महबूब मुंबई भागे तो पिता ने 16 की उम्र में करा दी शादी, घोड़ों को नाल लगाते थे, वहीं से मिला फिल्मों में काम

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(www.arya-tv.com) भारतीय सिनेमा को मदर इंडिया जैसी कालजयी फिल्म देने वाले महबूब खान की आज 68वीं पुण्यतिथि है। महबूब खान पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनके सीखने का जज्बा और समय से आगे कुछ कर दिखाने की ललक ने उन्हें वाकई सबसे अलग पहचान दिलाई। महबूब खान बचपन से ही हीरो बनने का सपना देखा करते थे, लेकिन घरवाले इसके खिलाफ थे तो सपने की कुर्बानी देनी पड़ी। अस्तबल में घोड़े की नाल की मरम्मत करते हुए एक शख्स से हुई मुलाकात उन्हें बॉम्बे ले आई। आज यही महबूब भारतीय सिनेमा के सबसे कामयाब डायरेक्टर कहे जाते हैं। इनकी बनाई फिल्में लोगों के लिए मिसाल बनीं, वहीं 1954 में इनका बनाया महबूब स्टूडियो आज भी शूटिंग केंद्र है।

9 सितंबर 1907 को महबूब खान का जन्म बिलिमोरा, गुजरात में पुलिस कॉन्स्टेबल के घर हुआ। बचपन से ही महबूब को एक्टर बनने का शौक था, लेकिन पिता इसके सख्त खिलाफ थे। फिल्मों से इनका लगाव ऐसा था कि अक्सर ये ट्रेन का सफर का सिर्फ फिल्में देखने के लिए करते थे। 16 साल की उम्र में महबूब खान घर से भागकर हीरो बनने बॉम्बे पहुंच गए, लेकिन यहां उन्हें काम नहीं मिला। जैसे ही पिता को उनकी जानकारी मिली, तो वो उन्हें बॉम्बे से वापस गांव ले आए। दोबारा महबूब घर से ना भाग सकें, इसलिए पिता ने एक बेहद छोटी लड़की से कम उम्र में ही उनकी शादी करवा दी। महबूब ने हीरो बनने का सपना छोड़ घर बसा लिया, लेकिन किस्मत में कुछ और ही लिखा था।

3 रुपए लेकर फिर किस्मत आजमाने पहुंचे बॉम्बे

हिंदी सिनेमा के प्रोड्यूसर और फिल्मों में घोड़ा सप्लाई करने वाले नूर मोहम्मद से महबूब खान की मुलाकात उन्हें दोबारा मुंबई ले आई। जब नूर ने उन्हें अपने अस्तबल में घोड़े की नाल ठोकने का काम दिया तो महबूब महज 3 रुपए जेब में लेकर सफर पर निकल पड़े।

कैसे मिला फिल्मों में पहला काम

एक दिन घोड़े की नाल ठीक करने वाले महबूब खान का साउथ फिल्म की शूटिंग के सेट पर जाना हुआ। इस फिल्म का निर्देशन चंद्रशेखर कर रहे थे। शूटिंग देखकर महबूब का एक्टर बनने का सपना फिर ताजा हो गया। उन्होंने चंद्रशेखर के साथ ये बात शेयर की तो वो भी उनकी दिलचस्पी और अनुभव से इंप्रेस हो गए। चंद्रशेखर ने तुरंत अस्तबल के मालिक नूर मोहम्मद से महबूब को अपने साथ ले जाने की इजाजत ले ली।

साइलेंट फिल्मों में बतौर असिस्टेंट करते थे काम

चंद्रशेखर ने महबूब को बॉम्बे फिल्म स्टूडियो में छोटा सा काम दे दिया। चंद छोटे-मोटे काम करने के बाद महबूब को साइलेंट फिल्मों के दौर में फिल्में असिस्ट करने का मौका मिला। कभी जब फिल्में नहीं मिलीं तो महबूब ने इंपीरियल फिल्म कंपनी में एक्स्ट्रा बनकर भी काम किया। जब पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनने वाली थी तो आर्देशिर ईरानी ने महबूब खान को हीरो बनाया, लेकिन साथियों के बहकावे में आकर उन्होंने फैसला बदल दिया और फिल्म विट्ठल को मिल गई।

महबूब समझ चुके थे कि फिल्मों में उन्हें लीड रोल मिलना लगभग नामुमकिन है, तो वो फिल्में लिखने में जुट गए। महबूब अपनी स्क्रिप्ट लेकर स्टूडियो और प्रोड्यूसर्स के चक्कर काटा करते थे। लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार महबूब को पहली फिल्म अल हिलाल- 1935 (जजमेंट ऑफ अल्लाह) डायरेक्टर करने का मौका मिला। इसके बाद महबूब को सागर फिल्म कंपनी में काम करने का मौका मिला, जिसके लिए उन्होंने डेक्कन क्वीन (1936), एक ही रास्ता (1939), अलीबाबा (1940), औरत (1940) जैसी बेहतरीन फिल्में कीं।

जवाहरलाल नेहरु की मौत का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके महबूब

27 मई 1964 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया। उनकी मौत की खबर से महबूब को इतना गहरा सदमा पहुंचा कि अगले ही दिन उनकी हार्ट अटैक से मौत हो गई। इस समय महबूब अपनी अगली फिल्म की तैयारी कर रहे थे। जो बन ना सकी।