उस दिन अयोध्या जाते तो कभी प्रधानमंत्री न बन पाते? बाबरी विध्वंस के दिन कहां थे अटल बिहारी वाजपेयी

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(www.arya-tv.com) उत्तर प्रदेश के अयोध्या में राम मंदिर के पहले फ्लोर का काम लगभग पूरा होने वाला है। जनवरी में मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की तैयारी भी तेज हो गई है। बहुप्रतीक्षित राम मंदिर में रामलला की मूर्ति स्थापित होने के बाद सालों पुराने और बहुचर्चित आंदोलन का पटाक्षेप हो जाएगा।

आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के अलावा राजनैतिक पार्टी के रूप में भारतीय जनता पार्टी को इस आंदोलन के सूत्रधार के रूप में माना जाता है। हालांकि, इसी पार्टी के संस्थापक नेता और देश के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी राम मंदिर आंदोलन को लेकर काफी उदासीन थे।

वह धर्म और राजनीति के मेल से थोड़े असहज थे और यही कारण था कि बाबरी विध्वंस वाले दिन अयोध्या जाने का विकल्प उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। बाद में उनका यही फैसला देश के राजनीतिक मंच से नेपथ्य में जा रहे उदार अटल बिहारी वाजपेयी की वापसी का प्रस्थान बिंदु बनकर सामने आया और आगे चलकर वह देश के प्रधानमंत्री भी बने।

अयोध्या आंदोलन के प्रति उदासीनता

राम मंदिर आंदोलन की तारीख में 6 दिसंबर 1992 की घटना एक निर्णायक मोड़ है। इस दिन लाखों कारसेवकों ने विवादित ढांचे को गिरा दिया था। इसे लेकर भाजपा नेताओं पर उकसाने के आरोप लगे थे। भाजपा की सरकारें बर्खास्त की गई थीं।

लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह जैसे बड़े नेताओं को इसके लिए जिम्मेदार बताकर उन पर मुकदमे चले लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी इन सबसे बचे रहे। इसका मुख्य कारण राम मंदिर आंदोलन को लेकर चल रही उग्र गतिविधियों से वाजपेयी की उदासीनता को माना जा सकता है।

‘आडवाणी को अप्रासंगिक बना देगा अयोध्या आंदोलन’

भाजपा के इस आक्रामक आंदोलन में वाजपेयी की भूमिका बेहद सीमित थी। वह इसके औचित्य को लेकर भी लगातार असमंजस में रहे। कई बार उन्होंने इसके खिलाफ पार्टी के भीतर आवाज उठाने की कोशिश की लेकिन उस मजबूती और तीक्ष्णता के साथ वह ऐसा करने में सफल नहीं हो पाए,

जिसके लिए वह जाने जाते थे। इतना ही नहीं, आंदोलन से जुड़ा कोई भी व्यक्ति वाजपेयी की बात सुनने को तैयार नहीं होता था। यहां तक कि उनके काफी करीबी सहयोगी माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी भी लगातार वाजपेयी की बात को अनसुनी करते रहे थे।

विनय सीतापति अटल और आडवाणी की सियासी दोस्ती पर केंद्रित अपनी किताब ‘जुगलबंदी’ में लिखते हैं कि इस उदासीनता से त्रस्त वाजपेयी ने एक समय में घोषणा ही कर दी थी कि अयोध्या का यह आंदोलन एक दिन आडवाणी को अप्रासंगिक बना देगा।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला, बाबरी विध्वंस की भूमिका!

राम मंदिर आंदोलन के समर्थन में वाजपेयी का सिर्फ एक ही भाषण सामने आता है। इस आंदोलन में वाजपेयी की अलोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तब उनके इस भाषण को किसी ने ज्यादा महत्व नहीं दिया था।

दरअसल, 28 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने संघ परिवार को अयोध्या के विवादित ढांचे की सामने की जमीन पर 6 दिसंबर को कारसेवा की अनुमति दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि कारसेवा में मस्जिद को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने वाली निर्माण गतिविधियों की बजाय केवल पूजा-अर्चना हो या कीर्तन किया जाए।

इस फैसले के बाद 5 दिसंबर को आडवाणी और जोशी अयोध्या जाने के क्रम में लखनऊ पहुंचे। यहां अमीनाबाद में उन्होंने एक जनसभा को संबोधित भी किया। इसी सभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने भी भाषण दिया था।

अटल का विवादित भाषण

आमतौर पर अयोध्या आंदोलन में अलग-थलग माने जाने वाले वाजपेयी ने इस सभा में जो भाषण दिया था, उस पर उस समय तो ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया लेकिन बाद में वाजपेयी पर हमले के लिए विपक्ष ने इसे ही महत्वपूर्ण हथियार के तौर पर खूब इस्तेमाल किया। इस भाषण में वाजपेयी ने कहा था,

‘सुप्रीम कोर्ट ने भजन-कीर्तन की अनुमति दी है। भजन कोई व्यक्ति अकेले तो कर वहीं सकता। इसके लिए ढेर सारे लोगों की आवश्यकता होगी और कीर्तन खड़े रहकर किया नहीं जा सकता। हम कितनी देर तक खड़े रह सकते हैं?

