जम्मू-कश्मीर में जीतने के लिए पुरानी रणनीति अपना रहे हैं पीएम मोदी

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गुरुवार की शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को संबोधित करते हुए 38 मिनट का भाषण दिया. कूटनीति और राजनीति के लिहाज से देखें तो मोदी का भाषण न तो भारत भर में फैले अपने प्रशंसकों के लिए था और न ही देशवासियों के लिए. पाकिस्तान का या भारत में पाकिस्तानी गतिविधियों का तो प्रधानमंत्री ने नाम तक नहीं लिया. मोदी दरअसल इस भाषण के ज़रिए कश्मीरी अवाम और विश्व समुदाय, दोनों को साधने की कोशिश कर रहे थे. कम से कम संदेश तो ये ही था.

विश्व समुदाय और कश्मीर के लिए मोदी के भाषण में दो संदेश थे. दोनों ही विश्वमंच पर सराहे जाने वाले शब्द हैं- डेवलेपमेंट और डेमोक्रेसी. मोदी अपने भाषण में या तो लोकतंत्र को मज़बूत करने, नई राजनीतिक पीढ़ी तैयार करने और तरह-तरह के चुनावों पर ज़ोर देते रहे और या फिर विकास के स्वप्न संसार में लोगों को भविष्य की छवियां दिखाने की कोशिश करते नज़र आए. ये दोनों ही बातें सकारात्मक हैं क्योंकि इसमें नौकरियां हैं, बेहतर जीवन स्तर है, समष्टिभाव है, बेहतर संसाधन और व्यापार है, मज़बूत लोकतंत्र है और लोगों की प्रतिभागिता का आह्वान है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि मोदी की यह रणनीति बिल्कुल नई ही है. मोदी का यह एक टेस्टड फार्मूला है तो अबतक सफल होता आया है और कम से कम उन्हें तो यह उम्मीद है ही कि कश्मीर के मामले में भी ये सही साबित होगा.

मोदी का रामबाण फार्मूला

मोदी का यह फार्मूला पिछले कुछ वर्षों की राजनीति के वरक पलटकर समझा जा सकता है. अवधारणा सीधी है. जिस भी राज्य में अपने पैर जमाने हों, पहले वहां के राजनीतिक वर्चस्व और सबसे मज़बूत दिख रहे राजनीतिक घरानों को पहचानो. फिर उनकी जातीय और सामुदायिक सत्ता की सीमित आबादी के अलावा बाकी लोगों को अवसर, शक्ति और समानता के नारे के साथ जोड़ो. इस तरह पहले से बनी लकीरों के समानान्तर बड़ी लकीर खींचकर मोदी अभी तक जीत पर जीत साधते आए हैं.

उदाहरण से समझना चाहें तो उत्तर प्रदेश की ओर देखें. मायावती जाटवों की राजनीतिक पहचान हैं. वहीं अखिलेश यादव एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण के उत्तराधिकारी. लेकिन बाकी जातियों में इनकी पैठ सीमित रही. मोदी ने बाकी छोटी-छोटी जातियों को एकीकृत करके इन क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व को हाशिए पर ला दिया. यहां परिवारवाद और जातिवाद या संप्रदाय विशेष के तुष्टिकरण को मोदी पहली लकीर के खिलाफ इस्तेमाल करके अपने पाले में बहुमत जुटाते आए हैं. बिहार में यही स्थिति लालू प्रसाद की जाति आधारित राजनीति की हुई है. उनका एमवाई समीकरण भी राज्य की राजनीति की एक बड़ी लकीर था जिसे मोदी ने उनसे बड़ी लकीर खींचकर छोटा साबित कर दिया है.

ऐसा माना जाता रहा है कि हरियाणा की राजनीति में जाटों से अलग होकर धान की एक पौध तक रोपी नहीं जा सकती. लेकिन राज्य के विधानसभा चुनाव से लेकर दो लोकसभा चुनावों तक जिस तरीके से जाट और जाट राजनीति के जमे-जमाए परिवार हाशिए पर डाल दिए गए, वो मोदी के इस फार्मूले से ही संभव हो सका है. केवल राजनीतिक विपक्ष ही नहीं, भाजपा से जुड़े संगठनों के साथ भी ऐसा हुआ है. शिवसेना से बेहतर उदाहरण इसके लिए क्या हो सकता है. आज शिवसेना की छटपटाहट एनसीपी या कांग्रेस के प्रति कम, भाजपा से पैदा हो रहे खतरे के प्रति ज़्यादा है.