किसानों की इच्छा के विरुद्ध सुधारों का दबाव

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(www.arya-tv.com) कोविड-19 के चलते देश में भय के माहौल के बीच केंद्र सरकार ने कृषि मंडी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और जरूरी वस्तु संशोधन अध्यादेश जारी कर दिए। केंद्र सरकार ने इनको कानून बनवा लिया है। राज्यसभा में मत विभाजन की मांग करने के बावजूद ध्वनि मत से पारित करवाने के कारण सत्ता पक्ष पर नियमों के उल्लंघन का आरोप भी लगा।

केंद्र सरकार का दावा है कि किसानों की आय दुगनी करने का जो लक्ष्य रखा था, उसके लिए ऐसे कानून जरूरी हैं। इन कानूनों से किसान देश में किसी भी जगह अपनी उपज़ बेच सकेगा। मगर, एक भी किसान संगठन सरकार की बात से सहमत होने को तैयार नहीं है। यहां तक कि आरएसएस के साथ जुड़ा भारतीय किसान संघ भी अपना विरोध दर्ज करवा चु्का है। प्रधानमंत्री और केंद्रीय कृषि मंत्री के नाम संघ के राष्ट्रीय महासचिव ने गत 22 सितंबर को लिखा है। इसके बाद किसान संघ की 15 हज़ार इकाइयों ने कानूनों में संशोधन की मांग वाले प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेज दिए हैं।

इस मौके पर देश के सभी 600 के करीब किसान संगठन साझा आंदोलन करने के लिए सहमति बनाने में जुटे हैं। पंजाब ने इस आंदोलन में पहलकदमी की है। हरियाणा दूसरा राज्य है, जिसके किसान लगातार आंदोलन कर रहे हैं। वैसे देश के 18 राज्यों में किसानों ने रैली और सभाएं करके इन कानूनों का विरोध शुरू कर दिया है। आंदोलनकारी बड़ी संख्या में लगातार कारपोरेट घरानों खासतौर पर अडानी और अंबानी के पेट्रोल पंप और अन्य कारोबारों के बाहर धरनों पर बैठे हुए हैं। राज्य के 31 किसान संगठन आपसी सहमति से आंदोलन करने को राजी हुए हैं।

शुरू में शिरोमणि अकाली दल ने कृषि अध्यादेशों को किसानों के पक्ष में बताया। किसान संगठनों ने अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल और केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के घर तथा भाजपा के नेताओं के घरों के स्थायी घेराव का ऐलान कर दिया। पंथक वोट के बाद किसान वोट खिसकने के चलते अकाली दल को यू-टर्न लेना पड़ा।

दल ने अपनी अकेली मंत्री हरसिमरत कौर बादल को इस्तीफ़ा देने को कहा और साथ ही करीब 27 वर्ष से बिना शर्त समर्थन देती आ रही देश की इस अकेली पार्टी ने राजग से भी नाता तोड़ लिया। अब अकाली दल इन कानूनों को किसानों और संघीय ढांचे के विरोध में बता रहा है। कैप्टन अमरेंद्र सिंह को विधानसभा का विशेष इजलास बुलाना पड़ा। इसमें भाजपा के दो विधायक गैरहाजिर रहे और बाकी सभी दलों के विधायकों ने सर्वसम्मति से संविधान के आर्टीकल 254 (2) के तहत मिली ताकतों का इस्तेमाल करते हुए केंद्रीय कानूनों में संशोधन वाले बिलों को पारित किया और राज्यपाल के पास जाकर इन बिलों को राष्ट्रपति को भेजने की अपील की।

केंद्र सरकार ने किसान संगठनों को बातचीत के लिए बुलाया परन्तु किसी मंत्री के मीटिंग में ना होने के कारण किसानों का गुस्सा और बढ़ गया। हरियाणा के किसानों ने जननायक जनता पार्टी के नेता दुष्यंत चौटाला से उपमुख्यमंत्री का पद छोडऩे का दबाव बनाना शुरू किया हुआ है। पंजाब में तो केंद्र ने रेल बंद करने का ऐलान किया और राष्ट्रपति से समय ना मिलने के विरोध में कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने खुद जंतर मंतर पर धरना दिया। अकाली दल और आप के विधायकों ने दिल्ली न जाने का फैसला किया।

आखिर, ऐसी कौन सी इमरजेंसी थी कि कोरोना के कौरान कृषि अध्यादेश लाने पड़े  इनसे पहले किसान संगठनों या राज्यों की सियासी पार्टियों के साथ बातचीत करना भी जरूरी क्यों नहीं समझा  सरकार जबरदस्ती इन कानूनों को लागू करने पर आमादा क्यों है  असल में यह कानून लाये ही गये हैं कारपोरेट घरानों के लिए। इसमें राज्यों के अधिकारों को नजऱअंदाज़ किया गया है। कृषि, जमीन और राज्यों के भीतर का व्यापार राज्य का विषय है। इसके अलावा अभी तक कृषि एक पेशा मानी जाती है। केंद्र सरकार ने जिस सातवें शैड्यूल की एंट्री 33 का सहारा लेकर कानून बनाए हैं, उनके मुताबिक अब खेती वाणिज्य और व्यापार के वर्ग में आ गई है।

अब तक केंद्र सरकार ने कृषि उपज़ की बिक्री के बारे 2003 और 2017 में माडल एक्ट बनाए थे। राज्य सरकारों को इनके मुताबिक अपने कृषि उपज़ मार्किट कमेटी कानूनों में संशोधन करने को कहा जाता रहा है। अब तक कृषि उपज़ केवल उन मंडियों में बेची जा सकती थी जो राज्य सरकार की ओर से अधिसूचित की जाती थी। इनके रखरखाव के लिए सरकार को टैक्स लगाने का अधिकार था। लाइसेंस और रजिस्ट्रेशन करवानी भी जरूरी थी।

नये कानून के मुताबिक केवल पेन कार्ड के जरिए कोई भी व्यक्ति, कंपनी या फर्म कहीं से भी कृषि उपज़ खरीद सकेगी और एक पैसा भी टैक्स नहीं देना पड़ेगा। इससे यह तर्क निकलना स्वाभाविक है कि सरकार धीरे-धीरे पंजाब, हरियाणा और कई अन्य राज्यों से गेहूं-धान की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर हो रही खरीद से हाथ खींचना चाहती है। यही सिफारिश कृषि लागत और मूल्य आयोग कई सालों से आपनी रिपोर्टों में करता आ रहा है।

शांता कुमार कमेटी की यही सिफारिश है। कृषि में ठेका प्रणाली के कानून की सभी शर्तें कंपनियों के पक्ष में हैं। किसान स्वामीनाथन रिपोर्ट के मुताबिक सभी फसलों का समर्थन मूल्य और खरीद की गारंटी मांग रहा है। जरूरी वस्तुओं के संशोधन कानून के मुताबिक कारपोरेट घरानों को जखीरेबाजी करने की छूट दे दी गयी है, जिससे महंगाई असमान छू सकती है। देश के गरीबों के सामने रोटी का मसला और भी विकराल रूप ले सकता है। इस देश के करोड़ों किसानों की सहमति के बिना कानून थोप देना गैर-लोकतांत्रिक और राज्यों की नाराजगी के बावज़ूद सुनवाई ना करना सहकारी संघवाद के खिलाफ है।