ज्ञानवापी पर आए फैसले के बाद मुसलमान कहां पर करें इंसाफ की तलाश

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(www.Arya Tv .Com) वाराणसी का ज्ञानवापी एक बार फिर से चर्चा में है. इलाहाबाद हाइकोर्ट ने फैसला सुनाया है कि वाराणसी के जिला अदालत ने व्यास जी के तहखाने में पूजा करने का जो फैसला किया है वो बिल्कुल सही है. बाबरी मस्जिद को लेकर कोर्ट द्वारा जो फैसला लिया गया था, उसके बाद ज्ञानवापी पर जो फैसला है, उनको देखते हुए एक समुदाय और उसके नुमाइंदों में असंतोष है कि जुडिशियरी अपना काम ईमानदारी के साथ नहीं कर रही है. हालांकि, हिंदू पक्ष का कहना है कि कोर्ट का जो भी फैसला है, उसका सम्मान होना चाहिए.

कोर्ट जल्दबाजी में दे रही फैसले

इस तरह के फैसले जल्दबाजी में लिए गए है. चाहें मस्जिद के सर्वे का फैसला हो, मस्जिद में पूजा करने का आदेश देने का फैसला हो, या शिवलिंग को वजूखाने में ढूंढने का फैसला हो, ये सभी चीजें बहुत जल्दबाजी में की गई है. इससे भी अधिक सोचने वाली बात यह है कि आखिर जुडिशियरी द्वारा इस तरह का फैसला इतनी जल्दबाजी में क्यों लिया जा रहा है? न्यायालय के बारे में पहले हमें एक बात तय थी कि इंसाफ मरता नहीं है. लेकिन बाबरी मस्जिद के 2017 के फैसले के बाद से इंसाफ को मरते हुए देखा जा सकता है. बाबरी मस्जिद का फैसला बहुत लंबे समय तक चला और जब कोर्ट ने फैसला सुनाया तो मुख्य चार बातें कहीं. पहली बड़ी बात यह कही की हमें ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जिससे यह पता चले कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई है.

जो लोग 100 साल से यह चिल्ला रहे थे कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनी है, कोर्ट ने उन्हें करारा जवाब दिया. उसके बाद से यह कहा कि 1949 में जो मूर्तियां रखी गई वो चोरी से रखी गईं. 1992 में बाबरी मस्जिद को अवैध तरीके से तोड़ा गया, जो लोग जूलूस में शामिल थे उन लोगों पर कार्रवाई होनी चाहिए, ये चार बातें मुख्य रुप से कोर्ट ने कहीं. फिर भी कोर्ट ने यह कहा कि मेरा जो विशेषाधिकार है, मैं उस विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए ये जगह राम मंदिर को दे रहा हूं. जब कोर्ट ने यह कह दिया कि बाबरी मस्जिद तोड़कर नहीं बनी तो जमीन राम मंदिर को देने का क्या अर्थ है? कहा जा सकता है कि जो लोग जुडिशियरी में बैठे हैं, उन्हें राम भगवान पर आस्था है, वो अपनी आस्था के खिलाफ कैसे फैसला दे सकते है. ज्ञानवापी में जो कुछ भी हो रहा है वो भी आस्था के नाम पर ही किया जा रहा है. इसलिए सारे फैसले जल्दबाजी में लिए जा रहे है.

