विपुल जी से जिज्ञासायुक्त साक्षात्कार ! मृत्यु को कैसे पहचानेंगे ?

Lucknow National

पूर्व परमाणु वैज्ञानिक गर्वित ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष सनातन चिंतन और विचारक, अपने ब्लॉग और चैनल के माध्यम से हजारों लोगों की सनातन संबंधी जिज्ञासाओं को शांत करनेवाले, सचलमन सरल वैज्ञानिक ध्यान विधि द्वारा हजारों को सनातन की शक्ति का घर बैठे अनुभव करवाने वाले, विपुल सेन लखनवी जी के लगभग 22 साक्षात्कार छापे हैं। जिनमें हर तरीके से प्रयास किया गया की विपुल जी सनातन जिज्ञासा प्रश्नों पर कहीं पर अटक जाएं। बड़ी बेबाकी से तात्कालिक उत्तर मिलना एक अचरज करनेवाला अनुभव प्राप्त होता आया है।

aryatv.com के पाठक साक्षात्कार की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं इसके लिए हम आभारी है। लेकिन कुछ पाठकों ने प्रश्न उठाए हैं। उन्हीं प्रश्नों को विपुल जी पूछा गया और रूप देकर साक्षात्कार बनाया गया जो पाठकों को प्रस्तुत है।

डॉ अजय शुक्ला: आर्य टीवी.काम के पाठकों के लगातार प्रश्न मिलते जा रहे हैं और मैं आपको लगातार परेशान करता जा रहा हूं। यदि थक जाए तो बता दीजिएगा।

देवीदास विपुल: (हंसते हुए) नमस्कार शुक्ला जी। यह तो अच्छी बात है आपके पाठक आपके पत्र को पूरा पढ़ते हैं उन सभी को साधुवाद। दूसरी बात थकना तो मन की अवस्था है आप मुझे थकाने का पूरा प्रयास करते रहे। आपका स्वागत है।

डॉ अजय शुक्ला: सर एक पाठक ने मृत्यु के ऊपर पूछा है कि मृत्यु क्या है?

देवीदास विपुल: बहुत सुंदर प्रश्न है इस पंचतत्व के शरीर में से जल और भूमि तत्व का अलग हो जाना और वापस इन तत्वों का संयोग न होना मृत्यु है। यह इस शरीर की मृत्यु है।

डॉ अजय शुक्ला: कुछ और स्पष्ट करें?

देवीदास विपुल: देखिए मृत्यु का पूर्वाभास योग के अनुभव करने वाले को हो जाता है। योग सूत्र कहता है!

सोपक्रमं निरूपक्रमं च कर्म तत्‍संयमादपारान्‍तज्ञानमरिष्‍टेभये वा।
अर्थात: ‘सक्रिय व निष्‍क्रिय या लक्षणात्‍मक व विलक्षणात्‍मक- इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद मृत्‍यु की ठीक-ठीक घड़ी की भविष्‍य सूचना पाई जा सकती है।’

वैसे सनातन में बहुत साहित्य उपलब्ध है जो मृत्यु के विषय में बताता है। मृत्यु को दो प्रकार से जाना जा सकता है। या तो प्रारब्‍ध को देखकर या फिर कुछ लक्षण और पूर्वाभास है जिन्‍हें देखकर जाना जा सकता है।

उदाहरण के लिए, जब कोई व्‍यक्‍ति मरता है तो मरने के लगभग नौ महीने पहले कुछ न कुछ होता है। साधारणतया हम जागरूक नहीं होते हैं। और वह घटना बहुत ही सूक्ष्‍म होती है। नौ महीने क्यों? क्‍योंकि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति में इसमें थोड़ी भिन्‍नता होती है। यह निर्भर करता है कि समय का जो अंतराल गर्भधारण और जन्‍म के बीच मौजूद रहता है उतना ही समय मृत्‍यु को जानने का रहेगा। अगर कोई व्‍यक्‍ति गर्भ में नौ महीने रहने बाद जन्‍म लेता है, तो उसे नौ महीने पहले मृत्‍यु का आभास होगा। अगर कोई दस महीने गर्भ में रहता है तो उसे दस महीने पहले मृत्‍यु का अहसास होगा, कोई सात महीने पेट में रहता है तो उसे सात महीने पहले मृत्‍यु का एहसास होगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि गर्भधारण और जन्‍म के समय के बीच कितना समय रहा।

