(www.arya-tv.com)अमेरिका में कोरोना के नए वैरिएंट्स को डिटेक्ट करने के लिए वैज्ञानिकों ने एक नया तरीका ढूंढ निकाला है। वे शहरों के हर गंदे नाले के पानी की जांच कर उसमें वायरस का पता लगा रहे हैं। इस रिसर्च को खुद अमेरिकी हेल्थ एजेंसी सेंटर्स फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) सपोर्ट कर रही है।
तेजी से मल्टीप्लाई करता है
कोरोना वायरस जब हमारे शरीर पर अटैक करता है, तब यह अपने आपको तेजी से मल्टीप्लाई करता है। इसके कुछ कण हमारी आंतों में भी जाते हैं। यहां वायरस के फैटी पार्टिकल हमारे मल से चिपक जाते हैं। शौच के साथ ही यह वायरस नालों में बह जाता है। इस गंदे पानी के सैंपल्स को भी नाक के सैंपल्स की तरह ही लैब में जांचा जाता है।
कैलिफोर्निया में इस पर काम
इस प्रोजेक्ट का नाम है सीवर कोरोना वायरस नेटवर्क अलर्ट (SCAN)। CNN की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रोफेसर अलेक्जेंड्रिया बोहेम और उनकी टीम के 45 लोग पिछले एक साल से कैलिफोर्निया में इस पर काम कर रहे हैं। वे हर दिन अलग-अलग वेस्टवॉटर ट्रीटमेंट प्लांट्स के पानी के सैंपल इकट्ठा करते हैं। लैब में इन सैंपल्स से वायरस का जेनेटिक मटिरियल RNA निकाला जाता है। फिर इनकी जीनोम सीक्वेंसिंग करके कोरोना वैरिएंट्स का पता लगाया जाता है।
कई नालों के सैंपल्स इसके लिए पॉजिटिव
बोहेम के अनुसार, नवंबर 2021 में दक्षिण अफ्रीका में ओमिक्रॉन का पहला अलर्ट मिलने के बाद उनकी टीम ने अपने एरिया के वेस्टवॉटर में इस वैरिएंट की जांच शुरू की। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने जब तक इस वैरिएंट को नाम दिया, तब तक अमेरिका के कई नालों के सैंपल्स इसके लिए पॉजिटिव आ चुके थे। इसका मतलब, ओमिक्रॉन पहले ही कई देशों में फैल चुका था, लेकिन ट्रेडीशनल टेस्टिंग के कारण इसका पता जल्दी नहीं चल पाया।
वायरस की मात्रा कम पाई गई
CDC ने इस प्रोजेक्ट के लिए नेशनल वेस्टवॉटर सर्विलांस सिस्टम (NWSS) बनाया है। इसके तहत अमेरिका के 19 स्टेट्स में 400 टेस्टिंग सेंटर्स खोले गए हैं। रिसर्च से मिले डेटा के अनुसार, पिछले 15 दिनों में 400 में से दो तिहाई सेंटर्स में कोरोना वायरस की मात्रा कम पाई गई है।
वायरस की पहचान सबसे पहले नाले के पानी में
विशेषज्ञों के अनुसार, वायरस की पहचान सबसे पहले नाले के पानी में ही होती है। मरीजों को भले ही संक्रमण के लक्षण न आएं, लेकिन नालों के गंदे पानी से कोरोना के बढ़ते मामलों का पता चल जाता है। वेस्टवॉटर की जांच के जरिए कोरोना की नई लहर का पता पहले ही लगाया जा सकता है।
इसके अलावा, यह वायरस के नए वैरिएंट्स का पता लगाने का एक अच्छा तरीका है। चूंकि इस टेस्ट में जीनोम सीक्वेंसिंग करना अनिवार्य है, वायरस के जीनोम में हो रहे किसी भी बदलाव का पता महामारी फैलने के पहले ही चल जाएगा। इससे सरकारों को मरीजों के बीमार पड़ने, टेस्ट करवाने और रिपोर्ट आने तक का इंतजार नहीं करना पड़ेगा।
