चुनौतियों से मुकाबले में खलेगी आबे की कमी

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अश्विनी कुमार
जापान के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे शिंज़ो आबे ने बीती 28 अगस्त को स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा दे दिया। काफी सालों से वे बड़ी आंत में सूजन की बीमारी से ग्रस्त हैं। जापान की सेवा करने में अपना सर्वश्रेष्ठ देने को उन्होंने खुद को उस वक्त असमर्थ पाया जब मुल्क को कोविड-19 महामारी समेत अनेकानेक मुश्किलों का सामना कर पड़ रहा है, इसके अलावा चीन से पैदा होने वाला तनाव चरम पर है। स्वास्थ्य कारणों से उन्होंने दूसरी मर्तबा पद छोड़ा है। इससे पहले सितंबर, 2007 में भी उन्होंने इस्तीफा दिया था। उन्हें यह काम कोई एक महीना पहले अगस्त में की सफल भारत यात्रा के तुरंत बाद करना पड़ा था।

प्रधानमंत्री आबे के साथ मेरा राब्ता उस वक्त बना था जब उनकी भारत यात्रा के दौरान मुझे बतौर सहयोगी-मंत्री नियुक्त किया गया था। इस हैसियत में मैं उनके साथ भारत की भूमि पर कदम रखने से लेकर विदाई तक साथ रहा था, इसलिए उनको नजदीक से जानने का मौका मिला था। शिंज़ो आबे ने बचपन में अपने दादाजी नोबुसूके किशी, जो जापान के प्रधानमंत्री रहे थे, के मुंह से वर्ष 1957 की भारत यात्रा के किस्से सुने थे और जाना था कि कैसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने एक विशाल स्वागत जनसभा में उनका परिचय भारतीय लोगों से करवाया था। यह आयोजन उस वक्त विदेशी मेहमानों को भारत द्वारा दिए गए सबसे भव्य सम्मान समारोहों में से एक था। छुटपन की यादों में दादाजी की बताई स्नेहपूर्ण भारतीय मेहमाननवाजी की बातें शिंज़ों के चित्त में भारत के प्रति विशेष भावनात्मक संबंध रखने की एक वजह रही हैं और यह भाव वर्ष 2007 में भारतीय संसद में दिए गए उनके यादगारी संबोधन में साफ झलक रहा था।

उस यात्रा के दौरान भी प्रधानमंत्री आबे उसी बीमारी से ग्रस्त थे, जो आज भी जारी है, और इसी के चलते मसरूफियत से भरे कार्यक्रमों की सूची में एक के बाद एक होने वाली बैठकों के मध्य कुछ देर उनको आराम देने का प्रावधान रखा गया था। उनके चेहरे के भावों से मैं देख सकता था कि कितनी पीड़ा और असहजता से वे गुजर रहे थे। लेकिन साथ आई पत्नी की देखभाल उनके लिए मरहम और राहत का काम करती थी।

दिल्ली पहुंचने पर प्रधानमंत्री आबे को राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में गॉर्ड-ऑफ-ऑनर दिया गया था। आबे दंपति के साथ कार में सफर करते हुए मैंने पाया कि श्री आबे भारत द्वारा अपने स्वागत में दिखाई भव्यता और भावभीने आदर से किस कदर अभिभूत हो उठे थे। इस यात्रा के मुख्य आकर्षणों में एक था 22 अगस्त को संसद के केंद्रीय कक्ष में दोनों सदनों के संयुक्त सत्र को किया गया उनका संबोधन। इसका शीर्षक था ‘दो सागरों का संगमÓ, इसमें प्रधानमंत्री आबे ने ‘बृहद एशियाÓ बनाने की अपनी परिकल्पना का विवेचन किया था। उनके जोरदार भाषण का इतना गहरा असर हुआ था कि समारोह उपरांत जब उन्हें केंद्रीय कक्ष से बाहर लाया जा रहा था तो सांसदों में उनके साथ हाथ मिलाने की उस वक्त होड़ लग गई थी।

लेकिन जापान लौटने के बाद जल्द ही प्रधानमंत्री आबे ने 26 सितंबर, 2007 को स्वास्थ्य कारणों से त्यागपत्र सौंप दिया था। टेलीविजन पर उनके इस्तीफे की खबर ने मेरे मानस पर अमिट छाप छोड़ी थी। भावविह्लल करने वाले दृश्य में जापान का सबसे ताकतवर राजनीतिक व्यक्तित्व झुककर अपना इस्तीफा पेश कर रहा था। इस नज़ारे ने मेरे अंतस को बहुत गहरे तक छू लिया था।

