बांटने से दूर होते हैं दुख-दर्द

Uncategorized

(www.arya-tv.com) मनुष्य जीवन में आर्थिक, सामाजिक या पारिवारिक स्थितियां आती रहती हैं। इनसे प्रताडि़त मनुष्य कभी-कभी इतना दुखी होता है कि उसे जीवन दर्द और जीना दुश्वारी भरा लगने लगता है। ऐसे हालात में मायूसी भी घर कर लेती है। आहिस्ता-आहिस्ता आदमी भीतर से टूटने लगता है। स्वभाव से ही मनुष्य भावनाओं को लेकर बेहद संजीदा है। जब कभी भावनात्मक रूप से जुड़े व्यक्ति या वस्तु से दर्द मिलता है तो वह दर्द सबसे बड़ा दर्द होता है। उस दर्द से उबरना भी इतना आसान नहीं होता।

विडम्बना यह है कि कोई किसी का दुख-दर्द सुनना नहीं चाहता। सब अच्छी बातें ही सुनना चाहते हैं। आपने देखा होगा कि कई लोग अपने मित्र के बारे में बताते हैं कि यार वह तो हमेशा अपना दुखड़ा सुनाता रहता है। यानी कोई किसी के दुख का भागीदार बनना नहीं चाहता और यही दुख के बढऩे का कारण है।

अगर कोई किसी के दुख-दर्द को सुने, समझे और सांत्वना दे तो उसका दिल हल्का हो जाता है और धीरे-धीरे समय के साथ उस दर्द को पूर्णतया भुलाया भी जा सकता है। कहा जाता है कि अगर किसी दुखी व्यक्ति को अपनत्व का सम्बल मिल जाए तो उसका दुख भाग जाता है। उसे मायूसी में ख़ुशी की आशा नजर आने लगती है।

ऐसी ही एक कहानी है। एक फ़कीर थे। नाम था दुखभंजन। कहते थे कि खुदा से उनका साक्षात्कार होता रहता है। स्वभाव से बहुत सीधे, सरल, मिलनसार, स्नेही और हमेशा खुशदिल। उनका कहना था कि वे जिससे भी मिलते, उसका दुख हर लेते थे। सब लोग उनका बहुत सम्मान करते थे।

जैसा कि सामान्यतया होता है, कोई न कोई व्यक्ति पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों से दुखी रहता है, उसी प्रकार वहां भी कुछ लोग दुखी थे। अब उन्होंने निश्चय किया कि वे अपना दुख-दर्द मिटाने के लिए फकीर के पास जायेंगे। चेहरे पर गहरी मायूसी लिए दस-बारह व्यक्ति पहुंच गए फकीर की कुटिया में। फकीर ने उनको गले लगाया और अपने हाथों से पानी पिलाया। सभी के दुख सुने और विनम्र स्वभाव से कहा-आप सबकी दुख-दर्द की कहानी का निवारण होगा। इसलिये आप रोज दस दिन मेरे पास आइये। जब मुझे आपकी व्यथा समझ आ जायेगी तभी मैं उसे ईश्वर से कह पाऊंगा।

सभी ने उनकी बात स्वीकार की और चल दिये अपने गांव। अब रोज वो सब आते और फकीर से मिलते, फकीर उन्हें गले लगाता और उनके दुख सुनता और सांत्वना देता। ग्यारहवें दिन सब लोग आये जो उम्मीद और उत्सुकता से भरे थे क्योंकि आज दुख मिटाने का फैसला था। अचानक फकीर जोर-जोर से हंसता हुआ कुटिया से निकला, सबको गले लगाया और सभी को एक-एक फूल और आशीर्वाद दिया।

फिर वह बोला-मेरे प्यारे लोगों, मैं देख रहा हूं कि आज आप लोगों के चेहरे पर मायूसी नहीं दिख रही है। सब लोगों ने कहा-हां गुरुदेव, अब हमें इतना दुख महसूस नहीं हो रहा है। हम भूल गए हैं कुछ दर्द। शायद आपने हमारे दुख-दर्द खुदा से मिलकर मिटा दिये हैं। तभी हम प्रसन्न हैं।

फकीर ने गम्भीरता से कहा-प्यारे बंधुओ! मैं भी आप जैसा ही इनसान हूं। मैं कोई खुदा के पास दुख मिटाने की अर्जी लेकर नहीं जाता। मैंने दस दिन तक आपके दुख-दर्द सुने। आपने अपना दर्द मुझसे साझा किया और साझा करने से आपका दुख हल्का हुआ। आपका मन अब दुख से आजाद है, भले ही आपको वो दुख याद है।

दुख की जगह आपकी भावनाओं से मैं जुड़ा और मैंने आपको खुदा से जोड़ा। इसी प्रक्रिया में आपके विचार और मन जो केवल दुख की पीड़ा से जकड़े हुए थे, अब वो विभाजित हो गए हैं। आपका मन हल्का हो गया है। बस इसी कारण आप खुश हैं।

फकीर ने कहा-यही दुख-दर्द की दवा है कि आप अपने दुख अपनों से बांट लो। एकांत में मत रहो। आगे से आप लोग यह शपथ लो कि आप लोग भी दूसरों के दर्द को सुनोगे, उसे सांत्वना दोगे। जब समाज के सभी लोग मिलकर रहेंगे, एक-दूसरे के दुख-दर्द बांटेंगे, एक-दूसरे की सहायता करेंगे तो कोई दुखी नहीं रहेगा। दुख का कारण भी हम हैं। क्योंकि हम दुख और दुखी दोनों से दूर भागते हैं। इसे गले लगाओ।
फकीर की बातें सुनकर सभी लोग प्रसन्न हुए और अपने गांव लौट आये। आगे से उन लोगों ने दूसरे दुखी व्यक्तियों से भी वैसा ही व्यवहार किया जैसा फकीर ने उनके साथ किया था। अब उस गांव में कोई मायूस और दुखी व्यक्ति नजर नहीं आता था। उन्होंने दुख-दर्द को जीवन के लिए एक बोझ ना मानकर, उसे जीवन का अध्याय समझा और उसे अपनों से साझा करके मन को पीड़ा से मुक्त रखा। इसी तरह हमें भी अपने मित्रों, रिश्तेदारों के दुख-दर्द सुनने चाहिए और अपने दुख-दर्द बांटने चाहिए क्योंकि दुख बांटने से कम होता है। इसलिए हर किसी का दर्द मिटाते रहिए।

नरपत दान बारहठ