संक्रमण काल से मुक्ति की राह तलाशिये

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आज से तिहत्तर बरस पहले उस रात के बारह बजे गहन अंधेरे में गुलामी की बेडिय़ों को तोड़ पंद्रह अगस्त के आगमन की घोषणा हुई। दिल्ली में हजारों की भीड़ के समक्ष हमारे जननायक ने अंधेरे को चीरकर एक स्पन्दित कर देने वाली सुबह की घोषणा की थी, सुनो, सन् सैंतालिस के पन्द्रह अगस्त के आने का गजर बज गया।

अंधेरा छट गया, आजादी का सूरज अपनी समतावादी समाज बना देने की घोषणा के साथ आपके घर द्वार की चौखट पर दस्तक दे रहा है। आधी रात के घुप अंधेरे में नयी रोशनी का सवेरा हो गया। अब प्रेमचंद के कथा पात्रों में घीसू और माधव पर मानवीयता की लालिमा लौटेगी। अब कफन बेच उसके पैसों से चिरसंचित इच्छाओं की पूर्ति घीसू और माधव को करने की नौबत नहीं आयेगी।

होरी का भाग्य बदलेगा। साथ ही स्थापित होगी लोकतंत्र की वह परिकल्पना, जहां ऊंचे चौबारे और टूटते फुटपाथ गलबहियां डाल उसी सम्मान से जीने का स्वागत करेंगे।

फिर आजादी की पौन सदी गयी। आम आदमी द्वारा वोटों की सहायता से ईवीएम के बटन को दबा कोरोना की दूसरी लहर के लौट आने की दहला देने वाली घोषणाओं के बीच संपन्न हुए बिहार के पहले चरण में सामाजिक अन्तर की एहतियात को रखते हुए लोकतंत्र से बदलाव के प्रति प्रतिबद्धता का वही नजारा पेश हो रहा है, जो उसने सन् 2015 के पिछले विधानसभा चुनाव में?पेश किया था।

2019 के लोकसभा चुनाव में?पेश किया था और अब मास्क ओढ़ अनुशासन रख सामाजिक अन्तर बना बिल्कुल उतने ही पचास प्रतिशत से अधिक वोटरों का मतदान केंद्रों में निकल आना, उस बदलाव की आकांक्षा थी कि जिसमें नेतागण दावा संस्कृति को विदा दे जिंदगी बदल देने का अहसास उसे भेंट कर देंगे।

लेकिन ऐसा होता क्यों नहीं? नव निर्माण की जो परिकल्पना साल-दर-साल उसे भेंट की जाती है, वह क्यों अपने आधे-अधूरेपन के साथ उसे कोरे भाषणों की वाचालता, आधे अधूरेपन में ठिठके हुए जीवन के गतिरोध उसे भेंट कर जाती है?

पौन सदी की इस आजादी की विकास यात्रा में आंकड़ों का सत्य क्यों इसके जीवन सत्यों में तबदील नहीं हो पाता? इस बरस तो देश में आर्थिक परिवर्तन के सपने और उसके द्वारा दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर प्राप्त कर स्वत: स्फूर्त हो जाने के दावे भी आकाश कुसुम हो गये।
कहां तो देश के हर प्राणी को रोजी, रोटी और काम का अधिकार देने का वादा था और कहां महामारी के प्रकोप के इन दहला देने वाले दिनों में बेकारी बढऩे के आंकड़े पिछले पैंतालिस बरसों के शीर्ष को पछाड़ देने की धमकी दे रहे हैं।

कोरोना का लॉकडाउन पूर्ण बन्दी से राहतों का अनलॉक पांच बनकर भी आज देश के साधारण जन, कामगार, मजदूर, किसान को बेकारी की अपंगता से मुक्ति का अहसास नहीं दे पा रहा। कोरोना की पहली लहर अभी विदा नहीं हुई और दूसरी के लौटने के भयावह चर्चे शुरू हो गये।
अब आर्थिक विकास दर की गिरावट और सकल घरेलू उत्पादन में तेईस प्रतिशत की कमी का डरावना सत्य सामने ला रही है।

भूख को लंगर की अनुकम्पा और उत्सव-त्योहारों के महीनों की मांग बोनस, ब्याज रहित दस हजार के ऋण और एलटीसी के नकद भुगतान से अर्थव्यवस्था को जिलाने की कोशिश होती है, लेकिन मंडियों का मन्दा रुख फिर भी करवट नहीं बदलता।

