खुद की जीवन कर दी बच्चों के नाम, ये जोकर लड़की

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(www.arya-tv.com) मैंने बचपन में सर्कस देखा। जोकर भी देखे लेकिन कभी कोई लड़की जोकर नहीं दिखी।लड़कियों पर चुटकुले तो बन सकते हैं लेकिन वे चुटकुले नहीं सुना सकतीं। सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर जब अस्पतालों के लिए जोकर का काम चुना, तो परिवार समेत दोस्त-यार सब नाराज हुए। ये बात है साल 2016 की।एक पूरा साल मैंने सेविंग्स पर निकाला। बैंक अकाउंट ज़ीरो में जा रहा था और बीमार बच्चों को गुदगुदाने का मेरा सपना ऊपर। पढ़िए दिल्ली की शीतल अग्रवाल की कहानी, उन्हीं की जुबानी।

जब मेडिकल क्लाउनिंग यानी अस्पताल में जोकर का काम करने का इरादा किया, दिल्ली-मुंबई में किसी ने नाम नहीं सुना था। विदेशों में ये काफी लोकप्रिय है। मुझे सरकारी अप्रूवल चाहिए था। सबसे पहले हेल्थ मिनिस्ट्री को चिट्ठी लिखी। कुछ हफ्तों बाद मीटिंग के लिए बुलावा आया। सवाल ही सवाल थे और पूछनेवालों के चेहरों पर ठंडा-सा भाव मानो वे पहले ही नतीजा जानते हों। जैसे-जैसे मैंने जवाब देना शुरू किया, भाव बदलते चले गए। मैं पूरी तैयारी के साथ गई थी। रिसर्चर होना यहां काम आया। उनकी हां के बाद मुझे पहला सरकारी अस्पताल मिला- चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय। मुलाकात के बाद वहां प्रयोग की तरह इजाजत मिल गई लेकिन शर्त थी कि अकेले नहीं, जोकरों का पूरा जत्था होना चाहिए। मैंने फेसबुक पर लिखा। 33 लोगों ने हां कहा और आखिर में मुझे मिलाकर कुल 5 लोगों ने अस्पताल में पहली परफॉर्मेंस दी।

लोग लगातार टोकते रहते कि अच्छी-खासी लड़की हो। जोकर मत बनो। नौकरी तो गई, कोई रिश्ता भी नहीं मिलेगा। ये कहने वाले शायद ही अंदाजा लगा सकें कि अस्पताल के ठंडे, उदास कमरे में एक बीमार बच्चे के सामने हंसना कितना मुश्किल है। लेकिन बॉल उठाने की कोशिश में बार-बार गिरते जोकर को देख वही बच्चा हंस दे तो जो सुकून मिलता है, वो हर मुश्किल भुला देता है। ये भी एक लड़की अपने-आप में जोकर है, वो जोकर का पेशा नहीं चुन सकती!

जब पहली बार बच्चों से मिले
अस्पताल का स्टाफ घबराया हुआ था कि हम हल्ला-गुल्ला मचाएंगे, बच्चे तंग होंगे। हमने ताने सुनते हुए मेकअप किया। चेहरे पर कई रंगों का पेंट लगाया। गालों में गहरा लाल रंग गोल-गोल पोतकर उसपर स्माइली बनाई। अलग-अलग रंगों की नाक लगाई। किसी ने विग पहना तो किसी ने बालों की ढेर की ढेर चोटियां गूंथ लीं। जोकर के काम की प्रैक्टिस की। कठपुतलियां साथ रखीं और खूब सारे बॉल्स, गुब्बारे और दूसरे खिलौने।

हम बच्चों के वॉर्ड में घुसे। घुसते ही कुछ पलों के लिए जैसे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। कमरे में तो मौत का इंतजार हो रहा था और जाने कहां से रंगीन पुतले आ टपके! सबके मुंह खुले हुए थे। हम बेआवाज नाच रहे थे। हंस रहे थे, रोने की एक्टिंग कर रहे थे।

बच्चों की हंसी और मांओं के आंसू हमारा इनाम थे
आखिर-आखिर के वक्त तक बच्चों के चेहरे बदलने लगे। वे मुस्कुरा रहे थे। कुछ खिलखिलाने लगे। एक बच्चा हाथ मिलाने आया मैंने चट से हाथ हटा लिया, ये कहते हुए कि हाथ तो मिल ही नहीं पा रहा। बच्चा हाथ मिलाने के उछल-कूद मचाने लगा। बहुत दिनों बाद उस बच्चे के घरवालों ने उसे हंसता देखा था। पांच घंटे बीते- बच्चे हंस रहे थे और सारी मांओं की आंखें गीली थीं। यही करते हुए अब इतना वक्त हो गया।

कई बार अकेले परफॉर्म करना पड़ जाता है। लड़की को जोकर देखकर पूरा आसपास फुसफुसाहटों से भर जाता है। झिझक होती है लेकिन जैसे ही नाक चिपकाती हूं, जोकर ही रह जाती हूं। जोकर के नाते मेरे पास छूट भी है, जैसे बुरा लगे तो जीभ चिढ़ाना। मैं यही करती हूं। गुस्सा भी निकल जाता है और जोकर का काम भी हो जाता है।

हॉस्पिटल में जाने के कायदे
अस्पताल जाने के लिए हमने कई नियम बना रखे हैं। जैसे एक है ‘नो-टच रूल’। यानी हम बच्चों से हाथ मिलाने के अलावा उन्हें कहीं भी छू नहीं सकते। ये उन्हें इंफेक्शन से बचाने के लिए है। चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज भी बड़ी वजह है। कहीं ऐसा न हो कि अच्छा काम करने की कोशिश में हमसे जाने-अनजाने कुछ बुरा हो जाए। दूसरा कायदा है वॉल्यूम कंट्रोल। हम बेआवाज गाते हैं। कोशिश रहती है कि सिर्फ बच्चों की हंसी गूंजे, हमारा शोर नहीं। ढेर सारी उछलकूद करते हैं।

जोकर की खासियत उसके फेल होने और हार न मानने में है। तो हम भी यही करते हैं। जो भी काम करें, उसमें कोई न कोई गड़बड़ कर देते हैं। चलते हुए गिरना और हंसते हुए रो देना- ये कोशिश काफी मेहनत मांगती हैं।