मृत्‍यु के ठीक उतने ही महीने पहले नाभि चक्र में कुछ होने लगता है। इस सेंटर को क्‍लिक होना ही पड़ता है। क्योंकि यही मां से जुड़ी रहती है।

जो लोग जागरूक हैं, सजग हैं, वे तुरंत जान लेंगे कि नाभि चक्र में कुछ टूट गया है और अब मृत्‍यु निकट ही है। इस पूरी प्रक्रिया में लगभग नौ महीने लगते हैं।

वैसे मृत्‍यु के और भी कुछ अन्‍य लक्षण तथा पूर्वाभास होते हैं, कोई आदमी मरने के ठीक छह महीने पहले, अपनी नाक की नोक को देखने में धीरे-धीरे असमर्थ हो जाता है, क्‍योंकि आंखें धीरे-धीरे ऊपर की और मुड़ने लगती है। मृत्‍यु में आंखे पूरी तरह ऊपर की और मुड़ जाती है। मृत्‍यु के पहले ही लौटने की यात्रा भी प्रारंभ हो जाती है! जब एक बच्‍चा जन्‍म लेता है, तो बच्‍चे की दृष्‍टि स्थिर होने में करीबन छह महीने लगते हैं। साधारणतया ऐसा ही होता है। लेकिन इसमें कुछ अपवाद भी हो सकते है। छह महीने का बच्‍चा अपनी दोनों आंखें एक साथ नाक के करीब ला सकता है। और फिर किनारे पर भी आसानी से ला सकता है। इसका मतलब है बच्‍चे की आंखें अभी स्थिर नहीं हुई हैं। जिस दिन बच्‍चे की आंखें स्थिर हो जाती हैं फिर वह दिन छह महीने के बाद का हो या दस महीने के बाद का हो, ठीक उतना ही समय लगेगा, फिर उतने ही समय के पूर्व आंखें शिथिल होने लगेंगी। और ऊपर की और मुड़ने लगेंगी। यही बात भारत में गांव के लोग भी कहते हैं, निश्‍चित रूप से इस बात की खबर उन्‍हें योगियों से मिली होगी कि मृत्‍यु आने के पूर्व व्‍यक्‍ति अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हो जाता है। यहां तक की भगवद्गीता में भी भगवान श्री कृष्ण ने अपने मन को स्थिर करने के लिए नासिकाग्र पर ध्यान लगाने को कहा है।

डॉ अजय शुक्ला: इस विषय में योग दर्शन क्या कहता है?

देवीदास विपुल: योग के शरीर विज्ञान के अनुसार व्‍यक्‍ति के शरीर में सात चक्र मुख्य होते हैं। पहला चक्र है मूलाधार, और अंतिम चक्र है सहस्‍त्रार, जो सिर में होता है। इन दोनों के बीच में पांच चक्र और होते हैं। जब भी व्‍यक्‍ति की मृत्‍यु होती है तो वह किसी एक निश्‍चित चक्र के द्वारा अपने प्राण त्यागता है। व्‍यक्‍ति ने किस चक्र से शरीर छोड़ा है, वह उसके इस जीवन के विकास को दर्शाता है। साधारणतया तो लोग मूलाधार से ही मरते हैं, क्‍योंकि जीवनभर लोग काम-केंद्र के आसपास ही जीते हैं। वे मूलाधार से ही प्राण त्यागते हैं। लेकिन अगर कोई व्‍यक्‍ति प्रभु प्रेम को उपलब्‍ध हो जाता है और काम-वासना के पार चला जाता है तो वह हृदय केंद्र से प्राण को छोड़ता है। अगर कोई व्‍यक्‍ति पूर्णरूप से विकसित हो जाता है, सिद्ध हो जाता है तो वह अपनी ऊर्जा को, अपने प्राणों को सहस्‍त्रार से छोड़ेगा।

