नीतीश की चौथी पारी

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(www.arya-tv.com) बिहार विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद नीतीश कुमार की अगुआई में चौथी बार एनडीए सरकार बन गई है। जेडीयू की सीटें कम होने के बावजूद एनडीए ने वादे के मुताबिक नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाया। मंगलवार को नवनियुक्त मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा भी हो गया। बावजूद इन सबके, जीते हुए गठबंधन का मौजूदा समीकरण स्थायित्व का आभास नहीं दे रहा। प्रदेश बीजेपी के सबसे बड़े नेता और नीतीश के साथ गठबंधन के सबसे प्रबल पैरोकार सुशील कुमार मोदी को न तो पार्टी ने विधायक दल का नेता बनाया, न ही उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया गया।

राज्य में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन की सरकार बिना किसी अंदरूनी विवाद के सहजतापूर्वक तीन कार्यकाल पूरे कर सकी तो उसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका नीतीश कुमार और सुशील मोदी के बीच की पर्सनल केमिस्ट्री की ही थी। इस बार अगर बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व ने इस जोड़ी को तोडऩे की पहल अपनी तरफ से की है तो इसका मतलब यही हो सकता है कि उसकी नजर नीतीश के बाद वाले दौर पर है।

वैसे भी बिहार की राजनीति संक्रमण के दौर में ही नजर आ रही है। चुनाव प्रचार के दौरान विपक्षी गठबंधन के नेता तेजस्वी का पूरा जोर नीतीश कुमार को एक थका हुआ नेता बताने पर रहा। खुद नीतीश ने भी एक चुनावी सभा में बोल ही दिया कि यह उनका आखिरी चुनाव है। उम्र के सात दशक वे पूरे कर चुके हैं।

दूसरी तरफ आरजेडी में लालू प्रसाद दूसरी वजहों से सक्रिय चुनावी राजनीति से दूर हो गए हैं। उनकी गैरमौजूदगी में तेजस्वी ने मोर्चा संभाल लिया है। एलजेपी नेता रामविलास पासवान के चुनावों से ऐन पहले हुए निधन के बाद उनकी पार्टी की कमान बेटे चिराग पासवान के हाथ में जा चुकी है। उस पीढ़ी के चौथे प्रमुख नेता सुशील कुमार मोदी को उनकी पार्टी ने ही किनारे लगा दिया है।

इस तरह बिहारी राजनीति की एक पीढ़ी विदा होने की राह पर है। यह देखना दिलचस्प है कि राजनीतिक अस्थिरता के लिए प्रसिद्ध जिस बिहार में पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के बाद किसी भी मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया था, वहीं 1990 के दशक में लालू और नीतीश के रूप में दो ऐसे नेता उभरे जो बारी-बारी 15-15 साल राज्य की सत्ता का सूत्र अपने हाथों में थामे रहे।

बावजूद इसके, लालू पर आरोप लगा कि अपने वर्चस्व वाले 15 वर्षों में उन्होंने बिहार के विकास की ज्यादा परवाह नहीं की और अब नीतीश पर भी वही आरोप लग रहा है कि राज्य को औद्योगिक विकास के रास्ते पर ले जाने की इच्छाशक्ति उनमें नहीं है। उनके नेतृत्व वाली इस नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह साबित करने की है कि यह केवल एक स्टॉप-गैप अरेंजमेंट भर नहीं है। खासकर रोजगार के मोर्चे पर इसको जरूर कुछ ऐसा कर जाना चाहिए कि नई पीढ़ी इस सरकार और इसके नेता को इज्जत से याद करे।