अनुभवहीन अज्ञानी ही वेदों में सिर्फ निराकार की बात करता है। वेदों में मिलता है ईश का साकार रूप! सनातनपुत्र देवीदास विपुल का साक्षात्कार

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aryatv.com के पिछले कई अंकों में भारतीय सनातन ज्ञान के विषय में समझने के लिए सनातन प्रचारक स्कॉलर और चिंतक विपुल लखनवी जी के कई साक्षात्कार प्रकाशित हुए हैं। पूर्व परमाणु वैज्ञानिक कवि लेखक और संपादक विपुल जी के द्वारा जटिल से जटिल प्रश्नों के उत्तरों को बड़ी सहजता से संकलित करने का प्रयास किया गया। आर्य टीवी को बड़ी प्रसन्नता है कि इस संबंध में लोगों के प्रश्न निरंतर प्राप्त होते रहते हैं और बड़ी जिज्ञासा से लोग आने वाले साक्षात्कार की प्रतीक्षा करते हैं। सभी पाठकों को धन्यवाद देते हुए पत्रकार
डॉक्टर अजय शुक्ला को जो प्रश्न प्राप्त हुए वह एक बार पुनः विपुल जी के पास उत्तर के लिए पहुंच गए।
प्रस्तुत है साक्षात्कार के कुछ पाठकों के प्रश्नों के उत्तर।

पत्रकार अजय शुक्ला: आपका बहुत-बहुत आभार मुझे निरंतर अनेकों के फोन आ रहे हैं और आपकी सनातन प्रचार की इच्छा धीरे-धीरे फलित हो रही है? कुछ अन्य प्रश्न पूछना चाहता हूं।

विपुल जी: प्रभु सदा देश की समाज की सेवा करने वाले, सनातन की सेवा करनेवाले का सहयोग करते हैं। हरि अनंत हरि कथा अनंता। आप पूछें।

पत्रकार अजय शुक्ला: सर बहुतों को यह नहीं पता है की वेद, उपनिषद, शास्त्र दर्शन, गीता इत्यादि में क्या संबंध है।

विपुल जी: देखिए मैं वैज्ञानिकता और व्यावहारिकता की बात करता हूं। वेदों का निर्माण श्रुति कहलाता है। सनातन के मार्ग पर चलने वालों के अनुभव उनकी आराधनाओं का संकलन वेदों के रूप में परणित हुआ। हालांकि गायत्री को वेद माता कहते हैं हो सकता है गायत्री मंत्र का जाप करने से उन ऋषियों को ज्ञान प्राप्त हुआ हो।

वेदों का निर्माण इसलिए हुआ है कि हम जान सके हम क्या है? ब्रह्म क्या है? और हम अपने जीवन में यह अनुभव कर सके कि हम ही ब्रह्म का रूप हैं। इन अनुभवों को यह क्या अनुभव देते हैं उनको वेद महावाक्यों में समझाया गया है।

वेदों को सही और सटीक मानकर जो शोध ग्रंथ लिखे गए उनको हम उपनिषद बोलते हैं। मैं समझता हूं यह हजारों की संख्या में हो सकते हैं। लेकिन फिलहाल हमको तेरह ही नाम पता है। उनमें से अधिकतर मूल प्रतियां विदेशों में पड़ी हुई हैं। वैसे उपनिषद सनातन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ है। शंकराचार्य के अनुसार उपनिषद् का मुख्य अर्थ ब्रह्मविद्या है और गौण अर्थ ब्रह्मविद्या के प्रतिपादक ग्रन्थ होता है।

जब वेदों के साथ तर्क किया गया और उसको किसी निर्मेय प्रमेय की भांति सिद्ध किया गया तो वह कहलाए षट दर्शन। षड्दर्शन (छः दर्शन) अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि और बद्रायण थे।

मीमांसा को दो ऋषियों ने लिखा उत्तरी मीमांसा में बद्रायण ने तर्कों के साथ अन्य ऋषियों के तर्कों के आधार पर किसी वकील की भांति प्रश्न और उत्तर किए हैं जिनको कि हम ब्रह्म सूत्र कहते हैं।

