राष्ट्र को समर्पित व्यक्तित्व : हेमू कालाणी; 21 जनवरी, 2025 के लिए विशेष

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सिंध (अब पाकिस्तान) प्रदेश के पुराने शहर सक्खर में पेसूमल कालाणी के घर में 23 मार्च, 1923 को वीर हेमू कालाणी का जन्म हुआ था। हेमू बचपन से ही बहुत वीर और साहसी था। वह हमेशा अपने साथियों के साथ टोली बनाकर रहता था और उसके हम उम्र 04 साथी उसे बहुत प्यार करते थे और अपना मुखिया मानते थे। सात वर्ष की नन्हीं उम्र में ही वह अपने दोस्तों के साथ हाथ में तिरंगा झण्डा लेकर मुहल्ले में अंग्रेज़ फिरंगियों के खिलाफ नारे लगाया करता था।
हेमू तब “लोकमान्य तिलक हायर सेकेंडरी स्कूल” में पढ़ता था। उसके साथी थे लक्ष्मण केसवाणी, हरी लीलाणी, टीकम भाटिया, हशू सबनाणी। तैराकी उसका प्रिय शौक था। वह सात नदियों के संगम सिंधु में “लैंस डाउन” नामक पुल पर से छलांग लगाकर घण्टों पानी में तैरा करता था।
वह बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक का अंतिम दौर था और ब्रिटिश हुकूमत से “भारत मां” को आजाद कराने की भावना से पूरा जनमानस उद्वेलित था। एक तरफ गांधी जी, तिलक गोखले आदि सत्याग्रह व अन्य अहिंसावादी तरीकों से आज़ादी आंदोलन छेड़ चुके थे और दूसरी ओर भगतसिंह, सुभाषचंद्र बोस व चंद्रशेखर आज़ाद आदि ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के लिए क्रांति युद्ध छेड़ चुके थे।
आज़ादी की लड़ाई के ये सभी आधार स्तम्भ हेमू के जीवन के प्रेरणा स्रोत बने। सन् 1932 में जब हेमू के चाचा डा॰ मंघाराम कालाणी ने आज़ादी आंदोलन को सफल बनाने के लिए “स्वराज्य सेना मंडल” की स्थापना की तो उसमें तमाम नवयुवकों के अलावा विद्यार्थियों ने भी सदस्यता ग्रहण की। इसी बीच भगतसिंह व उसके साथी 23 मार्च, सन् 1931 को असेम्बली बम केस में हंसते-हंसते फांसी के तख़्ते पर झूल गये थे।
इस बलिदान से हेमू अत्यधिक प्रभावित हुआ था और उसके अंतर्मन में अंग्रेज़ फिरंगियों के खि़लाफ़ नफ़रत की भावना और भी तीखी हो गयी। वह अपने सहपाठियों के साथ स्वराज्य सेवा मंडल में शामिल हो गया और अनेक अवसरों पर मंडल के सदस्यों के साथ विलायती कपड़ों तथा अन्य विदेशी वस्तुओं का खुलकर बहिष्कार करने लगा। उसने अपने साथियों के साथ मिलकर कुल 07 घटनाएं कीं।
जिसमें जिला कलेक्टर के कार्यालय पर लगे यूनियन जैक को हटाकर तिरंगा फहराया और पुलिस थानों में बम रखकर उन्हें ध्वस्त किया और उसने अंग्रेज़ों की कई गाड़ियों को आग लगा दी। छोटी सी उम्र में ही अपार साहस को देखते हुए उसे मंडल के अगुआ कार्यकर्ताओं में शामिल कर लिया गया। अब उसे विचार गोष्ठियों व अन्य महत्वूपर्ण बैठकों में बुलाया जाने लगा।
