टमाटर सस्ता हुआ तो कच्चा तेल बढ़ने लगा, जानिए भारत पर इसका क्या असर होगा

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(www.arya-tv.com) इकॉनमी में महंगाई का दबाव मजबूत मांग, आपूर्ति की समस्याओं या दोनों के कंबिनेशन से पैदा हो सकता है। हाल में खाद्य पदार्थों की सप्लाई में समस्याओं के कारण इस मोर्चे पर परेशानी बढ़ी है। अब कच्चे तेल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी चिंता बढ़ा रही है। हेडलाइन इन्फ्लेशन में से तेल और खाने-पीने की चीजों की महंगाई को हटा दिया जाए तो कोर इन्फ्लेशन निकलता है।

यह मांग में दबाव दिखाती है। जुलाई और अगस्त में यह 5% से नीचे रही जब हेडलाइन इन्फ्लेशन औसतन 7.1 परसेंट तक पहुंच गई। पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 7.8% की मजबूत जीडीपी ग्रोथ देखी गई, जबकि महंगाई गिरकर 4.6% रह गई। दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) में ग्रोथ के धीमी होने की आशंका है जबकि महंगाई पहले ही बढ़ गई है।

जीडीपी ग्रोथ का अनुमान कम होने के बावजूद, सीपीआई इन्फ्लेशन आरबीआई के 6% के अपर टॉलरेंस बैंड से ऊपर रहेगी। इस तिमाही के पहले दो महीनों में इसका औसत 7.1% रहा है। जुलाई और अगस्त में खासकर सब्जियों की सप्लाई में समस्या के कारण महंगाई बढ़ी।

यह अब ठीक हो रहा है। इसका मतलब है कि इस समय दिखाई दे रहा महंगाई का दबाव का आर्थिक गतिविधि से कम ही लेनादेना है। दूसरी तिमाही की इस तेजी से क्रिसिल ने इस वित्त वर्ष के लिए अपने कंज्यूमर इन्फ्लेशन के पूर्वानुमान को 5% से बढ़ाकर 5.5% कर दिया है।

मॉनसून का हाल

हमारे बेस केस में, हम देखते हैं कि सरकार द्वारा सक्रिय और प्रतिक्रियाशील आपूर्ति बढ़ाने वाले उपायों और सब्जियों के मौसमी आगमन के कारण तीसरी तिमाही तक महंगाई में कमी आ रही है। लेकिन इसमें धारणा भी शामिल है कि सितंबर में मॉनसून पटरी पर लौटा है। इससे पहले 123 साल में अगस्त का महीना सबसे सूखा रहा था।

इसमें कोई दोराय नहीं है कि भारतीय मौसम विभाग के अनुमान के मुताबिक बारिश तेज हुई है। लेकिन 26 सितंबर तक कुल बारिश दीर्घकालिक औसत से 6% कम थी।खरीफ का कुल रकबा पिछले साल के बराबर है। इसका मतलब है कि खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए पैदावार में सुधार करना होगा। पिछले एक दशक में खरीफ का रकबा सालाना 0.7% की दर से बढ़ा।

बारिश रबी या शीतकालीन फसलों के लिए भी ग्राउंडवॉटर और जलाशय के स्तर को भी प्रभावित करती है। यह फसल बड़े पैमाने पर सिंचित क्षेत्रों में बोई जाती है। सितंबर में बारिश में सुधार के बावजूद अल नीनो प्रभाव से खरीफ के अंतिम चरण में अनाज की महंगाई बढ़ने का जोखिम मौजूद है। इसलिए, सरकार को खाद्य महंगाई को नियंत्रित करने के लिए खाद्यान्न की आपूर्ति बढ़ानी होगी।

क्या है पेच

इसमें ट्विस्ट यह है कि जब फूड इन्फ्लेशन का जोखिम कम हो रहा है, कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने लगीं और अब यह करीब 93 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई। हालांकि यह पिछले साल के मुकाबले कम है जब 8 जून, 2022 को कच्चे तेल की कीमत 129 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई थी। लेकिन यह अप्रैल के मुकाबले करीब 11% ऊपर है।

