(www.arya-tv.com) आपने छेद वाली बांसुरी तो बहुत देखी ही होगी। आज हम आपको बिना छेद वाली बांसुरी से रूबरू कराएंगे जो बांसुरी की तरह ही सातों सुर निकालती है। छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले से आई यह खास तरह की बांसुरी लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। फूंकने पर तो यह बजती ही है, साथ ही जब इसे घुमाया जाता है तो भी यह मन को सुकून देने वाली सुरीली धुन निकालती है।
गोंडी नृत्य में आज भी की जाती है उपयोग
छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के सिरसिकलार गांव के ट्राइबल समुदाय से ताल्लुक रखने वाले शिल्पकार मुन्नालाल सोढ़ी ने बताया कि प्रयागराज के राष्ट्रीय शिल्प मेले में उन्होंने पहली बार शिरकत की है। उन्हें यूपी सरकार ने बुलावा भेजा था। आयरन क्राफ्ट के माध्यम से तरह तरह के दीपक और घर की दीवारों पर तरह तरह की पेंटिंग तैयार करने वाले मुन्नालाल सोढ़ी ने बताया कि यह बांसुरी आज भी गोंडी नृत्य में महिलाएं और पुरुष उपयोग करते हैं। उन्होंने जबसे होश संभाला है तबसे यह बांसुरी देखते आए हैं। कई पीढ़ियों से इस खास तरह की बांसुरी को तैयार किया जाता है।
बताते हैं कि पहले जंगल में शेर, चीता, और भालू पाए जाते थे, लेकिन बांसुरी घुमाने पर वे आपसे दूर रहते थे। बांस के इस वाद्ययंत्र को ‘घुमाने वाली बांसुरी’ भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी भाषा में इसे सुकुड बांसुरी भी कहा जाता है। इसमें मुंह नहीं होता है, बस दो छेद एक ऊपर और एक नीचे होते हैं, और बजाने के लिए इसे हवा में घुमाना पड़ता है।
हवा में घुमाने पर निकलते हैं सुर
मुन्नालाल सोढ़ी ने बताया कि इसे हवा में घुमाने पर तरह तरह के सुर निकलते हैं। थोड़ा अभ्यास से सातों सुर इस बांसुरी से निकाले जा सकते हैं। इस बांसुरी में छेद नहीं है, जिसे उंगलियों से बंदकर सुर निकाला जाता है। यह बांसुरी गोंडी गाने और परंपरागत नृत्य का अभिन्न अंग है। गोंडी गाने में औरतें इस बांधुरी का परंपरागत नृत्य में उपयोग करती हैं।
एक्सरसाइज और संगीत का भी लुत्फ
मुन्नालाल ने बताया कि इसकी लोकप्रियता लोगों में बढ़ाने के लिए इसका मूल्य केवल 500 रुपये रखा है। इसे घर में सजावट में भी उपयोग किया जा सकता है और मार्निंग वॉक में डंडे का काम करता है और घुमाने पर सुरों के बीच सैर का भी मजा लिया जा सकता है। इसे आप जितना और जितनी तरह से घुमाएंगे यह उतनी की धुन आपको सुनाएगी। यह बांसुरी डांस के दौरान भी प्रयोग की जा सकती है।
पीढ़ियों से चला आ रहा हुनर
मुन्नालाल ने बताया कि उनकी यह चौथी पीढ़ी है जो परंपरागत वाद्ययंत्र बांसुरी को तैयार कर रही है। यह बांसुरी केवल बांस (गोंडी में वद्दूर) और तीन तांबे के छेद वाले सिक्कों से तैयार की जाती है। बांस को पहले पानी में भिगोया जाता है। फिर उसे निकालकर सुखाया जाता है। इसके बाद इसे गरम करके हाथ से उसमें डिजाइन बनाई जाती है। किसी भी प्रकार का केमिकल का प्रयोग नहीं किया जाता है। फिर पानी में डुबोया जाता है। इसके बाद सुखाकर एक सिरे पर तांबे के तीन सिक्कों को शहद और महुए से बने लेप से चिपकाया जाता है। तीनों सिक्कों के बीच गैप सबसे महत्वपूर्ण रोल अदा करता है। मुन्नालाल बताते हैं कि अगर सिक्कों का गैप जरा सा गड़बड़ हुआ तो फिर धुन नहीं निकल पाती है। एक बांसुरी को तैयार करने में दो दिन का समय लगता है।
शादी-बारात, देवी-दुर्गा में होता है उपयोग
मुन्नालाल सोढ़ी ने बताया कि छत्तीसगढ़ में इस बांसुरी को शादी, बारात, देवी और दुर्गा में उपयोग किया जाता है। अभी तक इसका कॉमर्शियल उपयोग नहीं होता था। यूपी सरकार की पहल पर मैं पहली बार प्रयागराज के शिल्प मेले में आया हूं। इन परंपरागत चीजों को लेकर लोगों में आज क्रेज बढ़ रहा है इससे खुशी है।