विपुल जी से बेबाक अटपटे प्रश्न डॉ. अजय शुक्ला, पत्रकार

Lucknow National

पूर्व परमाणु वैज्ञानिक गर्वित ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष सनातन चिंतन और विचारक, अपने ब्लॉग और चैनल के माध्यम से हजारों लोगों की सनातन संबंधी जिज्ञासाओं को शांत करनेवाले, अपनी ज्ञान की सरलतम वैज्ञानिक विधि के द्वारा हजारों को सनातन की शक्ति का घर बैठे अनुभव करवानेवाले विपुल सेन लखनवी जी के लगभग 20 साक्षात्कार छप चुके हैं। हर तरीके से यह प्रयास किया गया की विपुल जी सनातन की जिज्ञासाओं के ऊपर प्रश्नों में कहीं पर अटक जाए। लेकिन बड़ी बेबाकी से तात्कालिक उत्तर मिलना भी एक अचरज करने वाला बड़ा अनुभव प्राप्त हुआ। उन्हीं आधार पर एक साक्षात्कार बनाया गया जो प्रस्तुत है।

डॉ. अजय शुक्ला: प्रणाम सर। कुछ अटपटे प्रश्न में लेकर आया हूं क्या आपसे पूछ सकता हूं?

देवीदास विपुल: अजय जी नमस्कार आप बिल्कुल भी संकोच न करें यदि आपके पाठकों ने अटपटे प्रश्न किए हैं उनका भी स्वागत है। आप सहर्ष प्रश्न पूछे।

डॉ. अजय शुक्ला: जी धन्यवाद। एक पाठक ने पूछा है आप अपने लिखे में बड़े स्पष्ट तरीके से मूर्ख शब्द प्रयोग कर देते हैं। आप अज्ञानी भी इस्तेमाल कर सकते हैं। क्या यह एक संत के मुख से शोभा देता है?

देवीदास विपुल: अजय जी मैं एक मानव हूं गलतियों का पुतला हूं। हो सकता है कभी-कभी आवेग में मैं कुछ अटपटी भाषा का प्रयोग कर देता हूं। इसका एक कारण यह है यह मेरी कमजोरी है मैं सनातन के विरोध में कुछ भी सुन नहीं पाता हूं। अधिकतर लोग बिना सनातन को जाने बिना उस मार्ग पर चले बिना अनुभव लिए सनातन का विरोध करने लगते हैं जो मुझे अच्छा नहीं लगता। अभी हाल ही में एक बड़ी पार्टी का नेता जो ऊंट ऐसा बलबलाता रहता है और अपनी गर्दभ आवाज में सनातन को गालियां देता रहता है। उसने शक्ति का यानी हमारे आराध्य का अपमान भी किया। क्या मैं चुप बैठ जाऊं? मैं तो यह कहना चाहूंगा जो भारतवासी हिंदु इसको सहन करता है वह हिंदू है ही नहीं।

डॉ. अजय शुक्ला: आप इसको सहन क्यों नहीं कर लेते?

देवीदास विपुल: अजय जी मैं न तो कोई गुरु हूं और न मेरी गुरु बनने की इच्छा है। न मैं कोई सन्यासी हूं। इन दोनों में शिष्यों की संख्या बढ़ाने की इच्छा रहती है। जिसके कारण मीठा मुख रखना पड़ता है आपने देखा होगा तमाम अपराध करने वाले लोग भी मुख से शहद उगलते हैं। जिनको जगत से कुछ लेना है दूसरे की जेब खाली करवानी है वह मुख में शहद रखकर बात कर सकते हैं मुझे जगत से कुछ न चाहिए। मुझे न नाम न दाम और न ईनाम किसी की कोई इच्छा है। न मैं इस दिशा में प्रयास करता हूं। इस कारण मेरे मन में जो विचार आता है मैं स्पष्ट रख देता हूं।

डॉ. अजय शुक्ला: लेकिन फिर आपके ट्रस्ट को डोनेशन कैसे मिलेगी?

