बुद्धू बक्सा और मेरी कुटाई

Lucknow

लखनऊ। न जाने क्यों आज बरबस उन दिनों की याद हो आयी जिन दिनों छिप-छिपकर बुद्धू बक्सा देखने जाना किसी रोमांच से कम नहीं होता था। रोमांच इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पापा की सख्त हिदायत के बाद भी मैं छिप-छिपकर दूसरों के घरों में बुद्धू बक्से पर श्वेत-श्याम पिक्चरें देखने जाता था और घर लौटने पर बेहद पिटाई का शिकार भी बनता रहा।

बात 1975-76 की है। हम लोग सदर बाजार (लखनऊ) से आलमबाग के जय प्रकाश नगर मोहल्ले में रहने आए थे। शायद उन्ही दिनों लखनऊ में टीवी ने दस्तक दी होगी। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मोहल्ले में पड़ोस के मेहता जी (नाम ठीक से याद नहीं है लिहाजा यूं ही लिख दिया) के घर पर पहली बार मैंने टीवी के दर्शन किए थे। पहली बार किसी बक्सेनुमा में पिक्चर देखकर रोमांच हुआ था। उस वक्त श्वेत-श्याम पिक्चरें देखने का क्रेज ऐसा हुआ करता था जिसकी शायद कल्पना ही नहीं की जा सकती। सच कहूं तो आज के मल्टीप्लेक्स की पिक्चरें भी उस रोमांच की भरपाई नहीं कर पायीं हैं।

चूंकि मैं पढ़ाई में बेहद कमजोर था लिहाजा हमारे पापा ने टीवी से दूर रखने की मानों कसम खा रखी हो। टीवी का नाम लेते ही उनका पारा हाई हो जाया करता था। चूंकि हमारे घर में टीवी नहीं था लिहाजा मेहता जी के घर पर ही टीवी देखने का जुगाड़ लगाया करता था। रही बात मेहता जी की तो उनके घर पर टीवी देखने आने वालों में सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि मोहल्ले के अन्य लोगों के साथ ही उनके नजदीकी नाते-रिश्तेदार और दोस्त-यार भी हुआ करते थे। खासतौर से रविवार वाले दिन काफी भीड़ हुआ करती थी। दूरदर्शन रविवार को पिक्चर दिखाता था इसलिए भीड़ अधिक हो जाया करती थी। रही बात मेहता जी की तो मेहता जी ने टीवी पर पिक्चर देखने आने वालों को कभी नहीं टोका। चाहें वह रिश्तेदार अथवा मित्र हो या फिर मोहल्ले के आवारा बच्चे। मेरी गिनती भी उन दिनों आवारा बच्चों में ही हुआ करती थी। हमारे ग्रुप में नवीन नाम का ही एक ऐसा बच्चा (उस वक्त हम सब बच्चों की ही श्रेणी में आया करते थे।) था जो हमारे ग्रुप में होते हुए भी नहीं था। ऐसा इसलिए के वह अपने मझले भाई से बहुत भयभीत रहता था। भाई की आज्ञा न मानने के कारण उसे नीम की छड़ी से मार खानी पड़ती थी। शायद यही वजह थी कि वह हम लोगों के साथ टीवी देखने नहीं जाता था।

खैर, यहां हम अपनी बात कर रहे हैं कि किस तरह से मैं पापा की नजरें बचाकर और दीवारें फांदकर रात में टीवी देखने मेहता जी के घर पहुंच जाया करता था। चूंकि पापा देर शाम आॅफिस से लौटते थे लिहाजा खाना खाकर उन्हें जल्द नींद आ जाती थी। मैं इसी का फायदा उठाया करता था लेकिन रविवार वाला दिन हमारे लिए किसी चुनौती से कम नहीं होता था। चुनौती इस बात की कि किस प्रकार से पापा की नजरें बचाकर टीवी देखने जाया जाए।
उन दिनों हमारे घरों में न कूलर हुआ करता था और न ही सीलिंग फैन। एक टेबल फैन हुआ करता था। हम भाई-बहन छत पर सोया करते थे। हालांकि पिताजी ने हमारे बड़े भाई को भी सतर्क कर रखा था कि देखे रहना, कहीं ये टीवी देखने न भाग जाए। भाई-बहन के सोते ही हम पूरी तरह से हरकत में आ जाते थे। तकिया पर चादर ओढ़ाकर धोखा देने की कला उस वक्त से मुझे आती थी। अब जब कभी मैं पिक्चरों में ऐसा देखता हूं तो ऐसा लगता है मानों पिक्चर बनाने वालों ने मेरी नकल की होगी।

चुपचाप दबें पांव से हाथ में चप्पल पकड़कर मैं नीचे उतर आता था। नीचे उतरने के लिए जीने का सहारा इसलिए नहीं लेता था क्योंकि जीने पर ताला जड़ा रहता था। पहले पड़ोस की छत पर कूदता था फिर बाउण्ड्रीवाल से होता हुआ सड़क पर आ जाता था। सड़क पर आते ही मानों पैरों में पंख लग जाते थे। दोस्त यार पहले से ही तय समय पर मौजूद रहते थे। दौड़ता हुआ मेहता जी के घर चला जाता था। खासतौर से रविवार हमारे लिए खासा महत्वपूर्ण हुआ करता था। सच कहूं तो उस वक्त तक मैंने सिनेमाहाल का मुख तक नहीं देखा था लिहाजा टीवी पर आने वाली पिक्चरें किसी खूबसूरत पलों से कम नहीं लगती थीं। जुनून ऐसा कि यदि उस वक्त पिताजी को छोड़कर कोई भी टोक देता तो निश्चित तौर पर मेरे अपशब्दों की बौछारों से कोई नहीं रोक सकता था।

कहते हैं कि पिता की जूती भले ही बेटे के पांव में आने लगे लेकिन पिता आखिर पिता ही होता है। ऐसा अनुभव मुझे भी रहा है। मैं यह समझता था कि मैं पिताजी को गच्चा देकर निकल गया लेकिन सच तो यह था कि जब पिताजी हाथ में जूता लेकर मेरा इंतजार करते थे तो मैं समझा जाता था कि पिताजी को गच्चा देना इतना आसान नहीं, जितना कि मैं समझता रहा। भाई सच बताऊं,, खूब पिटाई होती थी। मां भी पिताजी के गुस्से को देखकर जल्दी हस्तक्षेप नहीं करती थीं।

इस वक्त मैं अपनी उम्र का अर्ध शतक पूरा कर चुका हूं लेकिन पिताजी की डांट और मार आज भी याद आती है कि किस तरह से बुद्धू बक्से ने हमारी पिटाई करवायी।

लघु आत्मकथा…
राकेश श्रीवास्तव (वरिष्ठ पत्रकार)