(www.arya-tv.com) भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा की बात करने से कुछ ऐसे लोग देश में हैं जो आपके उपर रूढि़वादी, अवैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति होने का सील ठप्पा लगा देंगे, हो सकता है आपको बौद्धिक समाज की मुख्यधारा से बेदखल कर दिया जाय। यही कारण है कि बड़ी संख्या में पढऩे लिखने वाले वहीं भाषा बोलते हैं जो इन उदारवादी भारतीय विरोधी सोच से मेल खाए।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिस जर्मन विद्वान फ्रेडरिक मैक्समूलर के भारतीय वैदिक साहित्य के अध्ययन को प्रामाणिक मान कर भारतीय इतिहास में तोड़मरोड़ करते हैं, उस मैक्समूलर की भारतीय ज्ञान परंपरा के बारे में क्या राय थी। जब फ्रेडरिक मैक्समूलर ने वैदिक संस्कृति संहिताओं का अध्ययन कर अंग्रेजी में अनुवाद किए तो यूरोप में उनकी पहचान भारतीय विषयों के विशेषज्ञ के तौर पर हो गई।
उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था, तथा भारत में अपनी हुकूमत चलाने के लिए सिविल सेवकों की भर्ती होती थी, परीक्षा पास कर लंदन के महाविद्यालय में पढ़ाई करने के बाद उन उम्मीदवारों को सिविल सेवकों के तौर पर भारत भेजा जाता था। ऐसे सिविल सेवकों भारतीय विषयों का भी अध्ययन कराया जाता था।
इसके लिए मैक्समूलर को व्याख्यान के लिए बुलाया गया। 1882 में मैक्समूलर ने सिविल सेवक अभ्यर्थियों के समक्ष भारतीय विषयों पर अपना व्याख्या दिया, जिसमें पहला विषय था हम भारत से क्या सीखें । इस व्याख्यान में मैक्समूलर ने भारत की ज्ञान परंपरा और समृद्ध संस्कृति का जो वर्णन किया, वह अकल्पनीय है।
यह पढऩे के बाद विचार पैदा होना स्वाभाविक है कि भारतीय विषयों के यूरोपीय विद्वान की समझ भारत के बारे में इतनी महान थी तो स्वतंत्रता के बाद पाश्चात्य विचार, पद्धति और संस्कृति पर आधारित व्यवस्था बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? मैक्समूलर के विद्यार्थियों को दिए गए पहले संबोधन का एक छोटा सा अंश, यदि हमें इस समस्त जगती – तल में किसी ऐसे देश की खोज करनी हो , जहाँ प्रकृति ने धन , शक्ति और सौन्दर्य का दान मुक्तहस्त हो कर किया हो या दूसरे शब्दों मे जिसे प्रकृति ने बनाया ही इसलिये हो कि उसे देख कर स्वर्ग की कल्पना साकार की जा सके , तो मैं बिना किसी प्रकार के संशय या हिचकिचाहट के भारत का नाम लूगा ।
यदि मुझसे पूछा जाय कि किस देश के मानव मस्तिष्क ने अपने कुछ सर्वोत्तम गुणों को सर्वाधिक विकसित स्वरूप प्रदान करने में सफलता प्राप्त किया है जहा के विचारको ने जीवन के सर्वाधिक महात्वपूर्ण प्रश्नों एवम् समस्याओं का सर्वाधिक सुन्दर समाधान खोज निकाला है तथा इसी कारण वह इस योग्य हो गया है कि कान्ट और प्लाटो के अध्ययन में पूर्णता को पहुँचे हुये व्यक्ति को भी आकर्षित करने की शक्ति रखता है , तो मैं बिना किसी विशेष सोच विचार के भारत की ओर उँगली उठा दूंगा।
यदि मै स्वयम् अपने से ही यह पूछना आवश्यक समयू कि जिन लोगों का समूचा पालन – पोषण ( शारीरिक एवम् मानसिक ) यूनानियों एवम् रोमनों की विचारधारा के अनुसार हुआ तथा अब भी हो रहा है तथा जिन्होंने सेमेटिक जातीय यहूदियों से भी बहुत कुछ सीखा है , ऐसे यूरोपीय जनों को यदि आन्तरिक जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने वाली सामग्री की खोज करनी हो , अदि उन्हें अपने जीवन को सच्चे रूप में मानव जीवन बनाने वाली तया ब्रह्माड वन्धुत्व ( ध्यान रखिये कि मैं केवल विश्वबन्धुत्व की बात नहीं कह रहा हूँ ) की भावना को साकार बना सकने में समर्थ सामग्री की खोज करनी हो तो किस देश के साहित्य का सहारा लेना चाहिये तो एक बार फिर मैं भारत की ही ओर इंगित करूंगा , जिसने न केवल इस जीवन को ही सच्चा मानवीय जीवन बनाने का सूत्र खोज निकाला है वरन् परवर्ती जीवन किंबहुना शास्वत जीवन को ही मुखमय बनाने का सूत्र पा लेने में सफलता प्राप्त कर ली है।
ऐसे महान विचार एक यूरोपीय जब हमारे देश के लिए व्यक्त करते हो तो किस भारतीय को अपनी प्राचीनता पर गौरव नहीं होगा? मैक्समूलर ने अपने सभी संबोधनों का संकलन कर एक पुस्तक के रूप के रूप में प्रकाशित कराया। इस पुस्तक का शीर्षक भी यही रखा, हम भारत से क्या सीखें दुर्भाग्य यह है कि विदेशियों को भारत की सच्चाई के बारे में सीखाने के प्रयास तो जैसा भी रहा, भारत के बोद्धिक समाज ने ही भारत की विशेषताओं को नकार दिया। अभी भी वैदिक ज्ञान, संस्कृत भाषा, आयुर्वेद, योग, दर्शन,पर सवाल खड़े करते हैं। लानत है इन पर।