जिस केंद्र से व्‍यक्‍ति की मृत्‍यु होती है, वह केंद्र खुल जाता है, क्‍योंकि तब पूरी जीवन ऊर्जा उसी केंद्र से निर्मुक्‍त होती है। उस बिंदु स्‍थल को देखा भी जा सकता है।

जिस दिन पश्‍चिमी चिकित्‍सा विज्ञान योग के शरीर विज्ञान के प्रति सजग हो सकेगा तो वह भी पोस्‍टमॉर्टम का हिस्‍सा हो जाएगा कि व्‍यक्‍ति कैसे मरा। अभी तो चिकित्‍सक केवल यही देखता है कि व्‍यक्‍ति की मृत्‍यु स्‍वाभाविक हुई है, या उसे जहर दिया गया है, या उसकी हत्‍या की गई है, या उसने आत्‍महत्‍या की है। यही सारी साधारण-सी बातें चिकित्‍सक देखते हैं।

सबसे आधारभूत और महत्‍वपूर्ण बात ही चिकित्‍सक चूक जाते हैं। जो कि उनकी रिपोर्ट में होनी चाहिए कि व्‍यक्‍ति के प्राण किस केंद्र से निकले हैं। काम-केंद्र से निकले हैं, हृदय केंद्र से निकले हैं या सहस्‍त्रार से निकले हैं। इसके द्वारा मनुष्य के विचारों के विषय में आसानी से पता किया जा सकता है। जो मनुष्य के द्वारा किए गए गलत या सही कार्य को आधार प्रदान कर सकते हैं। जैसी किसी ने सहस्त्रसार से प्राण त्यागे और उस पर हत्या का आरोप लगा है सिद्ध भी हो गया हो शायद लेकिन वह निश्चित रूप से गलत है।

डॉ अजय शुक्ला: लेकिन पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान इसको कैसे जानेगा?

देवीदास विपुल: इसकी संभावना है, क्‍योंकि योगियों ने इस पर बहुत काम किया है। इसे देखा जा सकता है क्‍योंकि जिस केंद्र से प्राण-ऊर्जा निर्मुक्‍त होती है, वही विशेष केंद्र टूट जाता है, जैसे कि कोई अंडा फूटता है और कोई चीज उससे बाहर आ जाती है। ऐसे ही जब कोई विशेष केंद्र टूटता है, तो ऊर्जा वहां से निर्मुक्‍त होती है। जब कोई व्‍यक्‍ति संयम को उपलब्ध हो जाता है तो मृत्‍यु के ठीक तीन दिन पहले वह सजग हो जाता है कि उसे कौन से केंद्र से शरीर छोड़ना है। अधिकतर तो वह सहस्‍त्रार से ही शरीर को छोड़ता है।

डॉ अजय शुक्ला: और भी लक्षण होते होंगे बताइए बड़ी रोमांचक बात है?

देवीदास विपुल: एक बात है जो क्रिया मान कर्म, दिन-प्रतिदिन के कर्म, वे तो बहुत ही छोटे-छोटे कर्म होते हैं।

आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे चेतन कह सकते हैं। इसके नीचे होता है प्रारब्‍ध कर्म। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे ‘अवचेतन’ कह सकते हैं। उससे भी नीचे होता है संचित कर्म, आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इसे हम ‘अचेतन’ कह सकते हैं।

कहते हैं जन्म के साथ ही व्यक्ति का अंत भी निश्चित हो जाता है। उसकी मौत कैसे होगी, कब होगी, कहां होगी आदि सभी का निर्णय पहले ही हो जाता है। लेकिन फिर भी मनुष्य की चिंता इसी बात पर स्थिर रहती है कि कहीं उसे या उसके परिजन को कुछ हो तो नहीं जाएगा। जिस तरह जीवन एक सत्य है उतना ही बड़ा सच है जीवन के पश्चात मौत।‌ व्यक्ति चाहे कितना ही ताकतवर, धनवान या ऊंचे ओहदे पर हो, कभी अपनी मौत को धोखा नहीं दे सकता।

