर्ष 2021-22 तक यह खत्म नहीं हुआ।
1980 के दशक की स्थिरता के बाद से नियमित वेतन वाले श्रमिकों या वेतनभोगी कर्मचारियों की हिस्सेदारी 2004 में बढ़ने लगी और यह बढ़कर पुरुषों में 18 फीसदी से 25 फीसदी तथा महिलाओं में 10 फीसदी से बढ़कर 25 फीसदी हो गई। वर्ष 2017 से 2019 के बीच यह बढ़कर 50 लाख प्रति वर्ष हो गई।लेकिन नियमित वेतन वाली नौकरियों के सृजन की गति अर्थव्यवस्था में सुस्ती और महामारी के कारण वर्ष 2019 से घटने लगी।
बेरोजगारी बेशक कम हुई है, लेकिन यह अब भी उच्च स्तर पर बनी हुई है।रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘रोजगार सृजन भारत की मुख्य चुनौती बना हुआ है।’कोविड-19 महामारी के बाद सभी शैक्षणिक स्तरों पर बेरोजगारी में कमी आई है। लेकिन स्नातकों के मामले में यह अब भी 15 फीसदी से ऊपर और युवा स्नातकों के मामले में 42 फीसदी के उच्च स्तर पर है। रिपोर्ट बताती है कि बुजुर्ग श्रमिकों और कम शिक्षित श्रमिकों में यह दो से तीन प्रतिशत के दायरे में है।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि गिरावट या स्थिरता के बाद वर्ष 2004 से महिला रोजगार की दर वास्तव में बढ़ी है। इसका मुख्य कारण स्व-रोजगार में वृद्धि है, जिसमें 2019 के महामारी के बाद और बढ़ोतरी हुई है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि कम वेतन वाले व्यवसायों में महिलाओं और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व अधिक है।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की रिपोर्ट हमें बताती है कि वर्ष 2017 से 2021 के बीच समग्र नियमित वेतन वाले रोजगार सृजन में मंदी की स्थिति थी, लेकिन सभी नियमित वेतन वाले कार्यों की हिस्सेदारी के रूप में औपचारिक नौकरियां (लिखित अनुबंध और लाभ के साथ) 25 फीसदी से बढ़कर 35 फीसदी हो गईं। वर्ष 2020-21 (महामारी वर्ष) में नियमित वेतन वाले रोजगार में 22 लाख की गिरावट आई।
लेकिन यह परिवर्तन औपचारिक रोजगार में 30 लाख की वृद्धि, जबकि अर्ध व अनौपचारिक नियमित वेतन वाले रोजगार में लगभग 52 लाख के नुकसान को छिपाता है। रिपोर्ट बताती है कि जितने रोजगार का नुकसान हुआ है, उसमें से आधा महिलाओं से संबंधित है, जबकि औपचारिक रोजगार में वृद्धि का केवल एक तिहाई हिस्सा ही महिलाओं को मिला है। इसलिए स्पष्ट शब्दों में कहें, तो इस अवधि में महिलाओं को औपचारिक रोजगार से हाथ धोना पड़ा है।
इतना ही नहीं, संकट के कारण स्व-रोजगार की तरफ उनका रुझान बढ़ा है।सवाल उठता है कि ऐसे समय में रोजगार की दरें क्यों बढ़ीं, जब विकास की गति सुस्त थी। रिपोर्ट में दलील दी गई है कि यह स्वरोजगार बढ़ने के कारण हुआ, जिसकी तरफ संकट के दौरान लोगों का रुझान बढ़ा। इस रिपोर्ट में कामकाजी महिलाओं के संबंध में कुछ दिलचस्प बातें हैं। इसमें कहा गया है कि एक जिले में महिला स्नातकों का अनुपात घर से बाहर कार्यरत महिलाओं के अनुपात से सकारात्मक रूप से जुड़ा हुआ है।
इसमें तर्क दिया गया है कि इसके दो सहज कारण हो सकते हैं।पहला यह कि जिन जिलों में महिला स्नातकों की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत ज्यादा है, वहां महिलाओं की श्रम आपूर्ति अधिक होने की संभावना है। दूसरा, ऐसी संभावना है कि जिन जिलों में महिला स्नातकों की हिस्सेदारी ज्यादा है, वे आर्थिक रूप से ज्यादा विकसित हैं और इस प्रकार महिलाओं के लिए रोजगार के ज्यादा अवसर प्रदान करती हैं।
लेकिन देश के कुछ हिस्सों में कामकाजी महिलाओं के खिलाफ नकारात्मक प्रतिक्रिया वास्तव में चिंता की बात है।रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन जिलों में महिलाओं को कम प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है, वहां महिलाओं के वेतन वाला काम करने की संभावना होती है, लेकिन इसके प्रतिकूल प्रभाव के भी सबूत मिलते हैं। ‘वेतन वाला काम करने वाली महिलाएं ज्यादातर उन जिलों में रहती हैं, जहां घरेलू हिंसा ज्यादा प्रचलित है।
ऐसा नकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रभाव के कारण हो सकता है।बताया गया है कि स्थापित लैंगिक मानदंडों को चुनौती देने के कारण कामकाजी महिलाओं को अपने साथी द्वारा हिंसा का सामना करने की आशंका ज्यादा रहती है।’ यह भारत के रोजगार परिदृश्य के लिए दुखद है, और हमें देश की क्षमताओं और उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए भी शांति और निष्पक्षता के साथ इस तथ्य का सामना करना चाहिए।
भारत एक युवा राष्ट्र है, जहां की औसत आयु 28 वर्ष है। भारत के युवा पुरुषों एवं महिलाओं को वेतन वाले रोजगार की आवश्यकता है।उम्मीद करनी चाहिए कि मध्य प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों में रोजगार चुनावी एजेंडे में सबसे ऊपर होगा।
राजनीतिक दलों को इस पर बात करनी चाहिए कि वे इस मामले में क्या करने को तैयार हैं। और नागरिकों को अपने युवा देशवासियों-हमारे बेटे-बेटियों, जिनका भविष्य देश का भविष्य है, के लिए रोजगार की वास्तविक समय-सीमा निर्धारित करने के लिए सरकार पर जोर डालना चाहिए।