विपुल जी से कौतूहल प्रश्न क्यों आ जाते हैं देवता मनुष्य पर ? डॉ. अजय शुक्ला, पत्रकार

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  • विपुल जी से कौतूहल प्रश्न क्यों आ जाते हैं देवता मनुष्य पर ? डॉ. अजय शुक्ला, पत्रकार

aryatv.com के माध्यम से पूर्व परमाणु वैज्ञानिक गर्वित ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष सनातन चिंतन और विचारक, अपने ब्लॉग और चैनल के माध्यम से हजारों लोगों की सनातन संबंधी जिज्ञासाओं को शांत करनेवाले, अपनी ज्ञान की सरलतम वैज्ञानिक विधि के द्वारा हजारों को सनातन की शक्ति का घर बैठे अनुभव करवानेवाले विपुल सेन लखनवी जी के लगभग 21 साक्षात्कार छप चुके हैं। हर तरीके से यह प्रयास किया गया की विपुल जी सनातन की जिज्ञासाओं के ऊपर प्रश्नों में कहीं पर अटक जाए। लेकिन बड़ी बेबाकी से तात्कालिक उत्तर मिलना भी एक अचरज करने वाला बड़ा अनुभव प्राप्त हुआ।

aryatv.com के पाठकों ने साक्षात्कार की भूरी भूरी प्रशंसा की जिसके लिए हम आभारी है लेकिन कुछ पाठकों ने विपुल जी से प्रश्न उठाए। उन्हीं प्रश्नों को जो सनातन से संबंधित हैं उनको पूछा गया। उन्ही आधार पर एक साक्षात्कार बनाया गया जो प्रस्तुत है।

डॉ अजय शुक्ला: प्रणाम सर। कुछ और चटपटे कौतूहल प्रश्न मैं लेकर आया हूं।

देवीदास विपुल: वाह भई वाह अजय जी नमस्कार। आपके पाठकों के कौतूहल पूर्वक प्रश्नों का स्वागत है। जय गुरुदेव जय महाकाली।

डॉ अजय शुक्ला: जी धन्यवाद। देवता की क्या परिभाषा है?

देवीदास विपुल: देवता का निर्माण दिव् धातु से हुआ है जिसका अर्थ होता है देने वाला। मतलब वह शक्ति ऊर्जा का रूप जो आपको एक निश्चित आयाम की वस्तुएं प्रदान करता रहता है। मोटे तौर पर सनातन में 33 प्रकार के या 33 कोठी के देवता वर्णित किए जाते हैं। इनके अतिरिक्त यदि आप कभी मार्कंडेय पुराण में देवी की आराधना का कवच पढ़ें तो आप देखेंगे इन देवताओं को भी और अधिक शक्तियों के विभिन्न रूप में बांटकर प्रार्थना की गई है।

डॉ अजय शुक्ला: यह 33 प्रकार के देवता क्या है?

देवीदास विपुल: इस सृष्टि को चलाने के लिए 12 प्रकार के देवता जो निर्माण करते हैं वह वास्तव में विष्णु कहलाते हैं। और 11 प्रकार के देवता नष्ट करने का काम करते हैं। जो रूद्र कहलाते हैं। आठ प्रकार के देवता सृष्टि को चलाने में सहायक होते हैं जो वासुदेव कहलाते हैं। दो प्रकार के देवता सृष्टि के स्वास्थ्य को देखते हैं जो अश्वनी कुमार कहलाते हैं। आप देखिए सृष्टि के निर्माण के लिए विनाश आवश्यक है इसलिए विनाश के देवता एक कम होते हैं यानी सृष्टि का निर्माण सतत होता रहे। उनके नाम आप नेट पर ढूंढ सकते हैं वर्तमान में गूगल से बड़ा कोई भी भौतिक गुरु नहीं है यानी जानकारी देने वाला।

डॉ अजय शुक्ला: देवता क्या ईश्वर से वह भिन्न हैं। देवता जड़ हैं या चेतन।

देवीदास विपुल: सनातन में सूक्ष्म रूप में अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर उसमें उपस्थित शक्ति को बहुत ही गहन अध्ययन कर बांटा गया है। आपने देखा होगा कि लोग भोग लगाते हैं वास्तव में हम वस्तु का भोग नहीं लगते हैं हम अपने भाव का भोग लगाते हैं अपने को जानने के लिए।

