यादों के आईने में मोहम्मद रफ़ी :आज तेंतालीस्वी पुण्यतिथी

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(www.arya-tv.com)  अभी ना जाओ छोड़कर…..पुकारता चला हूं मैं……क्या हुआ तेरा वादा… लिखे जो खत तुझे…….ये एवरग्रीन गाने हैं लीजेंड्री सिंगर मोहम्मद रफी के। मोहम्मद रफी आज लीजेंड्री न होते अगर 1933 में लाहौर की नाई की दुकान में पंडित जीवनलाल की नजर 9 साल के नाई फिक्को (मोहम्मद रफी) पर ना पड़ती।

31 जुलाई 1980 को आज से ठीक 43 साल पहले किंग ऑफ मेलोडी मोहम्मद रफी दुनिया से रुख्सत हुए थे। चाहने वालों की तादाद ऐसी थी कि रफी के अंतिम संस्कार में 10 हजार से ज्यादा लोग पहुंचे थे। भारत सरकार ने इनके निधन पर दो दिनों का सार्वजनिक शोक अनाउंस किया था।

रफी साहब खुद भी रियाज किया करते

मोहम्मद रफी का जन्म 24 दिसम्बर 1924 को कोटला सुल्तान सिंह, अमृतसर में हुआ था। 6 भाई-बहनों के परिवार में रफी दूसरे सबसे बड़े भाई थे। इन्हें घर में सब प्यार से फिक्को बुलाया करते थे। रफी एक रूढ़ीवादी परिवार का हिस्सा थे, जहां नाच-गाने पर पाबंदी थी, लेकिन रफी अलग थे।

गांव की गलियों में गाना गाते हुए एक फकीर को देखकर रफी ऐसे प्रभावित हुए कि रोजाना उसे सुनने का इंतजार करते थे। उस फकीर की नकल उतारते हुए रफी साहब खुद भी रियाज किया करते थे।

9 साल की उम्र में रफी का परिवार लाहौर शिफ्ट हो गया था। रफी को कभी पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं थी, तो उनके पिता ने उन्हें बड़े भाई के साथ खानदानी नाई की दुकान में लगा दिया। 9 साल के रफी नूर मोहल्ले के भाटी गेट की दुकान पर नाई बन चुके थे।

गुनगुनाते हुए बाल काटते थे रफी साहब

1933 की बात है जब पंडित जीवनलाल बाल कटवाने पहुंचे। रफी यहां काम करते हुए अमृतसर स्टाइल में वारिस शाह का हीर गुनगुना रहे थे। इस आवाज में एक जादू था, जिसने जीवनलाल को प्रभावित किया। जीवनलाल ने रफी को ऑडीशन के लिए बुलाया, जिसे उन्होंने आसानी से पार कर लिया। जीवनलाल ने ही उन्हें पंजाबी संगीत की ट्रेनिंग दी और रफी गायिकी में माहिर होते चले गए।

13 साल की उम्र में पहली बार दी पब्लिक परफॉर्मेंस

1937 में रफी ने महज 13 साल की उम्र में ऑल-इंडिया एक्जीबिशन, लाहौर में पहली पब्लिक परफॉर्मेंस दी। ये मौका उन्हें संयोग से मिला था। दरअसल स्टेज पर बिजली ना होने पर उस जमाने के पॉपुलर सिंगर कुंदनलाल सहगल ने स्टेज पर गाने से इनकार कर दिया। ऐसे में आयोजकों ने रफी साहब को परफॉर्म करने के लिए कहा।

खाने के शौकीं थे रफ़ी

रफी साहब एक शो के लिए ब्रिटेन के कोविंट्री पहुंचे थे। यहां खाना रफी साहब की पसंद का नहीं था, तो उनका मिजाज खराब हो गया। वहीं मिलने पहुंचे बेटे और बहू से रफी साहब ने पूछा कि यहां से लंदन कितना दूर है। जवाब मिला, सिर्फ 3 घंटे। रफी साहब ने तुरंत बेटी यास्मीन को कॉल किया और कहा क्या तुम घंटे भर में दाल-चावल और चटनी पका सकती हो। बात बनी तो रफी साहब तुरंत गाड़ी से लंदन रवाना हो गए। भारतीय खाना खाया और दोबारा शाम 7 बजे तक ब्रिटेन लौट आए। लोगों के उनके अचानक होने का कारण जाना तो हर कोई हैरान रह गया।

31 जुलाई 1980 को रात करीब 10ः25 बजे मोहम्मद रफी ने हार्ट अटैक से दम तोड़ दिया। अगली सुबह इन्हें जुहू के कब्रिस्तान में दफनाया गया। उनके अंतिम दर्शन में करीब 10 हजार लोग शामिल हुए थे। भारत सरकार ने रफी के निधन पर दो दिनों का सार्वजनिक शोक अनाउंस किया था।

गाना सुनने बैठे दर्शकों में के एल सहगल भी थी, जिन्होंने कहा था, ये लड़का एक दिन बड़ा गायक बनेगा। डायरेक्टर श्याम सुंदर की मदद से रफी फिल्मों में आए। पहला गाना रहा गल बलोच फिल्म का परदेसी..सोनिए ओ हीरिए। लगातार गाने गाते हुए रफी खूब नाम कमा रहे थे।