महामारी से बड़ी मजबूरी

Lucknow UP

‘उ का जानें पीर पराई, जेकरे पांव न फटल बेवाई’, ये कहावत पिछले दिनों दिल्ली-उत्तर प्रदेश सीमा पर जमा मजबूर, मजदूर परिवारों का रेला देखकर अनायास ही मन में आ गई । सिर पर मजबूरी की गठरी, गोद में छोटे बच्चों, महिलाओं के साथ अविश्वसनीय-सी लगने वाली दूरी पैदल तय करने का साहस करके ये लोग घरों से निकल पड़े। शायद इनकी मजबूरी महामारी से कहीं ज्यादा उन्हें इस बात के लिये परेशान कर ही थी कि इक्कीस दिन के लॉकडाउन में घर का चूल्हा कैसे जलेगा। रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले लोगों की बड़ी तादाद इनमें शामिल थी। यह संख्या इतनी बड़ी थी कि देखकर हैरत ही नही हुई बल्कि दिल भी पसीज गया।

यूं तो लॉकडाउन की घोषणा के बाद ही कुछ लोग पैदल ही अपने गंतव्य स्थलों की ओर उन्मुख हो गये थे, कुछ पहुंच गये, कुछ रास्ते में होगें, इसके बावजूद यह भीड़ हैरत करने वाली थी। हमेशा की तरह पहले मुख्यधारा के मीडिया ने भी इनकी अनदेखी की, मगर जब सोशल मीडिया पर इन खबरों का उफान शुरू हुआ तो टीवी चैनलों को भी सुध लेना पड़ा।

मगर इन चैनलों की चिंता महज कोरोना वायरस के प्रसार की थी, इनकी मजूबूरी इन चैनल वालों को शायद नही दिखी, कुछ को दिखी भी तो वो देशद्रोही के श्रेणी में रख दिये गये। सवाल है कि इतनी विषम परिस्थितियों में जब लॉकडाउन के बाद रेल-बस के पहिये थम चुके थे तो अचानक ऐसा सैलाब कैसे उमड़ा? हालांकि, जब स्थिति विकट हो गई तो उ.प्र., राजस्थान व हरियाणा सरकारों ने दिल बड़ा करते हुये, सराकरी बसें हैरान-परेशान लोगों को गंतव्य स्थलों तक पहुंचाने के लिए लगाई गईं। नि:संदेह, कोरोना महामारी के संक्रमण के खतरे के मद्देनजर ऐसे कदम लॉकडाउन के मकसद को खत्म करने वाले साबित हो सकते थे, मगर इस कामगार तबके की चिंताएं उससे कहीं बड़ी थीं।

दिल्ली जैसे महानगरों की व्यवस्था की धमनियों में जीवन का संचार करने वाले ये लोग कहीं न कहीं सरकार और समाज के प्रति आश्वस्त नहीं थे कि आने वाले मुश्किल वक्त में इनका जीवन-यापन हो पायेगा। सरकार ने बड़े पैकेज की घोषणा की थी। शायद ये लोग हर सरकारी स्कीम की तरह इस भी भरोसा नही कर पा रहे थे। क्यों कि सरकारी व्यवस्था की जटिलता में किसी राहत को ले पाना टेढ़ी खीर ही है। राहत की राशि व्यवस्था की छन्नी से छनते-छनते उन तक कितनी व कब पहुंच पायेगी, पता नही। शायद कभी नही भी, हो सकता है। इसी कारण शायद उन्हें भरोसा नहीं था।

तभी वे सिर पर बच्चे व सामान लादकर एक मुश्किल भरे सफर पर निकल पड़े। रोजमर्रा के काम में दिहाड़ी लगाने वाले, फैक्टरियों में काम करने वाले, रिक्शा-ठेले चलाने वाले, घरों में काम करने वाले तमाम लोग ऐसे भी होंगे जो पंजीकृत श्रमिकों की श्रेणी में ही नहीं आते। कई लोगों ने कहा कि मालिकों ने उन्हें जाने को कह दिया था कि न जाने लॉकडाउन कब तक चलेगा। ये घटनाक्रम समाज में गहरी आर्थिक खाई की ओर इशारा करता है कि विकास के तमाम दावों के बावजूद हकीकत क्या है। एक तबका आज भी ऐसा है, जिसके पास तीन सप्ताह तक लॉकडाउन झेलने का सामर्थ्य नहीं है। इनमें कुछ की सोच भारतीय संस्कारों की भी रही कि उन्हें मुश्किल वक्त में परिवार के साथ होना चाहिए।

दूसरा तबका हमारे ही देश में ऐसा भी है, जो इनकी जिन्दगी से कोई इत्तेफाक ही नही रखता, वो अपने बंग्लो, फ्लैटों में बैठ कर रामायण, महाभारत देख कर ट्विवीट कर रहे थे कि, ये लोग पूरे व्यवस्था को खराब कर देगें, लॉकडाउन का क्या मतलब रह जायेगा। शायद इसीलिये प्रधानमंत्री ने भी अपने अपील में फ्लैटों की बालकनी और घरों की छतों पर ताली थाली बजाने के बात की थी। लेकिन देश में एक हिस्सा ऐसा भी है जिनके पास बालकनी और छत तो है ही नही। हमें फिर से विचार करना चाहिये कि हम उन ‘बिवाई फटे पैरों’ के लिये क्या कर सकते थे और क्या किया है।

वरिष्ठ पत्रकार योगेंद्र विश्वकर्मा की फेसबुक वाल से