जब पाकिस्तान सेना को टॉर्च दिखाकर मार्गदर्शन करते पकड़े जाते थे लोग

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  • विपुल लखनवी ब्यूरो प्रमुख पश्चिमी भारत

मैं वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में 11 साल का था और छठी कक्षा का छात्र था इसलिए हिंदी पढ़ना आती थी और उस समय स्वतंत्र भारत नामक समाचार पत्र मेरे घर आया करता था और बोला जाता था इसको पढ़ने से सामान्य ज्ञान बढ़ेगा और हिंदी भी तेज होगी।

अचानक उस समय की कुछ बातें जो बड़े लोग किया करते थे और समाचार पत्रों में मैं खुद पढ़ी थी वह याद आ गई जो आपसे शेयर करना चाहता हूं कि किस तरीके से भारत में स्वतंत्रता के बाद से घुसपैठ हो रही है और तत्कालीन सरकारी वोट बैंक के लिए केवल इन घुसपतियों को जो कि मुस्लिम होते हैं किस तरीके से इस्तेमाल करती थी। नेट मीडिया न होने के कारण समाचार में छपने वाली खबरें भी सरकार के हिसाब से बदल दी जाती है।

भारतीय वायुसेना ने मार्च 1962 में सेंट्रल एयर कमांड रानी कुटीर, कोलकाता (तब कलकत्ता) में स्थापित किया था परंतु अक्टूबर-नवंबर में चीन के साथ युद्ध के दौरान महसूस हुआ कि हमारा एयर बेस बॉर्डर के बहुत पास है । तो 1966 में इसे प्रयागराज (तब इलाहाबाद) स्थित बमरौली शिफ़्ट कर दिया गया ।

भारत-पाकिस्तान 1965 युद्ध के दौरान पाकिस्तानी वायुसेना को अमरीका से उस समय का उन्नत लड़ाकू विमान “सेबर जेट” (F-86 Sabre) मिला हुआ था और उसके मुक़ाबले भारत ने ब्रिटिश कंपनी से छोटे नेट विमान (Folland Gnats) ख़रीद रखे थे जो यूरोपियन बाज़ार में फ़्लॉप होने के कारण हमें सस्ते में मिल गये थे ।

हालाँकि युद्ध के दौरान हमारे पायलटों ने छोटे नेट विमानों से दस सेबर जेट मार गिराये और वायुसेना को उसका आज तक का इकलौता परम वीर चक्र भी दिलाया, जब फ़ाइटर पायलट निर्मलजीत सिंह सेखों ने श्रीनगर हवाई अड्डे पर अप्रत्याशित हमले में छ: सेबर जेट को अकेले छकाते हुए दो विमान मार गिराये, हवाई अड्डा बचाया और शहीद हो गए । कुछ इसी भांति 1971 में वायु सेना के कीलर नामक जवान ने सरगोधा के रडार को अपने हवाई जहाज के द्वारा टकराकर अपनी शहादत के साथ नष्ट कर दिया था और जिसके कारण भारतीय सेवा युद्ध जीत पाई थी। लेकिन उसकी कोई पदक नहीं मिल सका क्योंकि उसने अपने कमांडिंग ऑफिसर के आदेश को दरकिनार करते हुए रडार में अपने लड़ाकू विमान को सीधे घुस कर रडार नष्ट किया था। मुझे आज भी वह डायलॉग याद है जो पुस्तक में दिया हुआ था “सर मैं आपकी बात नहीं मानूंगा इस रडार ने हमको परेशान कर रखा है आप कुछ भी कहे मैं इसको नष्ट करके रहूंगा” और यह कहकर कीलर ने अपना कनेक्शन डिस्कनेक्ट कर दिया था। शायद यह उस समय का पहला वायु सैनिक द्वारा किया गया आत्मघाती हमला था। उस समय “सेनानी आकाश के” जैसी तमाम पुस्तके मुझको इनाम में मिली थी और मैंने देश के शहीदों की कई कहानियां और कविताएं पढ़ी थी। इसी कारण मेरे अंदर देशभक्ति की भावना भी पैदा हुई थी। मुझे याद पड़ता है अमर बहादुर सिंह अमरेश देश भक्ति की रचनाएं उस समय लिखा करते थे।