इस परिवर्तनशील दुनिया में हर पल व्यक्ति का स्वभाव, उसकी आकांक्षाएं, उसकी प्राथमिकताएं बदलती जा रही हैं और जाहिर है बदलते समय के साथ-साथ इस बदलाव में और भी तेजी आएगी। जीवन का मौत का चक्र न कभी बदला है और न कभी बदलेगा। जिसने जन्म लिया है उसे एक दिन इस भौतिक संसार को टाटा बाय-बाय कहना ही है।

डॉ अजय शुक्ला: मृत्यु के पश्चात आत्मा कहां जाती है?

देवीदास विपुल: वह पुनर्जन्म लेकर दोबारा इस संसार में आती है या नहीं, ये अभी एक पहेली ही है। लेकिन सनातन के धर्म ग्रंथो जैसी भागवत गीता में इस संसार में दोबारा आती है इस बात की पुष्टि की जाती है।

डॉ अजय शुक्ला: पुराणों में क्या वर्णन है?

देवीदास विपुल: मृत्‍यु के तीन दिन पहले एक तरह की हलन-चलन, एक तरह की गति, ठीक सिर के शीर्ष भाग पर होने लगती है। यह संकेत हमें मृत्‍यु को कैसे ग्रहण करना, इसके लिए तैयार कर सकते हैं। अगर हम मृत्‍यु को उत्‍सवपूर्ण ढंग से, आनंद से, अहोभाव से नाचते-गाते कैसे ग्रहण करना है, यह जान लें। तो फिर हमारा दूसरा जन्‍म नहीं होता। तब इस संसार की पाठशाला में हमारा पाठ पूरा हो गया। अब हम तैयार हैं किसी महान लक्ष्‍य, महान जीवन और अनंत-अनंत जीवन के लिए। अब ब्रह्मांड में संपूर्ण अस्‍तित्‍व में समाहित होने के लिए हम तैयार हैं। और इसे हमने अर्जित कर लिया है।

पुराणों के अनुसार भगवान शिव ने स्वयं कुछ ऐसे लक्षणों को बताया है जो मृत्यु के नजदीक होने जैसी बात को स्पष्ट करते हैं।

मान्यताओं के अनुसार जब व्यक्ति के चेहरे का रंग पीला, सफेद या हल्का लाल पड़ने लगता है तो ये इस बात का लक्षण है कि 6 महीने के भीतर उसकी मौत निश्चित है।

सामान्य तौर पर जब हम तेल या पानी में झांकते हैं तो हमें उसमें अपना अक्स नजर आने लगता है लेकिन जिस व्यक्ति की मौत नजदीक है उसे वह अक्स नजर नहीं आता।

पानी और तेल के साथ-साथ शीशे और धूप में भी उसकी परछाई उसका साथ छोड़ जाती है। इसका अर्थ है आगामी 6 महीनों के भीतर उसकी आत्मा उसका शरीर त्याग देगी।

मौत से कुछ समय पहले व्यक्ति को सब चीज काली नजर आने लगती है। वह रंगों के बीच अंतर करना बंद कर देता है, उसे सब कुछ काला ही नजर आने लगता है।
वैसे इस लक्षण को पुख्ता तौर पर मान्य नहीं कहा जा सकता लेकिन ऐसा माना जाता है कि जिस व्यक्ति का बायां हाथ लगातार एक सप्ताह तक फड़कता रहता है तो यह इस बात को सिद्ध करता है कि एक माह के भीतर उस व्यक्ति की मौत हो जाएगी।

मनुष्य के पास पांच इन्द्रियां होती हैं अगर धीरे-धीरे उन इन्द्रियों में कड़ापन आने लगे तो यह उस व्यक्ति की मौत को स्पष्ट करता है। समय जैसे-जैसे बीतता है वह व्यक्ति अपनी नाक को नहीं देख पाता।

