नाकामी पर पर्दा, क्या अपराधों पर लगाम लगाने में विफल हो रही सरकार

Lucknow National UP

हाथरस में कथित दुष्कर्म और क्रूरता का शिकार हुई युवती के परिवार की इच्छा के विरुद्ध आनन-फानन में दाह संस्कार करने और इससे उपजे विरोध का दमन करने से प्रदेश सरकार की नाकामी ही उजागर हुई है। यूं तो कोई ही दिन जाता होगा जब उत्तर प्रदेश में हत्या, बलात्कार और गंभीर अपराध न होते हों, लेकिन इन अपराधों से निपटने की राज्य सरकार की रणनीतिक विफलता लगातार सवालों के घेरे में रही है।

कह सकते हैं कि सरकार अपराधों पर लगाम लगाने में विफल ही रही है। दरअसल, कोई व्यावहारिक व कारगर रणनीति अपराधों से निपटने के लिये नजर भी नहीं आती। अपराधों पर काबू न पाने पर होने वाली किरकिरी के बाद उसके निशाने पर विपक्षी दल और आलोचक आ जाते हैं। इसी तरह बृहस्पतिवार को हाथरस में यौन हिंसा की शिकार हुई युवती के परिजनों से मिलने जा रहे वरिष्ठ कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा से पुलिस जिस तरह पेश आयी, उससे राज्य सरकार की हताशा ही उजागर हुई।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से धक्का-मुक्की व गिरफ्तारी तथा कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर लाठीचार्ज कई सवालों को जन्म देता है। कानून व्यवस्था की विफलता का विरोध?करने वाले विपक्षी दलों और आलोचकों से प्रदेश का पुलिस-प्रशासन जिस तरह से पेश आया है, यदि वैसा अपराधियों से निपटता तो प्रदेश की कानून व्यवस्था जरूर दुरुस्त हो जाती।

मगर सरकार का सारा ध्यान महज विपक्ष व आलोचकों का मुंह बंद कराने की ओर लगा है। निस्संदेह हाथरस कांड में पुलिस-प्रशासन की भूमिका शुरू से ही सवालों के घेरे में रही है। पुलिस ने मामले को पहले से ही गंभीरता से नहीं लिया। घटना के दस दिन बाद पहले अभियुक्त की गिरफ्तारी हुई। जीवन-मौत के बीच संघर्ष कर रही युवती को समय रहते कारगर चिकित्सा नहीं मिल पायी। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में उसे तब भेजा गया जब उसकी स्थिति गंभीर हो गई। गैंगरेप की बात से भी प्रदेश के शीर्ष अधिकारी इनकार करते रहे हैं।

निस्संदेह, उत्तर प्रदेश में अपराधों का ग्राफ हर सरकार के दौर में चढ़ता-उतरता रहा है। महत्वपूर्ण यह है कि सत्ताधीश कितनी कारगर रणनीति अपराधियों से निपटने में अपनाते हैं। पीडि़तों के प्रति कितनी संवेदशीलता दिखायी जाती है। मंगलवार को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में पीडि़ता की मौत के बाद जिस तरह प्रदेश के पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों ने युवती को शव को परिजनों को देने के बजाय युवती के गांव भेजा, उसने तंत्र की संवेदनहीनता को ही उजागर किया।

यह ठीक है कि घटनाक्रम के बीच ही कुछ संगठन व राजनीतिक दल अस्पताल के बाहर ही हंगामा करने लगे थे, लेकिन पीडि़त के परिजनों से संवदेनशील व्यवहार जरूरी था। अधिकारियों ने किरकिरी से बचने के लिये आनन-फानन में शव को परिजनों को देने के बजाय गांव भिजवा दिया। बिना किसी निकट परिजन के दाह संस्कार तक करवा दिया। जबकि परंपरा के हिसाब से रात में दाह संस्कार नहीं किया जाता।

इतना ही नहीं, राजनीतिक दल गांव न पहुंच सकें, इसलिए पूरे इलाके को छावनी में बदल दिया गया। कई नेताओं को भी विरोध प्रदर्शन रोकने के लिये नजरबंद किया गया। घटनाक्रम में पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों की संवेदनहीनता पर भी सवाल उठे हैं। पीडि़ता के परिजनों पर समझौते के लिये दबाव बनाने के भी आरोप हैं। सरकार नकद मुआवजे और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने की बात तो कह रही है, लेकिन सवाल यह है कि क्या पीडि़त परिवार के अहसासों को समझा जा रहा है। निष्कर्ष यह भी है कि सत्ता और अफसरशाही की दुरभिसंधि संविधान सम्मत समाज कल्याण और न्याय के अनुरूप व्यवस्था स्थापित करने के बजाय राजनीतिक हितों को तरजीह देती है।

अधिकारी भी अपने दायित्वों और नैतिक कर्तव्यों का पालन करने के बजाय अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने में लगे रहते हैं।? स्याह को सफेद करने के इस खेल में वे अपने नैतिक दायित्वों को भी ताक पर रख देते हैं, जिसके चलते समाज में आक्रोश पैदा होना स्वाभाविक है।