भारत सहित दुनियाभर में बढ़ रही महंगाई, लेकिन पॉलिसी रेट क्यों नहीं बढ़ा रहे सेंट्रल बैंक?

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(www.arya-tv.com)भारतीय रिजर्व बैंक शुक्रवार को बताएगा कि उसने अहम ब्याज दर यानी रेपो रेट बढ़ाने का फैसला किया है या नहीं। ज्यादातर अर्थशास्त्रियों का कहना है कि कमजोर इकोनॉमी और सुस्त ग्रोथ को देखते हुए वह ब्याज दर बढ़ाने से परहेज करेगा। वह कोविड से पिटी इकोनॉमिक ग्रोथ पर फोकस करते हुए महंगाई की दर में पिछले कुछ समय से आए उछाल को दरकिनार कर सकता है।

ज्यादातर विकसित देशों में महंगाई बढ़ी है, लेकिन​​​​…

ऐसा नहीं है कि महंगाई से आंख चुराने वाली बात सिर्फ इंडिया में हो रही है। दुनिया के ज्यादातर विकसित देशों में महंगाई बढ़ी है। जून में अमेरिका में महंगाई दर 5.4%, ब्रिटेन में 0.5% और यूरो जोन में 1.9% थी। अमेरिका में जनवरी का आंकड़ा 1.4%, ब्रिटेन में -0.2% और यूरो जोन में 0.9% था। लेकिन उसको काबू में करने के लिए कहीं भी पॉलिसी रेट नहीं बढ़ाया गया।

पॉलिसी रेट बढ़ाने के बजाए जस के तस रखे गए हैं

अमेरिका में फेड रेट (हमारे रेपो रेट जैसा) मार्च 2020 से 0.25% के पास बना हुआ है। ब्रिटेन में पिछले साल जनवरी में यह 0.75% था जबकि अभी यह 0.1% है। यूरो जोन में यह 2016 से जीरो है। आप खुद देख सकते हैं कि विकसित देशों में महंगाई बढ़ी है, लेकिन उसको काबू में रखने के लिए पॉलिसी रेट बढ़ाने के बजाए जस के तस रखे गए हैं।

सरकारी राहत, सेंट्रल बैंकों की लिक्विडिटी और बेस इफेक्ट

2020 में कोविड ने चुपके से समूची दुनिया को अपने चुंगल में फांस लिया। आर्थिक गतिविधियों के बंद होने से ग्लोबल इकोनॉमी धड़ाम से गिरी तो महंगाई भी घटी। ऐसे में सबका ध्यान इकोनॉमी को सपोर्ट देने पर आ गया। सरकारों ने राहत की झोली खोल दी और सेंट्रल बैंकों ने लिक्विडिटी की बाढ़ ला दी। फिर बेस इफेक्ट और रिकवरी के चलते धीरे-धीरे महंगाई बढ़ने लगी।

सबने महंगाई में उछाल को नजरअंदाज कर दिया

लेकिन अमेरिकी फेड रिजर्व, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और बैंक ऑफ इंग्लैंड, सबने महंगाई में उछाल को नजरअंदाज कर दिया। उन सबके और IMF के हिसाब से भी महंगाई में हालिया उछाल क्षणिक है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि वे ऐसा कर क्यों रहे हैं। इसकी कई वजहें हो सकती हैं:

पहली बात, उन्हें तो महंगाई बढ़ने से खुशी हो रही है। ज्यादातर विकसित देशों में महंगाई अरसे से दो पर्सेंट के टारगेट से कम रही थी, जिसके चलते वहां सेंट्रल बैंकों की कड़ी आलोचना हो रही थी। आलोचकों का कहना था कि इसके चलते उपभोक्ताओं को खपत और उत्पादकों को उत्पादन के लिए प्रोत्साहन नहीं मिल रहा।

लेकिन यह एक तरह का विरोधाभास है क्योंकि इंडिया में तो रिजर्व बैंक से यही उम्मीद की जाती है कि वह महंगाई को बढ़ने से रोकेगा। अमेरिका में तो ऐसा होता रहा है कि जब महंगाई दो पर्सेंट से नीचे जाती है तो एवरेजिंग के लिए कुछ तरकीब लगाकर उसे ऊपर आने दिया जाता है।

दूसरी बात, विकसित देशों में इकोनॉमी और ग्रोथ, दोनों अब भी कमजोर है। बेरोजगारी दर कोविड से पहले वाली हालत में नहीं आ पाई है। इसलिए जरूरी है कि सेंट्रल बैंकों की मौद्रिक नीति उदार बनी रहे।

तीसरी बात, विदेश में भी महंगाई भारत की तरह ही आपूर्ति में रुकावट आने की वजह से बढ़ी है। हालांकि टीकाकरण बढ़ने और इकोनॉमिक एक्टिविटी के सामान्य होने से आपूर्ति बेहतर हो रही है।

चौथी बात, महंगाई बढ़ाने में कमोडिटी इनफ्लेशन का अहम रोल रहा है। इंडिया की तरह अमेरिका में भी कोर इनफ्लेशन (फ्यूल और फूड आइटम बिना) बढ़ा हुआ है। लेकिन बाकी विकसित देशों और क्षेत्रों में ऐसा नहीं है।

पांचवीं बात, महंगाई ज्यादा होने की वजह बेस इफेक्ट भी है। यह स्थिति कोविड के चलते बनी थी। यह बात IMF ने अपने 21 जुलाई के आउटलुक में कही थी।

छठा अहम पहलू महंगाई बढ़ने की उम्मीदों से जुड़ा है। अमेरिका में महंगाई बढ़ने की उम्मीदें टारगेट तक जाकर रुक जाती हैं। यूरोप और ब्रिटेन में भी कुल मिलाकर ऐसी ही स्थिति है। लेकिन, अगर महंगाई ऊंचे लेवल पर बनी रही तो आने वाले समय में उसके और ऊपर जाने की उम्मीदें बढ़ेंगी। ऐसा होने पर सेंट्रल बैंकों की चिंताएं बढ़ जाएंगी।

उभरते और विकासशील देश हुए महंगाई के आदी

लगे हाथ EDC यानी उभरते और विकासशील देशों की भी बात कर लेते हैं। महंगाई वहां भी बढ़ी है, लेकिन फूड इनफ्लेशन के चलते उनके यहां ऐसी स्थिति लंबे समय से बनी रही है। दूसरी बात, उनकी नजर हमेशा विकसित देशों पर रहती है।

2013 में US के रेट बढ़ाने से मची थी उथल-पुथल

कुल मिलाकर बात यह है कि विकसित देशों में महंगाई के साथ महंगाई की उम्मीदें बढ़ीं और इंटरेस्ट रेट भी बढ़ा तो EDC से विदेशी पूंजी का निकलना शुरू हो जाएगा। 2013 में जब बेन बर्नांकी ने ऐसा किया था तब EDC बाजारों में उथल-पुथल मच गया था।