सामान्य व्यक्ति सूरज, चांद और आग में से निकलने वाली रोशनी देख लेता है लेकिन जिस व्यक्ति की मौत होने वाली हो वह या तो इन सब की रोशनी को नहीं महसूस कर पाता या फिर ये सब उसे लाल रंग का नजर आता है।

जिस व्यक्ति की मौत कुछ ही घंटों में होने वाली होती है उसे चांद में दरार या खंडित चांद नजर आता है।

जब हम अपने दोनों कान अपने हाथों से बंद कर लेते हैं तो हमें एक अजीब सा शोर सुनाई देता है लेकिन जिस व्यक्ति की मौत होने वाली हो उसके साथ ऐसा नहीं होता क्योंकि जब वो अपने कान बंद करता है तो उसके लिए सिर्फ और सिर्फ सन्नाटा होता है।

जिसकी मृत्यु नजदीक होती है उसे हर समय अपने मृत परिजनों के साथ होने का एहसास होता है। यह एहसास इतना गहरा होता है कि उसे ये लगता है कि वह उन्हीं के साथ रह रहे हैं।

मौत के 2-3 दिन रह जाने पर उस व्यक्ति को अपने साथ हर समय एक साये के होने का एहसास होता है।

जीभ का सूजना और मसूड़ों में से पस के निकलने को भी मृत्यु का एक बड़ा लक्षण माना जाता है।

आसमान में चमकने वाले करोड़ो तारों के बीच एक ध्रुव तारा भी मौजूद होता है, जिसे न देख पाने वाले की 6 महीने के भीतर मौत होने की संभावना रहती है।

मौत से कुछ समय पहले व्यक्ति के शरीर में से एक अजीब सी गंध आने लगती है। यह गंध किस तरह की होती है यह कभी स्पष्ट नहीं हो पाया लेकिन मृत्युगंध नाम से जाने जानी वाली यह गंध एक विशिष्ट प्रकार की होती है।

सपने में उल्लू या एक उजड़े हुए गांव को देखने का अर्थ है कि उस व्यक्ति की मौत नजदीक है।

जब किसी व्यक्ति को हर जगह आग का भ्रम होने लगता है तो इसका अर्थ स्पष्ट है कि उसकी मौत निकट है।

डॉ अजय शुक्ला: इस विषय में आप क्या कहते हैं?

देवीदास विपुल: देखिए मनुष्य का शरीर पांच महाभूतों से बना है जिसे हम स्थूल शरीर कहते हैं। जिनमें से यदि जल और भूमि निकल जाता है तो उसे हम सूक्ष्म शरीर कहते हैं। जिस मनुष्य के अंदर किसी भी बदले की भावना अथवा क्रोध की भावना नहीं होती है तो उसका अग्नि तत्व भी नष्ट हो जाता है यानी केवल दो ही तत्व में सूक्ष्म शरीर रहता है। वायु तत्व भी जब नष्ट हो जाता है तो कारण शरीर प्राप्त होता है। इस कारण शरीर में केवल आकाश तत्व होता है और जो मनुष्य के अगले जन्म की भूमिका रचता है। इसीलिए कहा जाता है कि हमारी स्थूल शरीर में घटने वाली घटना तीन बार घटतीहै। मतलब पहले कारण शरीर में फिर सूक्ष्म शरीर में और फिर वह स्थूल शरीर के माध्यम से कर्म में परिवर्तित होती है। यह कर्म हमें प्रारब्ध और भाग्य प्रदान करते हैं जो पुनः सूक्ष्म और कारण शरीर में संचित होकर हमारे अगले जन्म की भूमिका रचते हैं।

डॉ अजय शुक्ला: जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद समय-समय पर आपको कष्ट देता रहूंगा।

देवीदास विपुल: आपको अनेको धन्यवाद और साधुवाद। जो मुझे ईश्वर की चर्चा करने का अवसर देते हैं यानी सत्संग की ओर प्रेरित करते हैं।