मराठा शासन की गवाही देता है यह भवन

Meerut Zone UP

मेरठ।(www.arya-tv.com) रघुनाथ टीले पर बना भवन मराठा शासन की गवाही तो देता ही है, इसका भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी खासा योगदान है। इस भवन की बनावट अपने आप में प्रमाण है कि यह कितनी सोच-समझ और दूरदर्शिता के साथ तैयार किया गया था।

यहां क्रांतिकारी बैठकें करते थे, अंग्रेजों की खोजबीन के दौरान छिपा करते थे और जब जरूरत पड़ती थी तो मोर्चा भी लेते थे। बाद में यहां गुरुकुल चलाया गया। टीले पर बने इस भवन में अगर आप प्रवेश करेंगे तो यह खुद ही दो हिस्सों में बंटा मिलेगा। सामने के दो कमरे नए हैं, जबकि बाकी का भवन 150 वर्ष से भी ज्यादा पुराना बताया जाता है।

भवन में प्रवेश करने के बाद घना अंधेरा छा जाता है। बाहरी व्यक्ति को लगेगा आगे कुछ है ही नहीं, लेकिन दीये की रोशनी में आप बढ़ेंगे तो अंदर दो कमरे हैं। मिट्टी का लेप इन कमरों का तापमान काफी कम रखता है। हवा आने-जाने के लिए छोटा-सा रोशनदान है।

बताते हैं कि जब अंग्रेजी सिपाही यहां क्रांतिकारियों की खोज में आते थे तो इन्हीं रोशनदानों को तोड़कर क्रांतिवीर दूर निकल जाते थे।इन कमरों से बाहर निकलने पर बैठकी है। इन दिनों यहां रहने वाले लोग यहीं खाना बनाते हैं। इस दौर में मिट्टी का चूल्हा भी आम शहरी के लिए कौतूहल से कम नहीं है। चूल्हे के पास से ही ऊपर मिट्टी के लेप वाली सीढ़ी छत पर ले जाती है।

छत पर भी आपके लिए कुछ खास है। थोड़ा याद कर लीजिए अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म केसरी। सारागढ़ी में छत पर खड़े होकर हवलदार ईशर सिंह ने जिस तरह से अपने 21 सिपाहियों के सहारे 10 हजार अफगान सैनिकों से मोर्चा लिया, ठीक उसी तरह की मोर्चेबंदी की जुगत इस भवन के छत पर भी दिखती है। संगीनों का मुंह बाहर करने को छत की रेलिंग पर किया गया छेद वैसा है जैसा सारागढ़ी की 12 सितंबर, 1897 की लड़ाई के फिल्मांकन में दिखता है। यानी उन दिनों इसी तरह दुश्मन से मोर्चा लिया जाता था।

क्रांतिकारियों की पुरानी तस्वीरों के बीच एक खास तस्वीर भी है महंत भीष्म रमन स्वामी के पास। यह तस्वीर है प्रख्यात संगीतकार और गायक सचिन देव बर्मन की। इस तस्वीर में वे यज्ञ करते हुए नजर आ रहे हैं। पूछने पर स्वामीजी बताते हैं कि एसडी बर्मन साहब तो एक सप्ताह के लिए यहां आए थे। आजादी मिलने के बाद वसंत का ही महीना था। यहां पूजा-पाठ के साथ यज्ञाहुति का भी अनुष्ठान चला था।

यूं तो 1857 की क्रांति के बाद से ही यहां महंत शाहदास जी की अगुवाई में वेद प्रचार और क्रांतिकारियों की गतिविधियां शुरू हो गई थीं, लेकिन 1919 में स्वतंत्रता सेनानी और महान संत सुमेर सिंह काली कमली वालों ने इस इमारत की कमान संभाली तो गतिविधियां और बढ़ गईं। यहां बने गुरुकुल में देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी जाती थी।

गुरुकुल डोरली पर जब अंग्रेज धावा बोलते थे तो वहां के शिष्य और क्रांतिकारी भी यहीं आ जाते थे। 1939 में काली कमली वालों के ब्रह्मलीन हो जाने के बाद शिष्य ब्रह्मचारी डा. स्वामी महंत उर्फ रामकिशन को महल की जिम्मेदारी सौंपी गई। संन्यासी रहते हुए स्वामीजी आजादी की लड़ाई मे कूद पड़े। वे ब्रिटिश हुकूमत द्वारा गिरफ्तार भी किए गए। उन्हें आंध्र प्रदेश की उस्मानाबाद जेल मे बंद कर दिया गया।

इसी दौर में लाल बहादुर शास्त्री भी तीन माह स्वामीजी के साथ रहे। स्वामीजी के बारे में बताया जाता है कि वे हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू एवं पंजाबी समेत सात भाषाओं का ज्ञान रखते थे। वेदों के प्रचार हेतु उन्होंने देशभर में हिन्दुत्व की पताका लहराई। फिलहाल इस भवन की जिम्मेदारी महंत ब्रह्मचारी भीष्म रमन स्वामी के कंधों पर हैं।

1935 से 1946 तक के बीच की लगभग दर्जनभर ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें उनके पास हैं। काफी आग्रह पर संदूक से निकालने के क्रम में वे बताते हैं कि इस इमारत की गुफा देशभक्त सालिगराम, अलगूराय शास्त्री, संपूर्णानंद शास्त्री, चंद्रशेखर आजाद शिव वर्मा समेत कई क्रांतिकारियों की शरणस्थली रह चुका है।

वे यह भी बताते हैं कि यहां अब भी वेदों का प्रचार होता है। होली के ठीक पहले सामवेद और अथर्ववेद का पाठ किया जाता है। यज्ञाहुति होती है। होली मनाई जाती है, लेकिन एक चुटकी रंग किसी को कोई नहीं लगाता। इस वर्ष पांच से 10 मार्च तक यह अनुष्ठान होना है।