(arya tv) भारत देश के लिये एच.आई.वी/एड्स वैसे तो नया नहीं है परन्तु अभी हाल ही में प्रो. नीरज खत्री द्वारा सर्वेक्षण पर आधारित उनकी पुस्तक ने शिक्षा एवं स्वास्थ्य को लेकर आम जगत का ध्यान इस विषय की ओर आकर्षित किया है।इस अध्ययन में स्वास्थ्य के आलावा सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक पक्षों पर भी व्यापकता से प्रकाश डाला गया है। पुस्तक का उद्देश्य झुग्गीवासियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के आधार पर उनकी मीडिया संबंधी आदतों का अध्ययन करना है। इस नाते यह पुस्तक झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली जनता के बीच एच.आई.वी/एड्स के प्रति सामान्य जागरुकता का अध्ययन करती है।
समाज का वर्तमान स्वरूप काफी बदल चुका है। समाज और जीवन के प्रत्येक भाग पर जनसंचार माध्यमों बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। यह माध्यम न केवल सामाजिक विवेक के प्रति जनता की अवधारणा का निर्माण करते हैं अपितु उनसे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़े मुद्दों के प्रति भी जागरुक करते हैं। एच.आई.वी/एड्स भी एक ऐसा ही मुद्दा है। यह पुस्तक झुग्गीवासियों में एच.आई.वी/एड्स के प्रति जागरुक करने में मीडिया के प्रभावों पर आधारित है। इस रोग के उपचार हेतु स्वास्थ्य जगत के पास कोई दवाई नहीं है परन्तु उचित जानकारी से इस रोग की रोकथाम की जा सकती है जिसके लिये एक उचित संचार रणनीति बनानी होगी जो समाज में अपेक्षित बदलाव ला सके। इस हेतु यह पुस्तक न केवल चिकित्सकों अपितु रोगियों में भी स्वास्थ्य एवं मीडिया संबंधी जागरुकता की अनुशंसा करती है।
यह अध्ययन दिल्ली के सबसे अधिक जनसंख्या वाले पांच जिलों उत्तर-पश्चिमी दिल्ली में बादली, दक्षिणी दिल्ली में संजय कॉलोनी और ओखला, पश्चिमी दिल्ली में शकूरबस्ती और नांगलोई, दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली में किशनगढ़ और महरौली एवं उत्तर-पूर्वी दिल्ली में सहादरा और अन्नानगर से समान अनुपात में नमूने एकत्र करके किया गया है। इस अध्ययन को करने हेतु पर्पसीव स्ट्रेटिफाईड रैंडम सेम्पलिंग तकनीक द्वारा आंकड़ों का एकत्रण एवं सामाजिक और आर्थिक अध्ययन के लिए कुप्पुस्वामी स्केल का प्रयोग किया गया है।
यह पुस्तक झुग्गीवासियों की जनसंचारमाध्यमों के प्रति आदतों, उनके सामाजिक और आर्थिक स्तर, दिल्ली शहर की झुग्गियों में जनसंचार साधनों द्वारा एच.आई.वी/एड्स के प्रति जागरुक करने के प्रभावों, सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा एच.आई.वी/एड्स की रोकथाम हेतु संचार नेटवर्कों के प्रयोग और एच.आई.वी/एड्स के प्रति जागरुकता बढ़ाने के लिये नई संचार रणनीतियों की खोज करने आदि पक्षों को छूता हुआ एक आधारभूत अध्ययन है।