बिना दवाई कोरोना को थका कर हटा देने वालों द्वारा अपनी पीठ थपथपा देने की आज कमी नहीं। अचानक लॉकडाउन की सख्ती के दो महीनों की जिस आर्थिक गतिविधि ने सबको निष्प्राण कर दिया था, वह निस्संदेह आज करवट बदलना चाहती है। इस देश के सामान्य जन की जिजीविषा एक नयी संस्कृति को जन्म देना चाहती है, लेकिन परिस्थितियां जन-जन को आज भी सामान्य और सहज क्यों नहीं लगती।

कोरोना की लहर के इन छह महीनों में बुनियादी उद्योगों से लेकर हर व्यवसाय और उद्यम के पतन के आंकड़ों के बावजूद भारतीय किसान की मेहनत ने लहलहाती फसलों का रूप लेकर देश को रोग के दुर्भाग्य के साथ भूख और अकाल के वज्रपात से बचाया। आज वही किसान केंद्र द्वारा पारित नये किसान कानूनों के मकडज़ाल से आतंकित तीखे तेवरों के साथ आंदोलन के मैदान में?उतर आया है।

अगर आज हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना है, क्षरित होते ग्रामीण भारत को एक नया जीवन देना है तो उनके साथ एक गरिमापूर्ण संवाद की स्थिति पैदा करनी होगी। उनकी इन आशंकाओं को तिरोहित करना होगा कि देश को पूंजीपतियों के पास गिरवी नहीं रखा जा रहा है।

भारत के कर्णधार अगर देश के जन-जन के लिए नये सुविधापूर्ण जीवन की संरचना करना चाहते हैं, उन्हें गरीबी रेखा के दुर्भाग्य से बाहर निकाल, उनकी मेहनत के प्रतिदान के रूप में रोजी-रोटी का उपहार देना चाहिए ताकि वह देश की फ्री राशन की दुकानों के बाहर कतार में खड़ा न रहे।

सहकारी उद्यम, मिश्रित अर्थव्यवस्था को विदा देकर, निजीकरण की चकाचौंध में उसे कार्पोरेट क्षेत्र की भुलभुलैया में भटकने के लिए विवश किया जाने लगा। कोरोना प्रकोप के इन दिल हिला देने वाले प्रभावों ने जीवन में बदलाव के प्रति एक अजब उदासीनता जीवन पथ से उखड़े हुए इन लोगों में भर दी।

नयी नौकरियों को पैदा करने के वादे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को पुनर्जीवित करने की लाखों करोड़ रुपये की आर्थिक अनुकम्पा की घोषणा से किये गये थे। सहज ऋण के मौद्रिक नीति परिवर्तन और नयी आर्थिक अनुकम्पा के स्पष्ट संकेत इसकी बैसाखी बनना चाह रहे थे।

लेकिन अनुकम्पा बेअसर हो रही है। सहज साख, ऋण नीति उद्यम और व्यवसाय में नये उत्साह का संदेश नहीं बन पायी? ग्रामीण भारत का पुनर्जागरण बाधित रेल और सड़क परिवहन की गतिहीनता का बन्दी बन रहा है।

देश अगर विकास संस्कृति को प्रतिबद्ध है तो क्यों नहीं समझा जाता कि इसमें कोई निर्णय अंतिम नहीं होता। इसके संशोधन के लिए निरंतर संवाद और संशोधन की आवश्यकता रहती है। ‘मैं न मानूं का यह हठ किसी काम का नहीं, चाहे वह गद्दी के दम्भ ने पैदा किया हो, या आंदोलन के विद्रोही तेवरों ने।

महामारी के झंझावात स्थायी न हों क्योंकि ये ग्रामीण अंचलों और निरंतर विस्तृत होते निम्न मध्य वर्ग के गलियारों में से प्रेमचंद के गोदान के ‘होरी और कहानी कफन के ‘घीसू और माधव के जिन्दा रहने को स्थायी सत्य बना रहे हैं। फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल के पात्र बावन दास के अच्छे दिन लाने की आवाज आज भी क्यों प्रभावहीन है?

आर्थिक सत्यों की मीमांसा तो यह कहती है कि कोरोना महामारी के इन दुर्दिनों में देश का धनी वर्ग जो दस प्रतिशत से अधिक नहीं है, और भी धनी हो गया। सबसे अधिक तरक्की फार्मा उद्योग ने की जो आपको महामारी की सटीक दवा देने के वादों के साथ अपनी सम्पदा में सत्तर प्रतिशत वृद्धि पा गया है। संक्रमण की आशंका से संत्रस्त देश के नये-पुराने बेरोजगार काम नहीं, खैरात की कतार में खड़े नजर आते हैं। अच्छे दिन आने का बरसों से इंतजार करते हुए देश के लिए यह कोई सुखद स्थिति नहीं।

सुरेश सेठ