.काँस का धार्मिक ही नहीं ,अगर देखा जाये तो व्यवसायिक उपयोग भी हैं

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कांसा या काँस को तो आप सभी जानते होगे ये रैल की पटरी, नदी, नाले या जहां जल भराव हो वहां पर आपको खूब पनपती दिख जाएगी नवंबर तक ये खूब फल फूल जाती हैं…..जब ये सीना तान के हरी भरी हो जाती हैं और फ़ूलों के लिय बालियां आने लगती हैं तो मानो जैसे संकेत दे रही हो कि आओ धान लगाओ…. मौसम आ गया…….
और चांदनी सी सफेद फूलो से भर जाती हैं तब धान काटने का समय हो जाता हैं…. कहते हैं काँस किसानो को अच्छे मौसम का संकेत देते हैं…..
…….काँस का बहुत उपयोग हैं इसका धार्मिक ही नहीं अगर देखा जाये तो व्यवसायिक भी उपयोग हैं डूबते को तिनके का सहारा जैसा ग्रामीण महिलाये इसकी टोकरी, बिज़ने, चटाई बनाकर बेच सकती हैं जानवरों के लिय चारे के लिय भी अच्छा विकल्प हैं ये……
गांव में महिलाये इसकी झाड़ू बनाती हैं…… जब ये सींक पक जाती हैं तब उसे पानी में गलाकर उबाल कर कई रंगों में रंग करके तब इससे बिजना, सूप, टोकरी और खिलौने बनाते हैं……हमेशा आपने देखा होगा कि करवाचौथ से पहले बाजार में कुछ अम्माये जमीन पर बैठकर सिंक बेचती हुई….. क्योंकि हम जो करवा चौथ पर पूजा में जो सिंके उपयोग करते हैं वो कांसे की ही होती हैं……
पहले झाडू बाजार से नहीं आते थे जब कांसा पक जाता था तो उसकी डांडियों से बुहारी (झाडू ) बनाई जाती थी… पहले समय में बेटियों के लिय शादी के समय जो समान ससुराल भेजा जाता था उसमें बाजार से सामान कम घर पर ही ज्यादा तैयार किए जाते थे और अधिकतर समान इसी की सिंक से ही बनाए ज़ाते थे और बहू की कुशलता इन्हीं सामानों को देखकर परखी जाती थी कि बहु कितनी होशियार हैं…..
किसान जब इधर चारा काटने आते हैं तो गठरी बांधने के लिय इस घास को रस्सी की तरह ईस्तेमाल करते हैं बांधने के लिय……
बड़े बुढ़े पहले इससे रस्सी बटते थे और फिर खाट की बान इससे ही बुनते थे…….
इसके सफेद फूल जब पक कर हवा में उड़ते हैं तो बच्चे डूकरियाँ के बाल कहकर पकड़ते फिरते हैं……
काँस को अगर हम जला भी दे तो ये ऑर्गेनिक पेस्टीसाइड का काम करती हैं…..
ये भूमि के कटाव को रोकती हैं…..
कहते हैं इसको लाल कपड़े में बांधकर रखने से घर में सुख समृद्धी आती हैं…….
साहित्य भी काँस की महिमा से अंधकार नहीं रह गया है। हिंदी साहित्य के जाने माने कवि मैथिलीशरण गुप्ता जी ने कांस के साथ ऋतु परिवर्तन के संकेत का बड़ा ही हृदय स्पर्शी कविता में लिखा है:
वर्षा विगत शरद ऋतु आई।
फूले कास सकल मही छै।।
इसी प्रकार तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस में काँस के फूल के वर्ष की समाप्ति का संकेत देते हुए लिखा है:
फूले कांस सकल मही छै जनु वर्षा तजु प्रगट बुढ़ाई।।