मुख्य रूप से तेल उत्पादक देशों द्वारा आपूर्ति में कटौती के कारण कच्चे तेल की कीमत में उछाल आई है। इस तेजी का डिमांड से ज्यादा लेनादेना नहीं है। दुनिया खासकर यूरोप में तेल की डिमांड कम हो रही है। एसएंडपी ग्लोबल और जीईपी सप्लाई चेन इंडेक्स अतिरिक्त क्षमता दिखाते हैं, जो इस बात का इशारा करते हैं कि मांग कंडीशंस कमजोर हैं।

क्रिसिल का महंगाई का अनुमान इस बात पर आधारित है कि वित्त वर्ष के लिए कच्चे तेल की औसतन कीमत 80-85 होगी जबकि अप्रैल-सितंबर (19 सितंबर तक) यह करीब $81.5 डॉलर रही। कच्चे तेल की कीमत में तेजी बनी रहती है तो इसका महंगाई पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष असर देखने को मिल सकता है। यह असर ज्यादा रिटेल कीमत, प्रॉडक्शन और ट्रांसपोर्ट कॉस्ट में बढ़ोतरी के जरिए देखने को मिल सकता है।

इससे सरकार का वित्तीय और चालू खाता घाटा (CAD) भी बढ़ सकता है, क्योंकि उसकी सब्सिडी और तेल के आयात का खर्च बढ़ जाएगा। इससे जीडीपी ग्रोथ भी प्रभावित हो सकती है। 2017-18 के लिए आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि कच्चे तेल की कीमत में 10 डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी से जीडीपी ग्रोथ में 20-30 आधार अंक की गिरावट आती है।

इकॉनमी पर असर

ये दुष्प्रभाव इकॉनमी पर किस हद तक असर डालेंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कच्चे तेल की कीमतें कितनी बढ़ती हैं और कितने समय तक टिकी रहती हैं। ग्लोबल ग्रोथ की संभावना कमजोर होने के कारण कच्चे तेल की कीमत लंबे समय तक उच्च स्तर पर बने रहने की संभावना नहीं है। लेकिन मौजूदा भू-राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में कच्चे तेल की कीमतों के बारे में भविष्यवाणी करना एक चुनौती है।

यह साफ है कि भारत की इकॉनमी कच्चे तेल की कीमतों में अस्थाई उछाल को आसानी से झेल सकती है। अभी भारत की मैक्रोइकनॉमिक स्थिति ठीक है। हम उम्मीद करते हैं कि चालू खाते का घाटा जीडीपी का 1.8 परसेंट होगा। यह तेल की कीमत धारणा पर आधारित है। सप्लाई की समस्याओं से बढ़ी महंगाई से निपटने में मॉनीटरी पॉलिसी की सीमित भूमिका है।

उदाहरण के लिए, आरबीआई इस साल जुलाई-अगस्त में सब्जियों की महंगाई को आसानी से देख सकता है। यानी उसे अनाज की महंगाई और अब कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों से पैदा हुए अतिरिक्त दबाव पर करीबी नजर रखनी है। कोर इन्फ्लेशन से इस समय नीति निर्माताओं को कुछ राहत मिल सकती है और महंगाई पर दबाव अब तक खानेपीने की चीजों तक ही सीमित रहा है।

लेकिन फूड या ऑयल की सप्लाई में समस्या बनी रहती है तो इससे इकॉनमी के दूसरे हिस्से भी प्रभावित हो सकते हैं और सामान्य महंगाई का दबाव पैदा कर सकते हैं। इसलिए आरबीआई को यह सुनिश्चित करना होगा कि स्थिति को बिगड़ने से रोका जाए। इसका मतलब है कि ब्याज दरें लंबे समय तक उच्च स्तर पर बनी रह सकती हैं। इसके चलते आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति के अक्टूबर की समीक्षा में रेपो दर या अपने तटस्थ रुख को बदलने की संभावना नहीं है।