क्रांतिकार ज्वार के इस दौर में उसने एक बार रुक्कन रेलवे स्टेशन पर एक ज़ोरदार प्रदर्शन आयोजित किया और लगभग डेढ़ घंटे तक रेलगाड़ी को रोके रखा। इसी रेलवे स्टेशन पर सिंधी संत कंवरराम साहब को गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी।
सन् 1942 में महात्मा गांधी द्वारा “भारत छोड़ो” के आव्हान से हेमू पहले की अपेक्षा अधिक जागृत हुआ और हेमू ने “भारत छोड़ो” उद्घोष का मंत्र पूरे सिंधु में गुंजा दिया। इससे वहां की सैनिक छावनी में बग़ावत फैल गयी क्योंकि उस समय वहां की सेना में लगभग 80 प्रतिशत भारतवासी थे। तेजी के फैलती जा रही इस बग़ावत को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों को अपनी यूरोपीय फ़ौज बुलानी पड़ी।
23 अक्टूबर, 1942 सोमवार सायं लगभग 04 बजे हेमू के एक साथी से ख़बर मिली कि रात 12 बजे और 01 बजे के बीच यूरोपीय सेना को लेकर बारूद से भरी एक विशेष रेलगाड़ी कोयटा बलूचिस्तान से आ रही है, जो सक्खर शहर से गुजर कर कराची की ओर जाएगी। इस वीर सपूत ने तत्काल कसम खायी कि मैं इस बारूद से भरी रेलगाड़ी को अपने शहर सक्खर पहुंचने से पहले ही ध्वस्त कर दूंगा।
वह अपने दोस्त नंद व किशन के घर गया और उन्हें अपने कार्यक्रम से अवगत कराया, तीनों ने मिलकर फैसला किया कि नये सक्खर और पुराने सक्खर के बीच इकहरी रलवे लाइन का जो छोटा सा पुल है, उसके पास ही इस ख़ास रेलगाड़ी को नष्ट किया जायेगा। हेमू ने कहा कि हम लोग रात आठ बजे तुलसीदास पार्क में मिलेंगे और रेलपटरी के नट बोल्ट खोलने के लिए मैं औज़ारों का बंदोबस्त करता हुआ आऊंगा।
हेमू समय से पहले ही पार्क में पहुंचा और वहां की स्थिति का अनुमान लगाने लगा। चांदनी रात में उसने देखा कि पुल में आवागमन जारी है। फिर वह टहलता हुआ पुल के दूसरी ओर पहुंचा। उसने यहां देखा कि पुल से तीस-पैंतीस गज की दूरी पर सक्खर बिस्कुट का कारख़ाना है जिसके मुख्य द्वार पर एक नेपाली चौकीदार खड़ा है और लगभग 200 गज की दूरी पर एक पुलिस चौकी है। हेमू जब वापस पार्क में आया तो वहां नंद और किशन उसका इंतज़ार कर रहे थे।

हेमू ने उन्हें हालात बताये और बताया कि औज़ार के नाम पर उसे एक पाना (रिंच) और साथ में नारियल की रस्सी के टुकड़े ही मिल पाए हैं। दानों मित्रों ने शंका व्यक्त की कि इस डेढ़ फुट के पाने से हम क्या कर पायेंगे? हेमू ने उन्हें हिम्मन न हारने को कहा और पुल की ओर बढ़ चले। वे रेल की पटरी के निकट खड़े योजना बना ही रहे थे कि तभी बिस्कुट के कारख़ाने के चौकीदार की नज़र उन पर पड़ी, चौकीदार ने हांक लगायी, “कौन है”।
हेमू ने आवाज दी, “हम रेल कर्मचारी हैं, और फिर काम में जुट गये। मगर उस नेपाली चौकीदार को उनकी गतिविधियों पर शक हुआ और वह पुलिस चौकी में जाकर सूचना दे आया। अभी वे कुछ नट बोल्ट ही खोल पाये थे कि उन्हें भारी भरकम बूटों की आहट सुनाई दी, पलट कर देखा तो चार-पांच टोपीधारी आ रहे थे। पुलिस वालों को देखते ही उसने अपने दोनों साथियों को तुरंत चले जाने को कहा और वह वहीं रुक गया।