सेबर जेट का दुनिया भर में इतना प्रचार था कि पाकिस्तानी बॉर्डर से बहुत दूर इलाहाबाद स्थित सेंट्रल एयर कमांड में भी उनका ख़तरा महसूस होने लगा ऐसे में युद्ध के दौरान प्रशासन द्वारा पूरे शहर में अनिवार्य रूप से “ब्लैक आऊट” कराया जाता था । रात के समय शहरों को अंधेरे में रख कर दुश्मन के लड़ाकू जहाज़ों को नीचे आबादी का पता न लगने देना एक पुरानी युद्ध रणनीति रही है ।

लोग अपने काम शाम होते-होते निपटा लेते थे ताकि रात में बिजली की ज़रूरत न पड़े । विद्यार्थी अपने कमरों के खिड़की-दरवाज़ों के सुराख़ों में काले काग़ज़ की पट्टियाँ चिपकाते थे ताकि रौशनी बाहर न जाये और वॉलंटियर्स के समूह गलियों में “ब्लैक आऊट” कराने के लिये देर रात तक चक्कर लगाते रहते थे । मेरे पिताजी और मेरी पड़ोसी भी रात को गश्त करते थे कहीं कोई टॉर्च जलाकर रोशनी तो नहीं कर रहा।

ऐसे में एक अजीब वाक़्ये सामने आते जब पुलिस शहर के मुस्लिम इलाक़े में कुछ लोगों को देर रात छत पर खड़े होकर तेज़ टॉर्चों से आकाश में रौशनी फेंकते पकड़ा करती थी।

गिरफ़्तारी के बाद पता चलता था कि यह लोग “ब्लैक आऊट” को फेल करने के लिये सरहद पार से आ रहे अपने मुसलमान भाइयों के हवाई जहाज को टॉर्च दिखा कर बता रहते थे कि “आबादी यहाँ है”।

पुलिस-प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी हतप्रभ हो जाते थे । इन मुजाहिदों को समझाने का प्रयास किया जाता था। कि “मियाँ, जहां रौशनी दिखेगी, दुश्मन के विमान बमबारी वहीं करेंगे, और सबसे पहले टॉर्च दिखाने वाले ही मारे जायेंगे”।

लेकिन यह बात इन फिदाइन फ़ौजदारों को समझ नहीं आती थी या उम्मत के लिये उनकी क़ुर्बानी का जज़्बा इतना ज़्यादा था कि जब तक युद्ध चलता रहा, इस तरह के दो-चार नमूने पकड़े जाते थे ।

ज़ाहिर है, ऐसी बेवक़ूफ़ी की हरकत कम ही लोग कर पायेंगे और इलाक़े के तमाम मुसलमान इन जियालों से बहुत नाराज़ हो जाते थे । उनको समझ में आ रहा था कि मूर्खों ने उन सबके परिवार को ख़तरे में डाल दिया था । उस समय के किस्से याद करते हुए मैं सोचता हूं “उन शैतानों की चली होती तो मैं जवानी में ही निपट गया होता”।

सोशल मीडिया के दौर में बड़े हुए लोग कभी उस समय के हालात समझ नहीं पायेंगे । मीडिया उस दौर में सीमित, संयमित और नियंत्रित हुआ करता था । सुबह के अख़बार के बाद अगली ख़बर अगले दिन के अख़बार से ही मिलती थी । इसके अलावा दिन में तीन बार ऑल इंडिया रेडियो से समाचार प्रसारित होते थे जिन पर लोगों को कोई ख़ास भरोसा नहीं था पर विकल्प के अभाव में ध्यान से सुने जाते थे ।

ये वो दौर था जब रेडियो भी इतनी बड़ी चीज़ हुआ करता था कि शादी के दहेज में अलग से डिमांड होती थी । ऐसे में अफ़वाहें ही जानकारी का सबसे बड़ा श्रोत हुआ करती थीं । और सरकार ने दीवारों पर लिखवा रखा था कि “अफ़वाह फैलाने वाले देश के दुश्मन हैं”।

बहरहाल युद्ध के दौरान तो इस वाक़िये को प्रशासन ने सख़्ती से दबा दिया, परंतु युद्ध के पश्चात जब लोगों को हक़ीक़त पता चली तो शहर में सांप्रदायिक तनाव हो गया । अख़बारों में तो ख़ैर ऐसी खबरें छपने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी पर जनसाधारण की याददाश्त में यह घटना इस क़दर बैठी हुई है कि पुराने शहर में आज भी आपको लोग इस क़िस्से को विस्तार से सुनाते मिलेंगे । कभी आप लखनऊ गए हो तो गुलाम हुसैनपुर हमेशा पुलिस पड़ी रहती क्योंकि अक्सर एक दूसरे पर हमले कर दंगा करते रहते थे।