द एलिफेंट विस्परर्स को बनाने में 15 से 20 साल भी लगते तो मैं देती- कार्तिकी गोंजालवेज

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(www.arya-tv.com) ऑस्कर में इंडिया से नॉमिनेटेड शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री ‘द एलिफेंट विस्परर्स’ की डायरेक्टर कार्तिकी गोंजालवेज हैं। उन्होंने तपस्वी का जीवन जिया है। यह 40 मिनट की डॉक्यूमेंट्री है, मगर इसे बनाने में 5 साल लगे हैं। हालांकि, कार्तिकी ने टाइम को जहन में रखकर इसे नहीं बनाया। बेहतर बनाने के इरादे से वह और भी कई साल इसमें लगा सकती थीं। इसमें  दो आदिवासियों बमन और बेली की एक बाल हाथी रघु के साथ के रिश्तों का तानाबाना दिखा। पेश हैं उनसे हुई खास बातचीत:-

इसे बनाने में पांच साल लगे, इतना पेशेंस कहां से आया?

मेरा बैकग्राउंड नेचुरल हिस्ट्री और डॉक्यूमेंट्री फोटोग्राफर का रहा है। महज 18 महीनों की थी मैं, तबसे जंगलों में आना जाना मेरा लगा रहा है। मेरी मां भी नेचुरल हिस्ट्री और कल्चरल फोटोग्राफी में रही हैं। मेरी ग्रैंडमदर नेचुरल रिजर्व्स में रही हैं, और उस बारे में पढ़ाती भी रही हैं। तो मुझे काफी छोटी उम्र में ही एनिमल बि​​​​​हेवियर के बारे में काफी जानकारी मिल गई थी।

एक सिंगल प्रोजेक्ट को अपने पांच साल देना कैसा रहा?

यह ऑर्गैनिकली ही हुआ। बेबी एलिफेंट रघु के साथ बॉन्ड बनना मेरी पूरी जर्नी रही। मैं उसमें से कोई एक मोमेंट नहीं कह सकती कि उस स्पेसिफिक पड़ाव पर मुझे रियलाइज हुआ कि मुझे तो डॉक्यूमेंट्री ही बनानी है। शुरू में तो लगा कि चलो 15 मिनट की कोई छोटी सी डॉक्यूमेंट्री बना लेते हैं, फिर पैंडेमिक भी आया। तो वह वक्त भी गया। हालांकि, मेरे जहन में कभी टाइम की बात आई ही नहीं। अगर उसमें मुझे और 15 से 20 भी लगते तो मैं देती। जंगलों में मैं जब बेबी एलिफेंट्स के साथ रह रही थी तो सिर्फ कुछ ही पलों के लिए उनके साथ रिश्ता नहीं बनाना था।

क्या डॉक्यूमेंट्री का ट्रेलर सिर्फ नेटफ्लिक्स को अप्रोच किया है?

मैं दरअसल एनिमल प्लैनेट और डिस्कवरी चैनल के शो के लिए कैमराविमेन भी रही हूं। मैं तो यहां डायरेक्शन का डी भी नहीं जानती थी। मैंने तो बस बेबी एलिफेंट और उन दो आदिवासियों के साथ फुटेज रिकॉर्ड किए थे अपने कैमरे में। कुछ फोन फुटेज भी थे बमन और रघु के। मैं तो उनकी हर सिंगल चीज को बस कैमरे में कैद करती गई। बमन, बेली और रघु के बीच तब मुझे कमाल का फैमिली डायनामिक यानी परिवार वाला रिश्ता महसूस हुआ। वो दोनों रघु को अपने बेटे के समान मानकर चल रहे थे। उन चीजों से मुझे स्ट्राइक हुआ कि ये तो कमाल की कहानी है।

आपके इंस्पिरेशन कौन हैं ?

लोगों को शायद निराशा होगी, मगर मैं बेयरली सिनेमा देखती हूं। मेरा ज्यादातर वक्त उजाड़ जगहों में बीतता है। जैसे मैं इंडो पाक बॉर्डर पर थी हाल के दिनों में। वहां के लोगों की जिंदगी कैमरे में कैप्चर कर रही थी। जंगलों में तो ज्यादातर समय कोई इंटरनेट एक्सेस होता भी नहीं है। मेरे घर में तो 11वीं क्लास तक टीवी तक नहीं था। ऊटी की नीलगिरी पहाड़ियों में वैसे भी इंटरनेट या बाकी सिग्नल कम ही होते थे। तो मेरा बचपन घुड़सवारी, नदियों के किनारे बीता है। बड़ी होने पर कुछ ही फिल्में देखी हैं। मुझे ‘सी ऑफ शैडोज’ जैसी डॉक्यूमेंट्री पसंद रही हैं। मगर मैंने रजनी सर या कमल हासन या शाहरुख की फिल्में नहीं देख पाई हूं कभी।

कोई अगर बेहतर डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहे तो उन्हें आप के टिप्स क्या होंगे?

यही कहना चाहूंगी कि आप बहुत बड़े आयडिया के फेर में न पड़ें। स्पेशल स्टोरी के पीछे जाने की जरूरत भी नहीं पड़े। या सैकड़ों मील दूर जाकर ही आपको कहानी मिले, ऐसा नहीं है। मेरी बमन, बेली और रघु की कहानी मेरे घर के पास ही मिल गई थी। आप बाहर इसलिए मत भटको कि आप स्टोरी तलाश रहे हो। मुझे तो ये कहानी मेरे घर से महज आधे घंटे की दूरी पर ही मिल गई। वहां मैं तीन साल की थी, जब पहली बार हाथियों के कैंप में गई थी। मैं वहां जिस एक हाथी से मिली थी, वह आज भी जिंदा है उस कैंप में। कॉलेज से पासआउट होने के बाद मैं जंगल में कंटीन्यू रहती थी। आती जाती थी। वह भी पैदल। सफारी गाड़ी में नहीं।

मैं दरअसल वन्य जीवन को अनुभव करना चाहती थी। आप को डॉक्यूमेंट्री में सौ फीसदी सच दिखाना होगा, जहां कहीं की भी आप कहानी कह रहे हो। मेरी इस डॉक्यूमेंट्री का सफर साल 2017 में शुरू हुआ था। वहां से यहां तक का सफर इसलिए जारी रहा कि मैं कुछ ऐसा कर रही थी,जिससे मुझे प्यार था। जो मेरा पैशन था, तो यह अप्रोच रखना चाहिए।