यदि आप मैटा फिजिक्स का अध्ययन करें। और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में रखें। तो वास्तव में आपको सर्वत्र ऊर्जा ही दिखाई देगी। यहां तक की वर्तमान सृष्टि भी एक निश्चित फ्रीक्वेंसी पर एक निश्चित आयाम में स्थित है। आप अन्य आयाम में अन्य फ्रीक्वेंसी पर अनेकों सृष्टियां देख सकते हैं। विज्ञान यह बात अब समझ पाया है यह बात सनातन में बहुत पहले समझा दी गई। जब हम किसी देवता के किसी रूप की कल्पना कर उसके भाव में जाकर अपनी आंतरिक ऊर्जा के स्तर को उसे भाव रूपी देवता की ऊर्जा तक बढ़ा देते हैं तब हमको उसे देव की ऊर्जा का एहसास होने लगता है और जब हम उसी ऊर्जा के स्तर पर प्राण त्यागते हैं तो हम इस ऊर्जा के देव के देवलोक तक में निवास करते हैं।

ध्यान देने वाली बात है श्रीमद् भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने क्या कहा यदि तुम भूत प्रेतों को भजोगे तो उस योनि में जाओगे। पितरों को भजोगे तो पितरों को प्राप्त होगे। देवों को भजोगे तो देवों को और यदि मुझको भजोगे तो मुझको प्राप्त होंगे।

उस निराकार ऊर्जा को हम ब्रह्म कहते हैं। यदि विज्ञान और सनातन को जोड़कर देखें। तो उस निराकार ऊर्जा का दिखने वाला ज्योतिर्मय रूप ईश्वर है। यहां पर वह ऊर्जा अग्नि में परिवर्तित हुई। आगे चलकर जब इसने जगत की सृष्टि के निर्माण की ओर कदम रखा तो वह भगवान हो गई। भ यानी भूमि। ग यानी गगन। व यानी वायु। अ मतलब अग्नि और न मतलब नीर।

मनुष्य ने ऋषि रूप में उस शक्ति को एक निश्चित रूप में भजना आरंभ किया जिससे कि वह अपने अंदर जा सके और योग की अनुभूति कर सके तो यह भगवान साकार हो गए। यह तो यहां तक बोला गया है कि इन पांच तत्वों से मिलकर मानव भी भगवान का ही रूप है। फिर वह शक्ति जो सृष्टि निर्माण में सहयोग करने लगी और कुछ देने लगी वह देवता हो गई।

जिस भांति बिना उपकरण के विद्युत धारा का महत्व नहीं है उसी भांति इस मानव शरीर के बिना किसी भी शक्ति की अभिव्यक्ति और स्वीकृति संभव नहीं है। देव वास्तव में शक्ति के रूप में होते हैं और उनको यदि अभिव्यक्ति करनी होती है तो हमको दिखने वाली समझने वाली मानव की योनि चाहिए। इस कारण देवों की वह चैतन्य शक्ति अपनी शक्ति का तनिक सा अंश मानव पर लाकर अभिव्यक्ति करता है।

दूसरा जब हमारी कुंडलनी शक्ति जागृत होती है तो सब कुछ वैसे ही घटित होता है जैसे किसी मनुष्य पर देवता का वास आने पर। लेकिन कुंडली जागरण के बाद इसको क्रिया कहते हैं। अधिकतर मनुष्य यह होने के पश्चात जगत में अपनी पूजा करवाने लगते हैं प्रचार करने लगते हैं जो उचित नहीं है यदि मनुष्य इसी शक्ति को एकांत में अवसर दे और ध्यान करें तो यह देवता की शक्ति उसकी कुंडलनी शक्ति के जागरण में सहयोग कर उसका कल्याण कर सकती है।

डॉ अजय शुक्ला: फिर शिव शक्ति क्या है?

देवीदास विपुल: आपने सुना होगा ज्ञानी जन कहते हैं शक्ति के बिना शिव शव है मतलब क्या हुआ शक्ति यानी ऊर्जा और शिव यानी उसे ऊर्जा को धारण करने वाला हालांकि शिव भी इस ब्रह्म का एक रूप है किंतु वह धारण करने वाला धारक बन गया और शक्ति धारण बन गई। और जब मनुष्य जो शिव का ही रूप है उसके अंदर से वह शक्ति निकल जाती है तो वह शव के रूप में मृत हो जाता है।

डॉ अजय शुक्ला: कहीं-कहीं पर आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति की बात की गई है? यह क्या है?

