शिवराज की सियासत पर कमलनाथ की चालाकी भारी! कर्नाटक के झटके से MP में उबरेंगे PM मोदी?

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(www.arya-tv.com) राजनीति विज्ञानी वेन विलकॉक्स ने मध्य प्रदेश को ‘विभिन्न राज्यों के बचे हुए हिस्सों को एक विषम इकाई में मिलाकर बनाया गया एक संग्रह’ बताया था। उन्होंने कहा था कि ‘भारत में किसी भी राज्य में एकता के आधार कम नहीं हैं।’ चुनाव प्रचार गति पकड़ने के साथ ही यह सवाल उठता है कि बीजेपी या कांग्रेस में से किसके पास अधिक प्रभावी सामाजिक गठबंधन है? वर्ष 2000 में मध्य प्रदेश के विभाजन तक, राज्य को पारंपरिक रूप से चार अलग-अलग क्षेत्रीय इकाइयों का एक ढीला-ढाला समूह माना जाता था।

पहला, मालवा पठार की ओर मध्य-पश्चिम मध्य भारत क्षेत्र। दूसरा, उत्तर-पूर्वी विंध्य प्रदेश क्षेत्र, जो उत्तर प्रदेश से सटा हुआ है और विंध्य पर्वतों से जुड़ा है। तीसरा, दक्षिणी महाकौशल क्षेत्र, जो महाराष्ट्र से सटे एक खनिज संपन्न इलाका है। और चौथा, दक्षिण-पूर्वी छत्तीसगढ़ क्षेत्र, जिसे बाद में एक अलग राज्य में विभाजित कर दिया गया था।

वर्ष 2000 से पहले की मध्य प्रदेश की राजनीति का लेखा-जोखा लेने के तीन प्रारंभिक बिंदु हो सकते हैं-

पहला, जब 1956 में राज्य का गठन हुआ था, उस समय दो-तिहाई से अधिक विधानसभा क्षेत्र पूर्ववर्ती रियासतों में स्थित थे। मध्य प्रदेश का राजनीतिक इतिहास पर कांग्रेस का वर्चस्व रहा है, जो पूर्व रियासतों के कुलीन वर्ग और पारंपरिक जमींदार जातियों से जुड़ी रही है।

दूसरा, पारंपरिक कुलीनों को साथ मिलाने का मतलब था कि मध्य प्रदेश की राजनीति कांग्रेस की व्यापक छत्रछाया में गहन गुटबाजी की तर्ज पर विकसित हुई। पूर्व मुख्यमंत्रियों डीपी मिश्रा और एससी शुक्ला जैसे गुटबाज नेता उप-क्षेत्रीय कांग्रेस इकाइयों पर हावी थे और प्रमुख पार्टी के भीतर सत्ता का एक नाजुक संतुलन बनाए रखते थे।

कांग्रेस ने अपने गठन के बाद से लगभग लगातार वर्ष 2000 से पहले तक के संयुक्त मध्य प्रदेश पर शासन किया। दो छोटे अपवाद 1977-80 का जनता काल और 1990-92 की संक्षिप्त भाजपा सरकार की अवधि थी।

तीसरा, मध्य प्रदेश में उच्च जातियों का वर्चस्व उत्तर प्रदेश और बिहार की तुलना में भी अधिक गहरा था। सुधा पई के अनुसार, यह वर्चस्व इसलिए संभव हो पाया क्योंकि आजादी से पहले कांग्रेस ने पूर्ववर्ती रियासतों में राजनीतिक लामबंदी नहीं की। इस कारण, 1967 तक कांग्रेस सरकारों में 66% से 86% राज्य स्तरीय मंत्री उच्च जातियों के थे।

1990 के दशक में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उत्तरी राज्यों की राजनीति को बदलने वाली मंडल राजनीति की लहर से मध्य प्रदेश अपेक्षाकृत अछूता रहा। इसके दो कारण थे-

पहला, मध्य प्रदेश में ओबीसी की लगभग 40% जनसंख्या है, लेकिन वहां यादवों, कुर्मियों और जाटों जैसी प्रमुख कृषि जाति की कमी है। कोई भी मध्यवर्ती ओबीसी जाति, राज्य की जनसंख्या का 5% से अधिक हिस्सा नहीं रखती है। यादव 4%, कुर्मी 2.5% और जाट वर्ष 2000 के बाद की राज्य की जनसंख्या के 0.3% हैं। प्रदेश में ओबीसी जातियां हुई हैं, इस कारण राजनीति में उनका प्रभावी समूह बनना कठिन हो जाता है।

दूसरा, दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1990 के दशक में मध्य प्रदेश में पूरी तरह सोच-समझकर ‘चरमपंथियों के गठबंधन’ की रणनीति बनाई। इस रणनीति ने ओबीसी को दरकिनार कर दिया और उच्च जातियों, विशेष रूप से राजपूतों को दलित और आदिवासी मतदाताओं के साथ लाया। कांग्रेस ने तब दलितों और आदिवासियों को संरक्षण और विशेष रियायतों के जरिए लुभाया ।