यदि हम वेदों को चौबारा माने तो हम यह कह सकते हैं उपनिषद उसमें चरने वाली गाय है। उन गाय का दूध श्रीमद् भागवत गीता है। श्रीमद्भगवत गीता की सबसे सुंदर व्याख्या रामचरितमानस है। यूं तो गीता अनेकों है लेकिन सबसे अधिक प्रसिद्ध भगवान श्री कृष्ण का संवाद है। कुछ यूं भी कह सकते हैं कि जो गाय का पुर्लिंग है वह षट्दर्शन है। जो बछड़े है वह सनातन के अनेक साहित्य है।

पत्रकार अजय शुक्ला: लोग यह कहते हैं वेदों में सिर्फ निराकार दिया हुआ है।

विपुल जी: ब्रह्म का प्रथम और अंतिम स्वरूप निराकार ही है। लेकिन जो वेदों में केवल निराकार की बात करते हैं मतलब वह वेदों की बात को ही नहीं मानते या केवल रट्टू तोता की तरह रट लिया लेकिन ज्ञान न होने की वजह से सिर्फ निराकार दिख गया। एक होती है जानकारी जो कि वर्तमान में गूगल गुरु के पास ही है। दूसरा होता है ज्ञान और प्रज्ञा जिसके कारण हम तमाम बातों की मीमांसा कर सकते हैं और उनके वास्तविक अर्थ समझ सकते हैं।

मानव चार प्रकार के होते हैं पहले भौतिकतावादी दूसरे अध्यात्मवादी तीसरे आस्तिकतावादी और चौथे नास्तिकतावादी। भौतिकतावादी सिर्फ भौतिक जगत के विषय में सोचता है जानता है और जानने का प्रयास करता है। अध्यात्मवादी हम क्या है हम अंदर क्या है इस विषय में जानता है प्रयास करता है और कोशिश करता है। आस्तिकतावादी सिर्फ सुनी सुनाई बातों के कारण आस्था करने लगता है। वही नास्तिक आंतरिक ज्ञान को कुछ मानता ही नहीं। अधिकतर हिंदू आस्तिकतावादी और भौतिकतावादी होते हैं।
यदि कोई मनुष्य यह कहता है वेदों में सिर्फ निराकार है यानी वह पहले वेद महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि को नहीं मानता। भाई अपने अनुभव किया मैं ही ब्रह्म हूं तो ब्रह्म निराकार कहां रह गया।

पत्रकार अजय शुक्ला: कुछ अन्य उदाहरण से स्पष्ट समझाइए।

विपुल जी: मैं उन्हें गलत नहीं कहता जो निराकार ब्रह्म को मानते हैं, अनाम ब्रह्म के उपासक हैं परंतु जो साकार को भी न मानें मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा मूढ़ वही है।

ऐसे कई मंत्र मिले हैं जो सिद्ध करें कि ब्रह्म साकार रूप में भी विद्यमान है,

भगवान शिव, जिसे वैदिक नहीं मानते।
शुक्ल यजुर्वेदोक्त श्लोक जिसमें देवता इंद्र का भी वर्णन है,

“उग्रँ लोहि तेन मित्रगूँ सौव्रत्येन रुद्रं दौव्रत्येनेन्द्रं प्रकीडेनमरुतो बलेनसाद्ध्यान्प्रमुदा। भवस्य कण्ठ्यगूँ रुद्रस्यान्त: पाश्व्य महादेवस्य यक्रच्छर्वस्यवनिष्ठ: पशुपते: पुरीतत्।।”
उक्त श्लोक रुद्राष्टाध्यायी सप्तमोध्याय के तृतीय मंत्र के रूप में वर्णित है, अर्थ…
“अपने रक्त को स्वस्थ रखने हेतु उग्रदेव को, सदाचार रूप सुंदर व्रत से मित्रदेव को, दुर्धर्ष व्रत से रुद्र एवं क्रीडा विशेष द्वारा इंद्र को सामर्थ्यविशेष द्वारा मरुतो को, हृदय की प्रसन्नता द्वारा साध्यों को प्रसन्न करता हूँ। अपने कंठस्थित मांस में शिव को, पार्श्व भाग के मांस में रुद्र को एवं यकृत के मांस में महादेव को, स्थूलान्त्र द्वारा शर्व को और हृदयाच्छादित नाड़ी की झिल्लियों से पशुपति को प्रसन्न करता हूँ।”