देवीदास विपुल: प्रथम कृष्ण यजुर्वेदीय परम्परा के अंतर्गत सरस्वती रहस्योपनिषद् में महर्षि “आश्वलायन” के उपदेशानुसार महाशक्ति क्या है। पूर्व में यह ब्रह्म सद्रूप में था किन्तु जैसे चित्र के लिए कैनवास अथवा भित्ति आदि आधार पर ही व्यक्त होते हैं, छाया हेतु आधार की आवश्यकता होती है। वैसे ही ब्रह्म के व्यक्त का आधार मूलप्रकृति है जिसमे चैतन्यब्रह्म की अभिव्यक्ति होती है।

चित्रं यथाssश्रयमृते स्थाण्वादिभ्यो विना यथाच्छाया।
तद्वद्विना(s)विशेषैर्न तिष्ठति निराश्रयं लिङ्गम् ।।
जैसे चित्र और छाया बिना आधार के नहीं हो सकते, वैसे ही विना विशेष के अविशेष की अभिव्यक्ति नहीं है।

सरवस्ती रहस्योपनिषद् के मन्त्र हैं!
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां बिम्बितो ह्यजः ।
सत्त्व प्रधाना प्रकृतिर्मायेति प्रतिपद्यते ।।49
शुद्ध सत्त्वगुण की प्रधानता से युक्त प्रकृति माया कहलाती है।

(श्वेताश्वत.उप.4/10) माया तु प्रकृतिं विद्यान् मायिनं तु महेश्वरम्” माया को प्रकृति और माया के स्वामी को महेश्वर कहा गया। यह समस्त श्रृष्टि उन मायापति और माया के अंग हैं।

उसी सतोगुणी माया में मायापति प्रतिबिम्बित होते हैं,उस माया में प्रतिबिम्बित चैतन्य तत्त्व को ही ब्रह्म के नाम से जाना जाता है।
स माया स्ववशोपाधि: सर्वज्ञस्येश्वरस्य हि ।
वश्यमायत्वमेकत्वं सर्वज्ञत्वं च तस्य तु ।।50
वह माया सबको जाननेवाले ब्रह्म को अपने आश्रित रहने वाली उपाधि है।माया को अपने नियन्त्रण में रखना, अद्वितीय एवं सर्वज्ञत्व होना-यही उन विराट् ब्रह्म के प्रमुख लक्षण हैं।

सात्त्विकत्वात्समष्टित्वात्साक्षित्वाज्जगतामपि ।
जगत्कर्तुमकर्तुं वा चान्यथा कर्तुमीशते ।।
समस्त लोकों के साक्षीरूप होने तथा समष्टि रूप एवं सात्त्विकगुण से युक्त होने के कारण वे ब्रह्म जगत की संरचना करने, न करने और उससे भी भिन्न कार्य करने में पूर्ण समर्थ हैं।

यः स ईश्वर इत्युक्तः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणै: ।।51
इस कारण सर्वज्ञत्व आदि गुणों से सम्पन्न वह चैतन्यतत्त्व ईश्वररूप कहा जाता है।

जिस मायारूप महाशक्ति में ईश्वर भासित होता है जिसे मूलप्रकृति कहा जाता है उस महाशक्ति मूलप्रकृति में उन्ही के अंग रूप दो शक्तियां प्रादुर्भूत होती हैं। जिन्हें आवरण शक्ति और विक्षेपशक्ति कहा जाता है ये दोनों माया की शक्तियां हैं।

जन्म से आवरणशक्ति से जगत की कल्पना करके ज्ञान और बुद्धि को आवरित कर लेती है जिसके कारण मूलशक्ति और ब्रह्म सब के लिए अलभ्य हो जाते हैं। दूसरी विक्षेप शक्ति है जो समक्ष न होते हुए सम्पूर्ण जगत को रचती है।

शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृति रूपकम्।
विक्षेपाशक्तिर्लिङ्गादि ब्रम्हाण्डान्तं जगत्सृजेत्।।52
विक्षेप और आवरण माया की ये दो शक्तियाँ हैं।(इनमेसे)
विक्षेपरूपी शक्तिलिङ्ग-देह से लेकर ब्रह्मांण्ड पर्यन्त जगत् की संरचना करती है।

अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रम्हसर्गयो: ।
आवृणोत्यपराशक्तिः सा संसारस्य कारणम्।।53
द्वितीय आवरणरूपी अपरा शक्ति है।जो अन्तर्जगत् में ब्रम्ह एवं श्रृष्टि के कारण भेद को आवृत करती है,वह ही सांसारिक बन्धनों की मुख्य-कारण है।

डॉ अजय शुक्ला: जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद समय-समय पर आपको कष्ट देता रहूंगा।
देवीदास विपुल: असली धन्यवाद तो आपको जो मुझे ईश्वर की चर्चा करने का अवसर देते हैं यानी सत्संग की ओर प्रेरित करते हैं।