नवधा भक्ति क्या होती है ? साक्षात्कार

Lucknow

(www.arya-tv.com)आर्य टीवी को बड़ी प्रसन्नता है कि सनातन ज्ञान के विषय में पाठकों के प्रश्न निरंतर प्राप्त होते जा रहे हैं। बड़ी जिज्ञासा से कई पाठक नए साक्षात्कार की प्रतीक्षा करते हैं। सभी पाठकों को धन्यवाद देते हुए पत्रकार डॉ. अजय शुक्ला पुनः विपुल जी के पास उत्तर के लिए पहुंच गए।

ज्ञात हो पिछले कई अंकों में भारतीय सनातन ज्ञान को समझने के लिए आर्य टीवी पर सनातन प्रचारक स्कॉलर और चिंतक विपुल लखनवी जी के कई साक्षात्कार प्रकाशित हुए हैं। विपुल जी पूर्व परमाणु वैज्ञानिक, कवि, लेखक और संपादक रहे हैं। वे जटिल से जटिल प्रश्नों के उत्तरों को बड़ी सहजता से देते हैं जिनको संकलित करने का प्रयास किया जाता है।

प्रस्तुत है साक्षात्कार के कुछ पाठकों के प्रश्नों के उत्तर।

डा. अजय शुक्ला: नवधा भक्ति क्या होती है

विपुल जी: प्राय: ज्ञानी जन नवधा भक्ति की बात करते है और अलग अलग तर्क देते हैं कोई कहता है भक्ति के नौ तरीके है, तो कोई नौ मार्ग हैं, पर मेरे विचार से सभी नौ अवस्थायें है भक्ति मार्ग की हैं और एकसाथ आगे पीछे आती रहती हैं।

पत्रकार अजय शुक्ला: क्या भागवत की नवधा भक्ति और श्री रामचरितमानस की नवधा भक्ति में कुछ अंतर है?

विपुल जी: रामायण व रामचरितमानस के अनुसार जब भगवान श्रीराम ने वनवासिनी मां शबरी को नवधाभक्ति के विषय में बताया था और भागवत में भगवान श्री कृष्ण ने नवधाभक्ति के बारे में बताया है। देखने में दोनों अलग-अलग लगते हैं। लेकिन सबका सार एक ही है।

पत्रकार अजय शुक्ला: कुछ विस्तार से समझाएं!

विपुल जी: यदि हम तुलसी दास को देखें तो उन्होने प्राचीन ग्रंथो को काव्यमय तरीके से सरल भाषा में अनुवाद कर समझाने की कोशिश की है। साकार और सगुण उपासना कर किस प्रकार से प्रभु की प्राप्ति कर अपने जीवन को समझा जाये और दुखों में भी भक्ति के द्वारा सुखों की अनुभूति की जाये। वास्तव में आध्यात्म के द्वारा आपको दुख और संकट सहने की क्षमता आ जाती है।

वहीं भागवद पुराण में नवधा के विषय में कहा गया हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
अर्थात
श्रवण (सुनना), कीर्तन (गुणगान), स्मरण (सदा याद यानी मंत्र जप), पादसेवन (सेवा संतो और समाज की), अर्चन (नियमित पूजन), वंदन (नियमित प्रार्थना), दास्य (अपने को प्रभुदास समझना यानी कुछ गर्व न करना), सख्य (स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञ और समत्व का भाव) और आत्मनिवेदन (अपने को वश में रखना) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

पत्रकार अजय शुक्ला: पुराण में और क्या कहा समझाएं!

विपुल जी: भागवत में जो कहा है। इसको विभिन्न उदाहरण देकर और समझा जा सकता है।
श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) । यह सब क्या करके भक्ति को प्राप्त हुये या यूं समझे भक्ति के मार्ग के किन नौ द्वारों या अवस्थाओं से वे अंदर गये और मुक्त हुये।

श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना, चिंतन करना कुल मिलाकर मंत्र जप।
पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना। संतो, गुरू और समाज की बिना अहंकार पाले सेवा करना। अर्थात प्रभु सब तेरा रूप तेरी सेवा।

अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना। अर्थात नियमित्ता बनाये रखना पूजन को भी नहीं छोडना। कुछ महामूर्ख ज्ञानी मंदिर पूजन इत्यादि का विरोध करते हैं वह समझें।

वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, गुरूजन, माता-पिता आदि को वंदन अर्थात आदर देना। सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ जगत की सेवा करना।

सख्य: सखा भाव यानी कुछ न छिपाना। ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्मनिवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं। यही परम प्रेमा भक्ति है।

पत्रकार अजय शुक्ला: तुलसीदास महाराज ने क्या कहा? विस्तृत बताएं!