यह प्रभावी लामबंदी का एक शानदार उदाहरण था क्योंकि 14 प्रतिशथ दलित और 21 प्रतिशत आदिवासी मिलकर राज्य की जनसंख्या का एक तिहाई से अधिक हिस्सा रखते हैं। इस प्रकार, दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने लगातार दो बार जीत हासिल की, जबकि मंडल और मंदिर राजनीति के कारण 1990 के दशक में उत्तरी भारत के अधिकांश हिस्सों में पार्टी का सफाया हो गया था।

दिग्विजय सिंह के कार्यकाल का अंत क्यों हुआ और उनकी जगह शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार क्यों आई? इसका जवाब दो भागों में दिया जा सकता है।

पहला, मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने दलितों और आदिवासियों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ प्रशंसनीय काम किए, लेकिन उन्होंने सार्वजनिक बुनियादी ढांचे जैसे सड़क और बिजली की बिगड़ती स्थिति की समस्या को काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया। बीजेपी ने 2003 में ‘बिजली सड़क पानी’ के नारे पर चुनाव जीता था।

दूसरा, कांग्रेस को उस चुनाव में ओबीसी के गुस्से का भी सामना करना पड़ा था। राजनीति विज्ञानी जेम्स मैनर के अनुसार, ओबीसी को कांग्रेस का दलितों और आदिवासियों के प्रति झुकाव पसंद नहीं आया और उन्होंने उमा भारती और बाद में चौहान जैसे ओबीसी नेताओं के नेतृत्व वाली बीजेपी की ओर रुख किया।

संख्यात्मक रूप से मजबूत ओबीसी के बीच बीजेपी ने 2003 में 50% वोट जीते, जबकि कांग्रेस को सिर्फ 26% वोट मिले। बीजेपी के पक्ष में ओबीसी का मजबूत एकीकरण बताता है कि पिछले दो दशकों में पार्टी राज्य की राजनीति पर क्यों हावी रही है।

इसके अलावा, चौहान ने किसानों के व्यापक चुनावी क्षेत्र के तहत ओबीसी को लामबंद किया। यह चुनावी रूप से समझदारी भरा कदम था क्योंकि इस राज्य में अपेक्षाकृत पिछड़ों की आधी से अधिक आबादी खेती-किसानी में लगी हुई है। अशोक गुलाटी एवं अन्य अर्थशास्त्रियों के 2017 के एक रिसर्च पेपर के अनुसार, चौहान सरकार के नीतिगत हस्तक्षेपों-

विस्तारित सिंचाई, भूजल सिंचाई के लिए विश्वसनीय बिजली आपूर्ति, बेहतर खरीद प्रणाली और ग्रामीण सड़कों में निवेश आदि ने राज्य के कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय सुधार किया। 2007-15 की अवधि में कृषि सकल घरेलू उत्पाद में औसतन 10.9% प्रति वर्ष की वृद्धि हुई, जो भारत में सबसे अधिक और राष्ट्रीय औसत 4.3% से काफी अधिक है।

2018 के बाद के चरण में मध्य प्रदेश की राजनीति को एक प्रतिस्पर्धी दौर के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें न तो बीजेपी और न ही कांग्रेस एक प्रमुख राजनीतिक गठबंधन बनाने में सक्षम रही है। कृषि विकास धीमा हुआ है और किसानों की आय ठप हो गई है, जबकि स्वास्थ्य के पैमाने पर एमपी की स्थिति देश में सबसे खराब है।

ओबीसी अब बीजेपी के पक्ष में मजबूती से खड़े नहीं दिखते हैं। मौजूदा सीएम गुटबाजी बढ़ने के कारण काफी कमजोर हो गए हैं, औरकमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी ज्यादा आरक्षण देने जैसे वादे से ओबीसी पर खूब डोरे डाल रही है।

बीजेपी को पिछले चुनाव में ही दलित और आदिवासी मतदाताओं के भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। 2018 के चुनावी सर्वेक्षणों के अनुसार, कांग्रेस ने आदिवासियों के बीच बीजेपी को 10 प्रतिशत और दलितों के बीच 16 प्रतिशत वोटों के अंतर से हराया था।

ओपिनियन पोल में इस बार बीजेपी-कांग्रेस में बेहद कड़ी टक्कर के संकेत मिल रहे हैं। कांग्रेस को मामूली बढ़त मिलती दिख रही है। दो दशकों का कार्यकाल के बोझ से बीजेपी थकी-हारी दिखने लगी है। उधर कांग्रेस पार्टी दुर्लभ एकता में काम कर रही है और जोश से लबालब है।

हालांकि, मध्य प्रदेश में बीजेपी-आरएसएस संगठन मजबूत बना हुआ है। भाजपा अभी भी शहरी निर्वाचन क्षेत्रों और अपने पारंपरिक गढ़ मालवा क्षेत्र में बहुत ताकतवर है। अंत में, राज्य में प्रधानमंत्री मोदी की अपार लोकप्रियता को देखते हुए मध्य प्रदेश में भाजपा को हटाना निश्चित रूप से आसान काम नहीं होगा।