वाजपेयी ने आगे कहा, ‘जमीन से निकले नुकीले पत्थरों पर तो कोई नहीं बैठ सकता। जमीन को समतल करना पड़ेगा।’ बाद में वाजपेयी के इस बयान को बाबरी के विध्वंस के लिए प्रेरित करने से जोड़कर देखा जाने लगा।

हालांकि, अपने भाषण में वाजपेयी ने एहतियातन लोगों से अयोध्या न जाने की अपील भी की थी। वहीं उनके बाद भाषण देने आए मुरली मनोहर जोशी ने लोगों को निर्देश दिया कि वे कारसेवा के लिए अयोध्या चलें।

वाजपेयी ने अपनी सलाह का पालन किया और वहां से अयोध्या न जाकर दिल्ली चले गए। यानी कि 6 दिसंबर के दिन जहां आडवाणी और जोशी अयोध्या में मौजूद थे। वहीं वाजपेयी दिल्ली में थे।

बाबरी विध्वंस से देश में हड़कंप

6 दिसंबर को आंदोलनकारियों ने बाबरी मस्जिद गिरा दी। इस दौरान लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी समेत भाजपा के तमाम नेता कार सेवकों को निर्देश देते रहे कि वे विवादित ढांचे को नुकसान न पहुंचाएं लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनीं। बाबरी गिरने के समाचार ने देश में हड़कंप मचा दिया।

कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। खबर वाजपेयी तक भी पहुंची थी। उन्होंने जैसे ही ये समाचार सुना कि कारसेवकों ने विवादित ढांचे को गिरा दिया है, वे दुखी हो गए।

विनय सीतापति की किताब में संघ से जुड़े एनएम घटाटे के हवाले से कहा गया है कि बाबरी विध्वंस की खबर सुनने के बाद जब वे वाजपेयी के घर गए तो उन्होंने देखा कि वे अकेले बैठकर टीवी देख रहे हैं। वे बहुत गुस्से में थे और जो कुछ हो रहा था, उस पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।

बाबरी विध्वंस की घटना ने वाजपेयी को काफी परेशान किया था। वह काफी शोकाकुल थे, जिसे देखकर भाजपा के कद्दावर नेता प्रमोद महाजन ने घटाटे से कहा कि वह वाजपेयी जी को नियंत्रण में रखें। महाजन खुद घटना के वक्त अयोध्या में मौजूद थे।

बाद में उन्होंने वाजपेयी से कहा भी, ‘वहां सभी सेनापति मौजूद थे। पता नहीं क्या गड़बड़ी हुई।’ इस पर वाजपेयी ने जवाब दिया कि 1761 में पानीपत में भी ढेर सारे सेनापति मौजूद थे। तब भी मराठों की हार हुई थी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वाजपेयी इस घटना को भाजपा की हार के तौर पर ले रहे थे।

वाजपेयी की बढ़ गई प्रासंगिकता

अयोध्या आंदोलन के काल में वाजपेयी बीजेपी में काफी अलग-थलग रहे। वह आडवाणी का उत्कर्ष काल था लेकिन माना जाता है कि 6 दिसंबर की घटना ने पार्टी में वाजपेयी की प्रासंगिकता को बढ़ा दिया था।

गांधीजी की हत्या के बाद यह पहला मौका था जब हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के मार्ग पर चलने वाले संघ परिवार के खिलाफ पूरा राजनैतिक विपक्ष एकजुट हो गया था। आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद पर प्रतिबंध लग गए। गैर कांग्रेसी विपक्षी खेमे में भाजपा अस्पृश्य हो गई थी।

फैसले का फल

वाजपेयी बाबरी विध्वंस से दुखी तो थे लेकिन उन्होंने खुलेतौर पर पार्टी और अपने मित्रों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा। वह चाहते तो पार्टी को फटकारते या फिर भाजपा से अलग हो सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह संसद में और उसके बाहर अपने मित्र आडवाणी और पार्टी का बचाव ही करते दिखे।

विनय सीतापति ने अपनी किताब में लिखा है कि वाजपेयी को अंदाजा हो गया था कि सात सालों के आंदोलन में पार्टी को उनके जिस उदार चेहरे की आवश्यकता नहीं थी, अब उसकी ही जरूरत पड़ने वाली है और आने वाले दिनों में यह बात सच भी साबित हुई।

बाद में जब पहली बार भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी तो उसका चेहरा आडवाणी नहीं थे बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी थे। उन्हें शायद 6 दिसंबर 1992 के दिन अयोध्या न जाने के अपने फैसले का फल मिल गया था।