खामोशी से लड़ी एक लंबी लड़ाई

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(www.arya-tv.com) कोरोना वायरस ने दुनिया में ऐसी त्रासदी पैदा की जो न तो देखी गई और न सुनी गई। देश भर में करोड़ों लोग घरों में बंद हो गए और उनका काम-धंधा लगभग ठप हो गया लेकिन ऐसे अभूतपूर्व संकट काल में भी इस देश की महिलाओं ने अपना हौसला और जज़्बा दिखाया। उन्होंने अपने परिवार की ही नहीं बल्कि अपने समाज और देश के लिए अपनी परवाह किये बगैर अतुलनीय कार्य किये, जिनकी मिसाल मिलनी मुश्किल है।

इनके जज़्बे और संघर्षशीलता की कहानियां कोरोना के शोर में कुछ कम सुनाई पड़ रही हैं लेकिन उनके काम की सराहना भी जानने वाले कर रहे हैं। वे न केवल कोराना वायरस से जंग में जी-जान से हिस्सा ले रही हैं बल्कि और दूसरी बीमारियों के बचाव तथा अन्य इस तरह के कार्यों में भी सक्रियता से हाथ बंटा रही हैं। कई महिलाओं ने तो राज्य सरकारों की मदद का भी काम किया।

देश के कोने-कोने में तैनात महिला स्वास्थ्य कर्मियों ने एक दृढ़ संकल्प दिखाया और मरीजों की तीमारदारी में जुट गईं। उन्होंने चौबीसों घंटे मेहनत की और जान पर खेलकर लोगों की रक्षा की। कई डॉक्टर और नर्सें तो अपनी जान से हाथ धो बैठीं लेकिन उनका जज्बा है कि कम नहीं हो रहा है और वे आज बिना रुके हुए अपनी ड्यूटी निभा रही हैं।

यहां यह उल्लेखनीय है कि देश के कुल स्वास्थ्य कर्मियों में 85 प्रतिशत महिलाएं ही हैं और यह उनका जज़्बा ही है कि लाखों की तादाद में मरीजों का इलाज हो रहा है। आशा वर्कर्स ने तो देश के कई हिस्सों में घर-घर जाकर कोरोना का सर्वे किया जो बहुत जोखिम भरा काम है क्योंकि हर कदम पर संक्रमित हो जाने का खतरा है।

स्वास्थ्य कर्मियों को कितना वेतन मिलता है, यह सभी जानते हैं लेकिन उनके सामने जो खतरा मंडराता है, उसके बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। लोग यह भी नहीं जानते कि उन्हें कितना कम वेतन मिलता है और कितनी कम सुविधाएं मिलती हैं लेकिन वे निरंतर काम करती रहीं।

कई ऐसे भी मामले आए कि उन्हें उनके आवास में बीमारी के डर से घुसने नहीं दिया गया। फिर भी उन्होंने हौसला बनाए रखा और आज भी वे तन्मयता से काम कर रही हैं, अपने बच्चों तथा परिवार को देख रही हैं और मरीजों को भी। सोनीपत की सुनीता बच्चों को सप्लीमेंट देने और बीमारों को दवा देने का काम मार्च से ही कर रही हैं। बिना पर्याप्त सुविधा के वह हर रोज यह काम कर रही हैं।

बिहार के औरंगाबाद जिले के नबीनगर की निवासी और नर्स-मिडवाइफ मुन्नी बाला ने तमाम कठिनाइयां झेलते हुए लॉकडाउन के दौरान जब सरकारी अनुमति मिली तो शिशुओं के टीकाकरण कार्यक्रम को फिर से शुरू किया। इसके लिए हर दिन उन्हें 20 से 24 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ती थी। उन्होंने साइकिल चलाना सीखा और यूनिसेफ तथा डब्ल्यूएचओ के निर्देशन में बंद पड़े टीकाकरण को शुरू करवाया।

अब स्थिति यह है कि टीकाकरण का 98 प्रतिशत लक्ष्य पूरा हो पा रहा है। मुन्नी बाला की तरह ही गया जिले की नेम्हर मिंज ने मई की चिलचिलाती धूप में टीकों के कोल्ड चेन को बरकरार रखा और उन्हें थर्मस में रखकर वह मीलों दूर टीका केन्द्र पर पहुंचती रहीं। भयंकर गर्मी में बर्फ न पिघले और टीका निर्धारित तापमान पर रहे, उन्हें इसका ध्यान रखना पड़ता था।

मध्य प्रदेश की ज्योति बाला झनिया लॉकडाउन के दौरान टीकाकरण के काम में लगना चाहती थीं लेकिन प्रशासन ने शुरू में इसकी अनुमति नहीं दी पर मई में अनुमति मिलते ही वह इस काम में हाथ बंटाने लगीं। असम की मिनोती नाथ और बंगाल की ऋतुपर्णा और प्रतिमा मंडल के साथ भी ऐसी ही समस्याएं थीं लेकिन वे अनुमति मिलते ही टीकाकरण के अधूरे लक्ष्य को पूरा करने में लग गईं। ट्रांसपोर्ट की कोई बेहतर व्यवस्था न होने के बावजूद वे अपने गंतव्य पर समय से पहुंचकर इस मिशन को अंजाम देती रहीं।

उत्तराखंड में महिलाओं ने लॉकडाउन के दौरान बिजली के बिल वसूली में सरकार का साथ दिया। दरअसल वहां बड़ी तादाद में लोग बिजली के बिल नहीं दिया करते थे और कई तो चोरी भी करते थे, जिससे बिजली बोर्ड को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इससे करोड़ों रुपए का राजस्व मिल रहा है और वहां बिजली की चोरी भी रुकी। इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन से जोड़ा गया है।

दिल्ली में लॉकडाउन के दौरान हजारों महिलाओं ने अपने-अपने घरों में मास्क बनाकर न केवल समाज की सेवा की बल्कि घर के लिए रोजी-रोटी का इंतज़ाम भी किया। कई तो ऐसी थीं जिनके पतियों की नौकरी छूट गई थी और घर चलाने का कोई इंतज़ाम नहीं था। लॉकडाउन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में पुलिस और सुरक्षा बलों में काम करने वाली महिलाओं ने कोरोना वायरस के खतरे के बावजूद पूरी तत्परता से अपनी ड्यूटी निभाई और मरीजों की मदद की। इनमें से कुछ तो बीमार होकर गुजर भी गईं। कोरोना काल में देश को संकट से उबारने में उनकी भूमिका वर्षों तक याद रखी जाएगी।

मधुरेन्द्र सिन्हा