आर्टिकल 370 का दम तो निकल ही चुका था, अब अंतिम संस्कार भी हो गया! 10 पॉइंट्स में समझिए सुप्रीम फैसले के मायने

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(www.arya-tv.com) भारत के संविधान और अनुच्छेद 370 के रिश्‍ते का पटाक्षेप कुछ यूं ही होना था। तमाम मोड़ से गुजरते हुए एक लंबी कहानी सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर खत्म हुई। वैसे तो आर्टिकल 370 की मौत 5-6 अगस्‍त, 2019 को ही हो चुकी थी, जब संसद ने जम्‍मू और कश्‍मीर का विशेष दर्जा निरस्‍त किया था।

बस अंतिम संस्कार बचा था, जो सोमवार को पूरा हो गया। हमारे सहयोगी ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के लिए अपने लेख में अर्घ्य सेनगुप्ता कुछ इसी अंदाज में अनुच्‍छेद 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बयान करते हैं। वह विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में रिसर्च डायरेक्टर हैं।

TOI के लिए अपने लेख में अर्घ्य सेनगुप्ता ने पूरे मामले के कई पहलुओं को छूते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि आर्टिकल 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के क्‍या मायने होंगे। पढ़िए और समझ‍िए।

आर्टिकल 370 पर सुप्रीम फैसले के मायने

चूंकि संसद पहले ही जम्‍मू और कश्‍मीर राज्‍य को भंग विघटित कर चुकी थी, यह काफी हद तक अंतिम संस्कार की तरह था। सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही में कुछ समय लगा। हालांकि, आखिर में इसमें दोबारा से जान नहीं फूंकी गई। समय को पीछे नहीं किया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने वही किया जो ज्यादातर लोगों को उम्मीद थी कि अनुच्छेद 370 के मृत्युदंड की घंटी बजने के चार साल बाद – इसे औपचारिक तरीके से दफना दिया जाए।कानूनी रूप से, अनुच्छेद 370 को निरस्त बड़ी चतुराई से किया गया था। यह प्रावधान अपने आप में एक चक्रव्यूह मालूम पड़ता था।

इसे संशोधित करने या समाप्त करने के लिए जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश की जरूरत थी, जिसका अस्तित्व साढ़े छह दशक पहले ही खत्म हो चुका था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अलग तरह से देखा।

बहुमत के फैसले में कहा गया है कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की शक्ति पूरी तरह से राष्ट्रपति के पास है और इसे संविधान सभा की सिफारिश के बिना भी प्रयोग किया जा सकता है। सरकार ने चक्रव्यूह से बाहर निकलने का एक रास्ता खोज लिया, जो देवताओं की मदद के बावजूद अभिमन्यु भी नहीं कर सके थे।

ऐतिहासिक फैसला देने वाले ‘पंच परमेश्वर’

  • इस फैसले ने अनुच्छेद 370 की मूल संरचना को पूरी तरह से बदल दिया है। इस अनुच्छेद के अनुसार, स्वतंत्र भारत की हर सरकार का मानना था कि जम्मू-कश्मीर और भारत के बीच भविष्य के संबंध, कम से कम औपचारिक रूप से, जम्मू-कश्मीर के लोगों और बाकी भारत के लोगों के बीच आपसी सहमति से निर्धारित होंगे।
  • यह भारत सरकार द्वारा 27 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरि सिंह द्वारा दिए गए ‘एक्सेशन ऑफ इंस्ट्रूमेंट’ को स्वीकार करने के वादे को पूरा करने का एक प्रयास था, जिसमें उसने महाराजा को आश्वासन दिया था कि राज्य का भविष्य ‘जनमत’ के आधार पर तय किया जाएगा।
  • लेकिन अब जम्मू-कश्मीर के लोगों को इस प्रक्रिया में अपनी आवाज उठाने का मौका दिए बिना ही अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया गया है। चार साल बीत जाने के बाद, यह समझा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट भारत सरकार को कोई अलग प्रक्रिया अपनाने के लिए बाध्य नहीं करना चाहता था।
  • हालांकि, यह कहना कि केवल राष्ट्रपति ही अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय कर सकते हैं, उस पवित्र वादे से मुकर जाना है। यह अनुच्छेद 370 के ताबूत में आखिरी कील ठोकने जैसा लगता है।

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  • शायद यह कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 370 भले ही कुछ मायनों में एक असाधारण प्रावधान था, जिसकी व्याख्या के लिए अलग योजना की जरूरत थी। लेकिन अनुच्छेद 356 के तहत, राष्ट्रपति शासन के दौरान क्या किया जा सकता है या क्या नहीं, यह एक ऐसा सवाल है जो केवल जम्मू-कश्मीर तक सीमित नहीं है। यह एक संवैधानिक सवाल है जिसका भारतीय संघवाद के भविष्य पर बड़ा असर पड़ता है। भारतीय संविधान, संसद को एक राज्य की सीमाओं को फिर से तय करने या एक नया राज्य बनाने का अधिकार देता है, लेकिन केवल प्रभावित राज्य विधानमंडल की राय जानने के बाद।
  • जरा सोचिए, अगर कोई राज्य जैसे पश्चिम बंगाल, राष्ट्रपति शासन के अधीन है। क्या संसद अब राज्य विधानसभा की गैरमौजूदगी में पश्चिम बंगाल की सीमा को फिर से तय कर सकती है और गोरखालैंड बना सकती है? यह राजनीतिक रूप से दूर की कौड़ी लग सकता है, सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस संभावना को खत्म नहीं करता है, खासकर तब जब उसने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में पुनर्गठन को कानूनी रूप से स्वीकार किया है।
  • इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को दोष देना एक पेड़ को न देखकर उसके पत्तों को देखने जैसा होगा। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना सही है कि संविधान, खासतौर से अनुच्छेद 356 खुद राष्ट्रपति को राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने के लिए व्यापक अधिकार देता है। शायद आज, संविधान लागू होने के लगभग 75 साल बाद, यह पूछना ठीक है कि क्या संविधान की यह केंद्रीकृत योजना वास्तव में एकता को बढ़ावा देती है या अब इसका मुख्य विरोधाभास है।
  • अगर राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की चिंता पर ध्यान दिया जाता तो न तो इस फैसले की जरूरत होती और न ही अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की। 6 सितंबर, 1952 को प्रसाद ने कहा कि अनुच्छेद 370(3) के तहत अनुच्छेद को संशोधित या समाप्त करने की शक्ति का बार-बार उपयोग नहीं किया जा सकता है – जब जम्मू-कश्मीर संविधान सभा ने अपना काम पूरा कर लिया है, तो उसे भारत के साथ अपने संबंधों की प्रकृति पर सिफारिश करनी चाहिए और अनुच्छेद का अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिए। नेहरू और शेख अब्दुल्ला दोनों की राय अलग थी और अनुच्छेद 370 वह चैनल बन गया जिसके माध्यम से भारतीय संविधान जम्मू-कश्मीर पर लागू हुआ।
  • राष्ट्रपति, अपने पद की मर्यादा को बनाए रखते हुए, निर्वाचित नेताओं के सामने झुक गए और राज्य का विशेष दर्जा अनजाने में सेमी-परमानेंट हो गया। अनुच्छेद 370 को 26 जनवरी, 1957 को ही खत्‍म हो जाना चाहिए था।