यहां आबे के रूप में उस विलक्षण नेता का उदाहरण हमारे सामने है, जिसने अंतरात्मा की आवाज पर नि:स्वार्थ दिखाते हुए सत्ता के शीर्ष और वैश्विक ध्यान खींचने वाले अपने पद से किनारा करना चुना था। वर्ष 2007 और 2020 में उनका झुककर इस्तीफा सौंपना हमेशा के लिए जनमानस की यादों में बतौर शालीनता, शुक्राना, विनम्रता और सम्मान का द्योतक रहेगा।

उनके त्यागपत्र से मैं काफी विचलित हो गया था और अपनी आधिकारिक यात्रा के दौरान मैंने टोक्यो में उनसे शिष्टाचार भेंट करने का समय मांगा था। हमारी यह मुलाकात मेरे लिए बहुत भावप्रणव थी और भेंटवार्ता तयशुदा समय से लंबी चली थी। पूर्व प्रधानमंत्री से विदाई लेते वक्त मैंने कहा था कि देश की खातिर आपका फिर से नेतृत्व संभालना नियति में बदा है और यही उन्होंने किया। वर्ष 2012 में शिंज़ो आबे ने एक बार फिर से प्रधानमंत्री पद संभाला था। इस दौरान नई दिल्ली स्थित अपनी रिहायश पर उनकी अगवानी और मेजबानी का सौभाग्य मिला था। वर्ष 2013 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुझे बतौर विशेष दूत जापान में नियुक्त किया था ताकि उस साल दिसंबर माह में तत्कालीन सम्राट एवं साम्राज्ञी की आगामी भारत यात्रा हेतु सुनियोजित प्रबंधन हो सके। इस सिलसिले में मेरा टोक्यो जाना हुआ था और प्रधानमंत्री आबे से मिलकर शाही दंपति के दौरे के बारे में चर्चा हुई थी। उनके चेहरे की मुस्कान से मैं अंदाजा लगा सकता था कि दिल्ली और टोक्यो में हुई हमारी पिछली भेंटों में बनी आत्मीयता बखूबी झलक रही थी।

भारत के साथ सामरिक साझेदारी बनाने को लेकर आबे काफी अनुराग रखते थे और इसको बड़ा आयाम देने में निवेश करना चाहते थे, जिसकी शुरुआत अफ्रीका में भारत-जापान संयुक्त उपक्रमों के जरिए है। वार्ता करते वक्त मुस्कुराते रहना और सर को हामी भरने वाले अंदाज से हिलाकर वे संवाद में गर्माहट और आत्मीयता भर देते थे।

वर्ष 2017 में जापान के तत्कालीन सम्राट ने कृपा करते हुए टोक्यो के राजभवन में आयोजित हुए पुरस्कार वितरण समारोह में मुझे ‘द ग्रैंड कॉर्डन ऑफ द ऑर्डर ऑफ राइजि़ंग सनÓ की उपाधि से नवाज़ा था। हालांकि इस अवसर पर हम दोनों के बीच शब्दों का आदान-प्रदान नहीं हुआ था लेकिन यह साफ दिखाई दे रहा था कि प्रधानमंत्री आबे काफी महत्ता वाला अलंकरण मुझे मिलते देख बहुत खुश थे।

डोकलाम और लद्दाख में हुए चीनी अतिक्रमण ने भारत-जापान के नेतृत्व को आपसी सामरिक साझेदारी बनाने की जरूरत को पुन: सिद्ध कर दिया है। आर्थिक रिश्तों के विषय की बात करें तो वर्ष 2019 में तत्कालीन जापानी राजदूत केनज़ी हिरामत्सु ने मेरे निमंत्रण पर अमृतसर और गृह जिले गुरदासपुर की यात्रा करना स्वीकार किया था ताकि पंजाब के सीमांत जिलों में निवेश की संभावनाएं तलाशी जा सकें। कैप्टन अमरेंद्र सिंह की सरकार ने राजदूत और उनकी पत्नी के लिए बतौर राजकीय अतिथि स्वागत करने और तमाम अन्य इंतजाम किए थे।

मौजूदा समय में जब हमारे जीवनकाल में बनी अभूतपूर्व चुनौतियों से निपटने हेतु संसार को सुयोग्य राजनेताओं की बेहतर जरूरत है, ऐसे में शिंज़ो आबे का बतौर जापानी प्रधानमंत्री अनुपस्थित होना बहुत खलेगा। आबे को अपनी बीमारी से उबरने के लिए शुभेच्छा देते वक्त मुझे इस बारे में जरा भी शुबह नहीं है कि मौजूदा सबसे बड़ी वैश्विक चुनौतियों का सामना करने को शिंज़ो आबे के सुझावों को आगे भी आदर सहित लिया जाएगा। उनके त्यागपत्र को इतिहास में विनम्रता और शालीनता की मिसाल की तरह लिया जाएगा।