पुस्तक में किये गये सर्वेक्षणों से पता चलता है कि एच.आई.वी/एड्स की रोकथाम के प्रति झुग्गीवासियों को जागरूक करने में रेडियो का अहम योगदान नहीं है 70% उत्तरदाताओं के अनुसार उन्हें एच.आई.वी/एड्स के बारे में सबसे अधिक जानकारी टीवी से मिलती है। यह भी देखने में आया है कि दक्षिणी दिल्ली के जिलों में 81.7% और उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के जिलों में 77% आंकड़ों के साथ सबसे ज्यादा जागरुकता टीवी से आई है। इस सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि जहां इस बारे में फ़िल्में एवं इंटरनेट का प्रभाव सबसे कम है वहीँ पुरुष प्रतिवादियों की अपेक्षा स्त्री प्रतिवादियों पर इसका प्रभाव अधिक देखने को मिला है और 15-24 और 25-34 आयु वर्ग के प्रतिवादियों ने मन है कि एच.आई.वी/एड्स के प्रति जागरुक करने में इंटरनेट अल्पतम प्रभावी है। इस प्रकार उपलब्ध जनसंचार साधनों में से एच.आई.वी/एड्स के प्रति जागरुकता फ़ैलाने में टीवी ही अन्य साधनों की अपेक्षा सबसे अधिक प्रभावी है।
इस पुस्तक में लेखक ने एच.आई.वी/एड्स के प्रति जागरुकता फ़ैलाने में सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थानों द्वारा अपनाए जा रहे तरीकों के बारे में संबंधित अधिकारीयों का साक्षात्कार लिया है और प्राप्त आंकड़ों का एस.डब्लू.ओ.टी विधि से विश्लेषण किया है।
इस अध्ययन से पता चलता है कि दिल्ली की झुग्गियों में रहने वालों में से 31% जनसंख्या बेरोजगार और अकुशल है। इन झुग्गीवासियों में से अधिकतर एच.आई.वी और एड्स के बारे में भ्रम की स्थिति में हैं उनके अनुसार ये दोनों बीमारियां हैं केवल 20% को ही यह पता है कि एच.आई.वी एक वायरस है साथ ही यहां के अधिकतर लोग यह मानते हैं कि एड्स के फैलने का कारण केवल असुरक्षित यौन संबंध हैं।एस.डब्लू.ओ.टी विश्लेषण से यह साफ़ हो जाता है कि इस सबका कारण नीति निर्माताओं कि कमजोरियां हैं जिन्हें उनकी ताकत बनाया जाना चाहिए और यह तभी संभव है जब लघु फ़िल्में और डॉक्यूमेंट्री निर्माता इस विषय पर ध्यान केन्द्रित करें और संबंधित कार्यक्रमों का निर्माण करें।
देश में एच.आई.वी/एड्स के प्रति जागरुकता फ़ैलाने हेतु कुछ संस्तुतियां इस पुस्तक में की गई हैं जैसेः एच.आई.वी/एड्स के प्रति जनता को जागरुक करने के लिये प्रशिक्षित स्वास्थ्य समन्वयक हों, इस कार्य से जुड़े हुए सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थानों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उन द्वारा प्रदत्त फंड्स का उचित एवं सही उपयोग हो और इसके लेशमात्र भी दुरूपयोग की संभावना उत्पन्न न होने पाए, समय-समय पर राजकीय एवं शैक्षिक संस्थानों द्वारा इस विषय पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्र स्तरीय संगोष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिए, मास मीडिया संगठनों और मीडिया शिक्षण संस्थानों द्वारा अपने कर्मियों और छात्रों के लिये इस विषय पर कार्यशालाओं और संगोष्ठियों का नियमित आयोजन किया जाना चाहिए ताकि वो स्वास्थ्य पत्रकारिता में आने वाली चुनौतियों को स्वीकार कर सकें।
अंततः यह कहना होगा कि यह शोध आधारित पुस्तक भारत में मास मीडिया की नीतियां निर्धारित करने एवं जन अभियान को उत्प्रेरित करने में एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में अपनी भूमिका अदा करेगी। साथ ही यह पुस्तक आने वाले शोधार्थियों, विद्वानों एवं सरकारी स्वास्थ्य कार्यालयों के लिये सन्दर्भ ग्रन्थ का कार्य भी करेगी।