वहीं
“यज्जागृतो दूरमुदैति दैवं तदुसप्तस्य तथैवैति। दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु।।”

उक्त संकल्पमंत्र में भी शिव के संबंध में वर्णित है जाकर यजुर्वेद देखें।
“ओउ्म् गणानांत्वा त्वा गणपतिगूँ हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिगूँ हवामहे निधीनां त्वा निधिपति गूँ हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्।।”

उक्त श्लोक यजुर्वेद 23|19 है, यहाँ भगवान गणेश वर्णित हैं।

जब वेदों में ही साकार रूप की उपासना हैं तो फिर मूर्ति पूजा का विरोध क्यों?
आईये ऋग्वेद की ऋचाओ पर ध्यान देते हैं।

प्रथम मंडल के सूक्त संख्या 19 में एक मन्त्र को देखे।
“ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः। मरुद्भिरग्न आ गहि।।
“जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठबल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें।”
इस मन्त्र में तो अग्नि देव को भी रूप वाले कहा हैं। अर्थात वेद साकार की उपासना करने को कह रहे हैं।

प्रथम मंडल के सूक्त 22 में लगातार इन 6 मंत्र हैरान करने वाले हैं।
“अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः।।”
“जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामो से देवतागण हमारी रक्षा करें।”

“इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूळ्हमस्य पांगूँसुरे स्वाहा।।”
“यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है,तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण है। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश मे निहित है।”
“त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्।।

“विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनो लोको मे यज्ञादि कर्मो को पोषित करते हुये तीन चरणोसे जग मे व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओ (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वाराविश्व का संचालन करते है।”
“विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा।।”
“हे याजको! सर्वव्यापक भगवान विष्णु के सृष्टि संचालन संबंधी कार्यो(सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमे अनेकोनेक व्रतो(नियमो,अनुशासनो) का दर्शनकिया जा सकता है। इन्द्र(आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे।(ईश्वरीय अनुशासनो का पालन करें)।”

“तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।।”
“जिस प्रकार सामान्य नेत्रो से आकाश मे स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओ से विष्णुदेव(देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं।”

“तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत्परमं पदम्।।
“जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णूदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं,अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है।”

प्रथम मंडल के सूक्त 24 के इस मन्त्र को देखे। “शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान्।।”
“तीन स्तम्भो मे बधें हुये शुनःशेप ने अदिति पुत्र वरुणदेव का आवाह्न करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशो को काटकर हमे मुक्त करें।” यहाँ पर तो साफ शब्दों में वरुण देव को अदिति पुत्र कहा गया हैं। अर्थात वरुण देव साकार है। यानि यहाँ पर भी साकार की स्तुति हैं।

प्रथम मंडल के 25वें सूत्र में
“बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे।।
“सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हस्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते है। शुभ्र प्रकाश किरणे उनके चारो ओर विस्तीर्ण होती है।”
तो यहाँ पर भी साफ सुथरे शब्दों में वरुण के साकार रूप की स्तुति हैं। फिर मूर्ति पूजा का क्यों विरोध करते हैं ?

25 वें सूक्त में तो वेदों ने यहाँ तक कह रहे है की वरुण देव दर्शनीय है हमने उनको देखा है।
“दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मेगिरः।।”
“दर्शनिय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं।”
जो साकार होता है वही दर्शनीय होता हैं। ये सब तो वैदिक लोग जानते ही होंगे। तो यहाँ पर भी साकार देव की ही स्तुति! तो मूर्ति पूजा का विरोध क्यों?

ऋग्वेद के तो प्रथम मण्डल में ही अग्निदेव आदि की स्तुति है।
“अग्निनां रयिमश्र्नवत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।।”
“ये अग्निदेव मनुष्यों को विवर्धमान धन धन्य यश से संपूर्ण करने वाले हैं।”
“वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता:। तेषां पाहि श्रुधीहवम्।।”
“हे वायुदेव! हमारी प्रार्थना सुनकर यज्ञस्थल में आवें। आपके निमित्त प्रस्तुत सोमरस का पान करें।”
(अगर ईश्वर निराकार है तो सोमरस का पान कैसे करे?)

“अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम्।।”
“हे महाबाहो अश्विनीकुमारों! हमारे द्वारा समर्पित हविष्यान्न से आप भलीभाँति संतुष्ट हों।”
“उप न: सवनागहि सोमस्यसोमपा: पिब। गोदा इंद्रेवतो मद:।।”
“हे सोमरस पान करने वाले इंद्रदेव! आप सोमरस पान कर यजकों को यश तथा गौएँ प्रदान करें।”

अब समर्थक कहेंगे कि “इंद्र अर्थात् प्रकाशक (ईश्वर)। इसमें प्रश्न उठता है कि क्या ईश्वर सोमरस पान करते हैं? हाँ तो कैसे? बिना मुख के? मुख है तो निराकार कैसे?

ऐसे ही कई सूक्त हैं।
ऋग्वेद में देवी भगवती स्वयं ब्रह्मद्वेषियो के वध के लिए हाथ में रूद्र का धनुष ग्रहण करती हैं।
“अहं रुद्राय धनुरा तनोमि। ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।।” (10|7)
“ब्राह्मणोस्यमुखमासीद् बाहूँ राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ गूँ शूद्रो अजायत।।” (पुरुषसुक्त)
“उनके मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उरू से वैश्य तथा पाद से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। तो जिनके अंग हों उनका देह कैसे नहीं??”
“मैं ही ब्रह्मद्वेषियो का वध करने के लिए रूद्र का धनुष तानती हूँ।”
इसका तात्पर्य यह है कि देवी का स्वरूप भी है हाथ भी है तभी हाथ में शिव का धनुष धारण करेगी।

इस पोस्ट को देखकर स्वयं को वैदिक बताने वालों की बुद्धि की दुकान बंद हो जाएगी। इनकी बुद्धि इसी प्रकार है जैसे मरीज को डाक्टर से दवाई लिखवाकर परचा दे दीजिये। मरीज पर्चा को ही दवाई समझ लिया और उसी पर्चे को खा जाय।
ये वेद के मंत्रो का अर्थ नहीं जानते है। वेद की किताब को ही विद्या समझ कर खा गए हैं, डकार ले रहे हैं।

अब ये बोलेंगे कि हम पुराण को नहीं मानते… ये लो.. “ऋच: सामानि च्छंदांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाञ्जज्ञिरे दिवि देवा दिविश्रित:।।”
(अथ. 11|9)
इस श्लोक में वैदिक मुनियों नें कहा कि पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।
“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपर्बंहयेत्” (बृहदारण्यकोपनिषद्)
अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराणों द्वारा ही करना चाहिये।

पत्रकार अजय शुक्ला: सर अगली बार फिर नए प्रश्न लेकर हाजिर होगा आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। लेकिन आप अंत में क्या कहेंगे?

विपुल जी: आपका भी बहुत-बहुत आभार और आपके पाठकों को साधुवाद।

अंत में एक विनती “हे भारतवंशी हिंदूओं, तुम एक हो, अन्यथा आपस में लड़ते लड़ते तुम्हारा अस्तित्व ही न मिट जाये। तुम क्यों ऊंच नीच जाति में दर्शनों में बंटे हो। एक हो ताकि अनेकों आतताईयों का सामना कर सको। तुम चाहे किसी भी भारतीय धर्म के हो। चाहे बुद्ध हो, जैन हो, सिक्ख हो, मुस्लिम या ईसाई हो तुम्हारे पूर्वज इस भूभाग के हिंदू ही थे। इस सत्य से तुम मुंह नहीं फेर सकते। इस लिये हे शूरवीर संतानों जागो जागो। देश की भारतीय धर्म की रक्षा करो। “उत्तिष्ठ: अर्जुन:” चरैवति चरैवति। धर्म रक्ष:। सत्य वद्। तुम्हे नमन, कोटिश: नमन्।