न्यायालय तो दिखाएं निष्पक्षता

जिस सुप्रीम कोर्ट के जज ने यह फैसला सुनाया, उसे बीजेपी की सरकार राज्यसभा में ले आई. यानी कि राज्यसभा में लाकर बाबरी मस्जिद का फैसला सुनाने का ईनाम दिया गया. यदि जज फैसला सुनाने में ईमानदार थे तो उन्हें राज्यसभा नहीं लेनी चाहिए थी. उन्हें यह कहना चाहिए था कि साहब मैनें अपना काम ईमानदारी से किया है इसलिए मैं इसपर किसी प्रकार की रिश्वत नहीं चाहता, लेकिन उन्होंने लिया और वो राज्यसभा में है. इसका साफ-साफ अर्थ है कि फैसला पक्षपात था. जो जज ईमानदारी से फैसला सुनाते है वो कभी भी अपने रिटायरमेंट के बाद सरकार से ईनाम नहीं चाहते.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बाबरी मस्जिद को लेकर जो फैसला सुनाया था वो यह था कि रिपोर्ट से यह साबित हो गया है कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनी है और यह फैसला सुनाया कि जगह को आधा-आधा कर दिया जाए. उसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई हो, हमें ऐसा कोई सबूत नहीं मिला. इलाहाबाद कोर्ट के फैसले को सही मानें या सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही मानें जिसने कहा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद नहीं बनी और फिर भी राम मंदिर बनाने के लिए जहग दे दी. किसे सही माना जाए और किससे इंसाफ की मांग की जाए समझना मुश्किल है.

प्रधानमंत्री कर रहे विशेष धर्म के लिए काम

क्या संविधान यह कहता है कि आप धर्म विशेष के लिए काम करें. संविधान यह कहता है धर्मनिरपेक्ष रहेंगे और किसी धर्म के लिए काम नहीं करेंगे. पहले सरकार का काम लोगों को रोजी-रोटी, रोजगार, स्वास्थ्य और चिकित्सा का लाभ देना था, अब सरकार मंदिर देने का काम कर रहीं है, मस्जिद-मजार को तोड़ने का काम कर रही है., मुसलमानों के खिलाफ बिल लाने का काम कर रही है, कहीं न कहीं मुसलमानों को सताने का काम रह गया है, इन सभी कार्यों को सरकार ने अपने जिम्में में लिया है. बैठकर बात करने का मामला तब तय हो सकता है जब सामने वाला पक्ष ये कहे कि कुछ मैं छोड़ता हूं, कुछ आप छोड़ें, तब जाकर बैठ कर बात किया जा सकता है.

जब सामने वाला पक्ष यह कहें कि ये जगह मुझे दे दो तो मुसलमान पक्ष कैसे बैठेगा. जो झूठ इनके द्वारा बाबरी मस्जिद के लिए बोला गया है वही झूठ ज्ञानवापी मस्जिद के लिए भी बोल रहे है कि मंदिर को औरंगजेब ने तुड़वाई थी, जबकि मस्जिद का इतिहास अकबर के पहले का है. अकबर द्वारा जब दीन-ए-इलाही की शुरुआत की गई तब इस मस्जिद को अकबर ने अपना हेडक्वार्टर बनाया. दीन-ए-इलाही चार धर्मों का मिश्रण था. इसलिए अकबर ने अपने हेडक्वाटर में चारों धर्मों के चिह्न लगा लिए. आज जो निशान देखने को मिल रहे हैं, वो दीन-ए-इलाही के चिह्न हैं न कि हिन्दू धर्म के. जिस तरह से आज के समय में हमारे देश का जुडिशियरी सिस्टम या देश का सियासी सिस्टम चल रहा है, वो दिन दूर नहीं है जब इस देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है.

भारत का संविधान खतरे में

भारत देश कहीं न कहीं टूटने की कगार पर भी जा सकता है. जिस तरह से धरने पर बैठे किसनों को खालिस्तानी कह देते है, मुस्लिमों को पाकिस्तानी कह देते है, इससे जाहिर सी बात है कि गृहयुद्ध हो सकता है. यदि कोई हिंदू यह कहता है कि हम भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते है तो उसपर किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं होती, लेकिन मुस्लिम यह कह दें कि हम मुस्लिम राष्ट्र बनाना चाहते है तो उसपर कार्रवाई की जाती है और उसे आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है. यदि हिंदू अपनी आस्था के हिसाब से भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते है या देखना चाहता है तो मुसलमान भी तो अपनी आस्था के अनुसार एक इस्लामिक मुल्क के रूप में देश चाह सकता है. संविधान में सभी को अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने की एक समान इजाजत दी गई है. किसी के लिए संविधान अलग नहीं है. संविधान को तोड़ने का काम किया जा रहा है, यह भी हो सकता है कि 2024 के बाद हमारे देश का संविधान न बच पाए.