क्या भारतीय किसानों की मांगों को पूरा कर पायेगी सरकार?

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Arya TV (Deepti)

अपनी मांगों को लेकर दिल्ली की ओर निकले किसानों को दिल्ली-उत्तर प्रदेश की सीमा पर ही रोक दिया गया.

पुलिस ने किसानों को पीछे हटाने के लिए पानी की बौछार, रबर की गोलियों और आंसू गैस के गोले इस्तेमाल किए.

ये किसान कर्ज़ और बिजली बिल की माफ़ी और स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें मानने समेत कई मांगों को लेकर भारतीय किसान यूनियन के बैनर को लेकर अलग-अलग राज्यों से दिल्ली के लिए जा रहे थे.

 इस रैली में भारतीय किसान यूनियन का मार्च था कि जिसके दरवाज़े हर दल के नेता जाते हैं और जिसके कारण किसान का राजनीति या राजनीतिक इस्तेमाल होता रहा है लेकिन इसी आधार पर इनकी मांगों को खारिज नहीं किया जा सकता है.

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आप जानते हैं सांसद और विधायक को पेंशन मिलती है. किसान  भी चाहते हैं कि उन्हें भी 5000 रुपया पेंशन मिले. सरकार को सोचना चाहिए कि फसल बीमा का प्रीमियम देने में प्राइवेट बीमा कंपनियों का रिकार्ड क्या हैं .

क्यों किसान इतनी जल्दी प्राइवेट बीमा कंपनियों से परेशान होने लगे हैं. इसीलिए उनकी एक मुख्य मांग यह भी थी कि फसल बीमा का पैसा सरकार दे, प्राइवेट कंपनी न दे. पुराना ट्रैक्टर इस्तेमाल करने दिया जाए, गन्ना किसानों का लोन माफ कर दिया जाए, आत्महत्या करने वाले किसानों को मुआवज़ा मिले और डीज़ल के दाम कम किए जाएं.

इसी आधार पर जानते है कि किसानों की परेशानी क्या हैं ?

गन्ना किसानों की नाराज़गी

प्रदर्शन में शामिल ज़्यादातर किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा से थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने के किसान इस समय काफी  ग़ुस्से में हैं. ये ग़ुस्सा इसलिए है क्योंकि उनकी फसल का भुगतान लटका हुआ है. इसे लेकर वे काफ़ी परेशान हैं.

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ये बात सही है कि किसान पिछले तीन सालों में दाम गिरने की वजह से दिक्कतों का सामना कर रहे हैं.

हालांकि गन्ने के किसानों को दाम गिरने से फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उनका दाम फ़िक्स है. लेकिन उन्हें पैसे मिलने में देरी हो रही है.

सरकार द्वारा किये गए कार्य

इस वक्त सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि किसानों को अपने उत्पाद का मुनासिब दाम नहीं मिल पा रहा है.

लेकिन कुछ राज्यों में गन्ने की फसल को चीनी की मिलें ख़रीद लेती हैं जबकि गेहूं और धान को सरकार ख़रीदती है.

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पिछले दो साल में केंद्र और राज्य सरकारों ने अच्छा काम किया है. सरकार ने क़रीब चार से पांच मिलियन टन दालें ख़रीदी हैं.

लेकिन उसके आगे ख़रीद ना होने की वजह से और वैश्विक दाम बहुत कम होने की वजह से हमारे निर्यात पर बुरा असर पड़ा है. इसकी वजह से हमारे देश के अंदर भी दाम गिरे हैं.

इस दबाव में सरकार ने 2018-19 की खरीफ़ के लिए एमएसपी में काफ़ी इज़ाफा किया है.

मिसाल के तौर पर कॉटन का एमएसपी पिछले साल 4,520 रुपये था. इस साल इसे बढ़ाकर 5450 रुपये कर दिया गया.

मीडियम कॉटन 4000 से बढ़कर करीब 5100 रुपये हो गया. मूंग के एमएसपी में भी काफ़ी बढ़ोतरी की गई.

सोयाबीन, कॉटन और दालों के किसानों की ज़मीन सिंचित नहीं होती है. ये लोग वर्षा आधारित कृषि करते हैं.

ये फसलें अभी आना शुरू हुई हैं, लेकिन एमएसपी की वजह से दाम इतने बढ़ गए हैं कि पता नहीं इन्हें ख़रीदा जाएगा या नहीं.

स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें

किसानों के हर प्रदर्शन में स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की मांग ज़रूर होती है. हर बार सरकार की ओर से आश्वासन भी दिए जाते हैं. लेकिन ये सिफ़ारिशें लागू नहीं हो पातीं. सवाल उठता है कि क्या इसमें कोई व्यावहारिक मुश्किलें आती हैं?

किसान नेता, विपक्षी पार्टियां और सरकार, सभी अच्छी तरह जानते हैं कि स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें लागू करना ना तो मुनासिब है और ना ही संभव. क्योंकि किसी भी चीज़ की कीमत को आप उसकी डिमांड से एकदम अलग नहीं कर सकते.

इस साल सरकार पहले से ही एमएसपी में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी कर चुकी है. ये कीमत बाज़ार में मिलना मुश्किल है.