देवीदास विपुल: देखिए मैं जो भी कर रहा हूं मैं नहीं कर रहा हूं न मेरी क्षमता है और न मेरी सामर्थ्य है। सब प्रभु की लीला से होता है और जब यह कार्य प्रभु का है तो प्रभु को सहायता करनी ही पड़ेगी। क्योंकि मुझे कुछ अपेक्षा नहीं है इस कारण अधिक व्यवधान आने पर ट्रस्ट के नियमानुसार किसी अन्य ट्रस्ट को जो समान विचारधारा का हो उसको देकर मैं राम-राम कर लूंगा।

डॉ. अजय शुक्ला: आप ट्रस्ट को ट्रस्टी के बीच में बांट भी सकते हैं?

देवीदास विपुल: शुक्ला जी मेरे चार्टर्ड एकाउंटेंट ने कहा सर आपने ट्रस्ट के नियम इतने सख्त बनाए हैं कि कहीं आपको ही परेशानी न हो जाए। एक छोटा सा उदाहरण है यदि ट्रस्ट को डिसोल्व करना है तो किसी भी ट्रस्टी को उसमें से एक पैसा भी एक वस्तु भी प्राप्त नहीं होगी सारी की सारी संपत्ति पैसा इत्यादि किसी अन्य समान विचारधारा के ट्रस्ट को दान कर दिए जाएंगे अथवा सरकार को दे दिए जाएंगे किसी व्यक्तिगत व्यक्ति को इसमें से एक फूटी कौड़ी नहीं मिलेगी। मेरे ट्रस्ट को आयकर की धारा 80 जी के अंतर्गत छूट भी मिली है।

डॉ. अजय शुक्ला: यदि आप न गुरु बनना चाहते हैं न सन्यासी बनना चाहते हैं तो लोगों की सहायता क्यों कर रहे हैं?

देवीदास विपुल: मैं अपने आप को मां जगदंबे का, प्रभु का एक चपरासी मानता हूं बल्कि वह भी नहीं मानता हूं क्योंकि मैं कुछ भी नहीं। यदि आप अलंकार देना चाहते हैं तो मैं मां काली के द्वार का एक कुत्ता हूं। मुझे प्रभु के आदेश से जगत में आना पड़ा। मैंने अपने अनुभव 25 वर्षों से अधिक समय तक छुपा कर रखे। लेकिन प्रभु के आदेश से “अब तुम प्रकट हो जाओ”। मैंने यह निवेदन किया भगवान मुझे मार्ग कौन दिखाएगा बोले अपने आप बनते जाएंगे। बस वर्ष 2018 में धीरे-धीरे दिशा में प्रभु के आदेश से बढ़ने लगा। मन में यह साथ आने लगा। जो कुछ भी जीवन बचा है उसमें एक ही लक्ष्य होना चाहिए। आधुनिक विज्ञान के माध्यम से सनातन की ऊंचाई और हिंदुत्व की गहराई को जनमानस तक पहुंचाऊं।

डॉ. अजय शुक्ला: फिर भी आपको इतने लोग गुरु बनाना चाहते हैं। आपकी सचल मन सरल वैज्ञानिक ध्यान विधि द्वारा कितने लोगों को देवदर्शन सनातन की शक्तियों की अनुभूतियां हो चुकी है फिर भी आप गुरु क्यों नहीं बनते? मैं स्वयं शिष्य बनना चाहता हूं। आप कोई और कारण बताएं क्यों नहीं बनना चाहते हैं?

देवीदास विपुल: पहले तो मेरा यह मानना है कि क्या बिना गुरु बने सनातन का प्रचार नहीं हो सकता? सनातन का ज्ञान जगत में नहीं फैलाया जा सकता? क्या यह आवश्यक है किसी को अपने बंधन में बांधो।

दूसरी बात जो बेहद सूक्ष्म है जगत के लोग नहीं समझते हैं और नकली गुरु तो बिल्कुल नहीं समझते हैं क्योंकि वे सिर्फ धन अर्जन के लिए गुरु बनना चाहते हैं।