विपुल जी: जब शबरी को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं उसके आश्रम आए हैं तो वह एकदम भाव विभोर हो उठी और ऋषि मतंग के दिए आशीर्वाद को स्मरण करके गदगद हो गईं। वह दौड़कर अपने प्रभु श्रीराम के चरणों से लिपट गईं। इस भावनात्मक दृश्य को गोस्वामी तुलसीदास इस प्रकार रेखांकित करते हैं:

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेम मगर मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
अर्थात, कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाईयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। वह प्रेम में मग्न हो गईं। मुख से वचन तक नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्हें जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाईयों के चरण कमल धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।
यह विषय मर्यादा, शालीनता और व्यवहार का विवाद का न हो कर एक आंतरिक प्रेम अभिव्यक्त करने का प्रसंग है ।

शबरी के निवेदन करने पर प्रभु श्री राम शबरी को जो उपदेश देते हैं वह नवधा भक्ति कहलाता है। राम जी कहते हैं।
नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
पहली भक्ति है संतों का सत्संग।
दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥ अर्थात यदि कोई पापी भी किसी प्रकार की जाति में पैदा हुआ हो यदि वह प्रभु भक्ति पाना चाहता है प्रभु को समझना चाहता है। तो सबसे पहले वह क्या करे सत्संग में जाना आरम्भ करे। भले ही समय व्यतीत करने का जरिया हो पर जहां प्रभु चर्चा चल रही हो वहां जाये। यह बात संत तुलसी दास ने जातिप्रथा के विरूद्ध एक उदाहरण स्वरूप दिया है।

सूरदास ने भी जातिवाद पर प्रहार करते हुये कहा है।
काहू के कुल तन न विचारत।
अविगत की गति कहि नहि परत है,
व्याध अजामिल तारत।

गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥

मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों को भी प्रकाशित कर सकती है।
मैं भी हमेशा निवेदन करता हूं कि मित्रों ईश प्राप्ति का सबसे सुंदर सस्ता और टिकाऊ मार्ग है मंत्र जप। कुछ जतन मत करो बस सतत निरंतर अखंड जप करो यह जाप तुमको गुरू के साथ सब कुछ अपने आप सहज रूप में स्वत: प्रदान कर देगा। साक्षात्कार के बाद वेद उपनिषद गीता ज्ञान सब स्वत: मिल सकता है बस भटको मत अपना मंत्र जप और बढ़ा दो। जो बोलोगे वह गीता में लिखा होगा जो कहोगे वह वेद बता देगा।

छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥ यह आवश्यक है कि आप योग की अवस्था से नीचे न गिरें। अत: इन बातों का ध्यान दें।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।
सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना।

श्रीमद भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि स्थिर बुद्दि समत्व यानी सबको मुझमें देखो और सबमें मुझे । स्थितप्रज्ञ यानी मुझमें स्थिर हो। स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज कहते है। “ जिधर देखता हूं, जहां देखता हूं। मैं तेरा ही जलवा अयां देखता हूं। यह अवस्था की बात है। हमारे चाहने से नहीं प्राप्त होती है।

आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥
“जा पावे संतोष धन।
सब धन धूरि समान”।

मैं कहता हूं,
“मन संतोषी बन गया,
चिंता मिटी लकीर।
जिसको बनना है बनें,
राजा रंक फकीर”।।

नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना।

बाद में श्री राम ने कहा है
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥
इन नवों में से जिनके पास एक भी द्वार बुद्धि में होता है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो मुझे प्राप्त कर सकता है।

कितनी सरल तरीके से समझाया है चूंकि जगत में अनेकों प्रकार के मानव होते है जिनकी बुद्धि अलग हो कर्म अलग परन्तु भक्ति रस पान करना चाह्ता है वह किसी भी मानसिक अवस्था से इसको प्राप्त कर सकता है।

पत्रकार अजय शुक्ला: सर शबरी के विषय में कुछ प्रकाश डालें!