हेमू ने बिल्कुल करीब आ गये सिपाहियों पर पाना फेंक कर मारा और अपने साथियों से उल्टी दिशा में चल दिया। चाल धीमी होने के कारण पुलिस वालों ने कुछ दूर जाकर ही उसे पकड़ लिया। “भारत माता की जय” और “इंकलाब ज़िंदाबाद” के नारे लगाते हुए पुलिस चौकी में उसने अपने इस आरोप को स्वीकार कर लिया कि वह ही रेल लाइन को उखाड़ रहा था जिससे उस रात बारूद से भरी हुई रेलगाड़ी विदेशी सैनिकों को लेकर गुजरने वाली थी।
हेमू ने अपने अन्य साथियों के नाम बताने से इंकार कर दिया। पुलिस ने उसे कठोर यातनाएं दीं लेकिन वीर सिंधु सपूत ने बार-बार यही कहा कि ’मेरे साथ और कोई नहीं था।’ रात भर उसे बर्फ की सिल्ली पर नंगे लिटाए रखा गया और बेरहमी से पीटा गया लेकिन उसने पुलिस को कुछ नहीं बताया। हेमू को सक्खर की विशेष जेल में भेज दिया गया।
मिलिट्री कोर्ट में “मार्शल लॉ” के अंतर्गत मुकदमा चला और 17 दिसंबर, 1942 को उसे दस साल की सजा सुनायी गयी। चाचा मंघाराम ने “मेजर जनरल रिचर्डसन” के पास हैदराबाद में अपील दायर की लेकिन 21 दिसंबर को 10 साल की सजा के बजाय फांसी पर लटकाने का हुक्म सुनाया गया। फांसी की सजा देने के लिए 21 जनवरी, सन् 1943 का दिन तय हुआ।
इस फैसले को सुनकर पूरा सिंध प्रदेश शोक में डूब गया। क्रांतिकारियों में ख़लबली मच गयी और सबने मिलकर अंग्रेज़ों के इस निर्दयतापूर्ण फैसले का खुलकर विरोध किया। हेमू के चाचा और अन्य रिश्तेदारों ने मिलकर दिल्ली में “गवर्नर जनरल लार्ड माउण्टबेटन” से दया की अपील की। लेकिन निर्दयी अंगेज़ों ने सभी अपीलें नामंजूर कर दीं।
हेमू की माता जब आखिरी बार उससे मिलने गयी तो वे हेमू को गले लगाकर फूट-फूटकर रो पड़ीं। हेमू ने हंसते हुए अपनी मां को तसल्ली दी, “तुम्हीं ने तो मुझे यह बताया था कि आत्मा अमर है, वह कभी नहीं मरती। यह शरीर तो नाशवान है फिर मां नाशवान शरीर को त्यागने में दुःख कैसा! मां तुम्हें तो गर्व होना चाहिए कि तुम्हारा बेटा वतन पर शहीद हो रहा है।”
जब 19 वर्ष के हेमू को फांसी के तख्ते की ओर ले जाया जा रहा था तो उसके होठों पर मुस्कुराहट खेल रही थी। जेल कर्मचारियों ने उसका वजन तौला तो पहले की अपेक्षा वह 07 पाउंड ज्यादा था। जेल अधिकारी ने जब उससे अंतिम इच्छा के बारे में पूछा तो फांसी का फंदा गले में पहन हेमू ने गर्व के साथ सीना चौड़ा करके कहा, “मुझे कुछ नारे लगाने की आजादी दी जाए”, इतना कहकर हेमू की बुलंद आवाज़ जेल के अहाते में गूंज उठी “इंकलाब ज़िंदाबाद”, “भारत माता की जय।”
सुबह 07 बजकर 55 मिनट पर इस नारों की गूंजती आवाज़ के बीच फांसी का तख्ता खींच लिया गया और हेमू का शरीर हवा में झूल गया।

ज्ञानप्रकाश टेकचंदानी ’सरल’