डॉ. अजय शुक्ला: क्या है वह कारण कुछ बताएंगे।

देवीदास विपुल: देखिए अजय जी पहली बात तो यह है की गुरु की एक विशिष्ट पहचान होती है जिस पर आप एक साक्षात्कार छाप चुके हैं। जो गुरु होता है। वह जब किसी शिष्य पर अपना हाथ रखता है तो शिष्य के साथ उसकी शक्ति रुपी रस्सी से बंधन हो जाता है। शिष्य के कर्मफल गुरु के अंदर प्रवेश कर जाते हैं। इसीलिए आपने देखा होगा जो उच्च कोटि के संत महात्मा होते हैं वह किसी न किसी बड़े रोग से प्राण त्यागते हैं। क्योंकि वह शिष्यों के प्रारब्ध अपने ऊपर जाने अनजाने में ले लेते हैं। इन प्रारब्ध को भी रोकने के लिए एक विशेष साधना करनी पड़ती है। जो समय की बर्बादी भी हो सकती है। मैं स्वयं कर्क जैसे भयानक रोग का शिकार होने से प्रभु कृपा से बचा हूं।

गुरु में परंपरा का बहुत महत्व होता है जो बिना परंपरा के गुरु बन जाते हैं उनके शिष्य का कभी भी कल्याण नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि कोई भी परंपरा का गुरु कभी यह नहीं कहता कि मैं गुरु। वह कहता है कि वह मेरे गुरु का दिया हुआ है। जिस कारण उस गुरु के गुरु उसके परम गुरु उसके दादा गुरु उन सभी की शक्तियां उस गुरु को सहायता करती क्योंकि इन गुरुओं के आदेश से ही उसको गुरु का पद प्राप्त हुआ है। परंपरा में भी यदि कोई बिना अपने गुरु की आज्ञा के गुरु बन जाता है तो उसको परेशानियों का सामना करना निश्चित रूप से पड़ जाता है। मैं नाम नहीं लूंगा एक बहुत बड़े संत मुझे उनके उपदेश अच्छे लगते थे। उनके उपदेश में बहुत गहराई है। मैं प्रतिदिन उनके उपदेश सुनता था लेकिन वह अपने गुरु की बिना आज्ञा से गुरु बने लाखों शिष्य बनाए किंतु पिछले 12 साल से बिना किसी कारण के जेल में बंद है। बड़े-बड़े अपराधियों को पैरोल मिल जाता है। उनको पैरोल भी नहीं मिल रही है।

मतलब पहले तो जो बिना परंपरा का गुरु बना वह तो महापापी है ही। बल्कि जिसको उसकी परंपरा का आदेश मिले दूसरा, इष्ट का आदेश हो तब किसी को गुरु बनने का प्रयास करना चाहिए। केवल दुकानदारी के लिए जगत से कुछ प्राप्त करने के लिए गुरु बनना महापाप है और मैं तो यह मानता हूं कि जो कोई गुरु बनने का प्रयास करता है वह निश्चित रूप से महानरक का पापी होता है।

डॉ. अजय शुक्ला: अब आपने फिर इतना कठोर वचन इस्तेमाल किया सन्यासी के बारे में क्या कहते हैं?

देवीदास विपुल: देखिए आज के जमाने में कभी कोई इक्का दुक्का आता है जो कहता है कि मुझे प्रभु चाहिए। बाकी सबको सिर्फ जगत चाहिए ऐसे लोगों को किस भाषा में समझाएं। सन्यास एक मन की अवस्था होती है। आजकल तो ” नारी मुई और संपत्ति नासी मूड़ मुढ़ाए भए सन्यासी”। कलयुग है नकली माल हर जगह मौजूद है आजकल तो जनता जागरुक हो गई है कितने गैर हिंदू लोग गेरुवा वस्त्र पहनकर सन्यासी बनकर भीख मांगते फिर रहे हैं। लेकिन जो उनको वास्तविक समझ कर फंस जाते हैं। उनको मूर्ख न कहे तो क्या कहें!

डॉ. अजय शुक्ला: जी आपका अटपटे प्रश्नों के उत्तर के लिए बहुत-बहुत आभार। आपकी सेवा में फिर उपस्थित होऊंगा। धन्यवाद।
देवीदास विपुल: जी आपका सदैव स्वागत रहेगा।