विपुल जी: शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था । श्रमणा भील समुदाय की “शबरी ” जाति से सम्बंधित थी । संभवतः इसी कारण श्रमणा को शबरी नाम दिया गया था । पौराणिक संदर्भों के अनुसार श्रमणा एक कुलीन ह्रदय की प्रभु राम की एक अनन्य भक्त थी लेकिन उसका विवाह एक दुराचारी और अत्याचारी व्यक्ति से हुआ था । प्रारम्भ में श्रमणा ने अपने पति के आचार-विचार बदलने की बहुत चेष्टा की , लेकिन उसके पति के पशु संस्कार इतने प्रबल थे की श्रमणा को उसमें सफलता नहीं मिली । कालांतर में अपने पति के कुसंस्कारों और अत्याचारों से तंग आकर श्रमणा ने ऋषि मातंग के आश्रम में शरण ली ।

आश्रम में श्रमणा श्रीराम का भजन और ऋषियों की सेवा-सुश्रुषा करती हुई अपना समय व्यतीत करने लगी । श्रीमद् भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि स्थिर बुद्धी समत्व यानी सबको मुझमें देखो और सबमें मुझे। सुख दुख में बुद्धि मोहित न हो। स्थिर बुद्धि बनो।

पत्रकार अजय शुक्ला: सर तुलसीदास कृत रामचरितमानस में और बाल्मीकि कृत रामायण में कुछ अंतर है?

विपुल जी: थोड़ा सा कथानक भिन्न है! तुलसी दास कृत रामचरित मानस में भगवान् श्रीराम जब परमभक्त शबरी के आश्रम में आते हैं तो भावमयी शबरीजी उनका स्वागत करती हैं, उनके श्रीचरणों को पखारती हैं, उन्हें आसन पर बैठाती हैं और उन्हें रसभरे कन्द-मूल-फल लाकर अर्पित करती हैं। भक्ति में लीन शबरी अपने जूठे बेर प्रभु को खिलाती हैं। प्रभु बार-बार उन फलों के स्वाद की सराहना करते हुए आनन्दपूर्वक उनका रसास्वादन करते हैं। इसके पश्चात् भगवान राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं।

जबकि महर्षि वाल्मिकी कृत रामायण के अनुसार स्थूलशिरा नामक महर्षि के अभिशाप से राक्षस बने कबन्ध को श्रीराम ने उसका वध करके मुक्ति दी और उससे सीता की खोज में मार्गदर्शन करने का अनुरोध किया। तब कबन्ध ने श्रीराम को मतंग ऋषि के आश्रम का रास्ता बताया और राक्षस योनि से मुक्त होकर गन्धर्व रूप में परमधाम पधार गया।तुलसी दास कृत रामचरित मानस में भगवान् श्रीराम जब परम भक्त शबरी के आश्रम में आते हैं तो भावमयी शबरीजी उनका स्वागत करती हैं, उनके श्रीचरणों को पखारती हैं, उन्हें आसन पर बैठाती हैं और उन्हें रसभरे कन्द-मूल-फल लाकर अर्पित करती हैं। भक्ति में लीन शबरी अपने जूठे बेर प्रभु को खिलाती हैं। प्रभु बार-बार उन फलों के स्वाद की सराहना करते हुए आनन्दपूर्वक उनका रसास्वादन करते हैं। इसके पश्चात् भगवान राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं।

शबरी प्रसंग से यह पता चलता है की प्रभु सदैव भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं ।

पत्रकार अजय शुक्ला: जी बहुत-बहुत धन्यवाद आपकी सेवा में फिर से हाजिर रहूंगा लेकिन आप कोई विशेष संदेश देना चाहते हैं?

विपुल जी: आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सनातन ज्ञान को जनमानस तक पहुंचाने के लिए आप माध्यम बने हैं।

लेकिन एक बात कहना चाहता हूं कलयुग में मंत्र जाप से श्रेष्ठ कुछ नहीं है क्योंकि यह सबसे अधिक सहज और सरल होता है जबकि अन्य मार्ग में विभिन्न प्रकार की सामग्री अथवा साधन की आवश्यकता होती है नहीं तो कम से कम एकांत चाहिए लेकिन मंत्र जाप आप कभी भी कहीं भी किसी भी स्थिति में कर सकते हैं।

दूसरी बात आप मंत्र जाप करना एक आदत बनाइए। माला गिनना मुझे तो किसी बनियागिरी की दुकान की तरह महसूस होता है कि प्रभु की भक्ति में गिनना क्या?

तीसरी बात यदि आप सचल मन सरल वैज्ञानिक ज्ञान विधि करते हैं तो आपको सनातन की शक्ति का अनुभव होता है जिस कारण आपकी आस्था और अधिक बढ़ जाती है। जो कि आपके मंत्र जाप में सहायक होती है।