BJP Foundation Day: 45 साल का सफर पूरा, 15 राज्यों में अपना सीएम, बिहार में क्यों है नेतृत्व का संकट?

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5 अप्रैल 1980 को स्थापित भारतीय जनता पार्टी ने शनिवार को अपने 45 साल पूरे कर लिए हैं. इस लंबे सफर में बीजेपी ने कई उतार-चढ़ाव देखे. स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी जैसे दिग्गज नेताओं ने तीन-तीन बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. आज देश की सियासत में बीजेपी का दबदबा कायम है. 15 राज्यों में पार्टी का अपना मुख्यमंत्री है जबकि 6 राज्यों में सहयोगी दलों के सीएम हैं. एनडीए का शासन देश की 70% आबादी पर है लेकिन हिंदी भाषी राज्यों में एक राज्य ऐसा है, जहां बीजेपी आज तक अपने दम पर सत्ता की बागडोर नहीं संभाल पाई वह है बिहार.

बिहार में बीजेपी की अधूरी चाहत

उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों में बिहार अकेला ऐसा राज्य है, जहां बीजेपी आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी. यह बात पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में एक टीस की तरह बनी हुई है. 1990 में बीजेपी के सहयोग से लालू यादव सत्ता में आए. 2000 में ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद बीजेपी ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी. इसके बाद गठबंधन की सियासत में बीजेपी वह मुकाम हासिल नहीं कर पाई, जिसकी चाहत इसके कार्यकर्ता रखते हैं.

नेता नहीं, नीति पर सवाल

विश्लेषक बिहार में बीजेपी की इस स्थिति का अलग-अलग तरीके से विश्लेषण करते रहे हैं लेकिन एक बात साफ है बिहार में बीजेपी के पास कोई जननेता नहीं है. जिस राज्य ने लालू यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान जैसे क्राउड पुलर नेता दिए, वहां बीजेपी का एक भी मास लीडर न उभर पाना पार्टी की नीति पर सवाल खड़े करता है आखिर क्यों बीजेपी बिहार में ऐसा चेहरा नहीं खड़ा कर पाई, जो जनता के बीच अपनी पहचान बना सके?

नीतीश की छाया में सिमटी बीजेपी

बीजेपी बिहार में नीतीश कुमार की छाया से बाहर नहीं निकल पाई. सुशील मोदी जैसे नेता केंद्र बिंदु रहे, लेकिन जननेता नहीं बन सके. सीपी ठाकुर, मंगल पांडेय, गोपाल नारायण सिंह और संजय जायसवाल जैसे नाम अध्यक्ष बने, पर जनता के बीच पहचान नहीं बना पाए. प्रेम कुमार, नंद किशोर यादव, रेणु देवी और विजय सिन्हा को आगे बढ़ाने की कोशिश हुई, लेकिन ये नेता अपनी कला और कौशल से भीड़ जुटाने में नाकाम रहे.

जब नीतीश की छाया से बाहर निकलने की कोशिश हुई, तो गिरिराज सिंह, नित्यानंद राय और सम्राट चौधरी जैसे नाम सामने आए. लेकिन इनके पर जल्द ही कतर दिए गए. महत्वाकांक्षा और सियासी दांवपेच ने इन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया.

संगठन मजबूत, लेकिन नेता गायब

बीजेपी खुद को संगठन आधारित पार्टी कहती है, और यह सच भी है. लेकिन बिहार में उसका संगठन जननेता बनाने में विफल रहा. या यूं कहें कि नेतृत्व ने किसी को उभरने ही नहीं दिया. सम्राट चौधरी संगठन पर पकड़ रखते हैं, लेकिन जन स्वीकार्यता के मामले में कमजोर हैं. नित्यानंद राय को आगे बढ़ाने का प्रयोग फेल हो चुका है. विजय सिन्हा डिप्टी सीएम और नेता विपक्ष रहे, लेकिन न पार्टी में उनकी पूरी स्वीकार्यता बनी न जनता के बीच. तरकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को डिप्टी सीएम बनाना भी ऐसा प्रयोग था, जो बिहार की सियासत को समझने में चूक गया नतीजा-नीतीश कुमार को गठबंधन तोड़ना पड़ा.

दिलीप जायसवाल का प्रयोग भी फीका

पिछले साल बीजेपी ने दिलीप जायसवाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया. वैश्य वोटों को साधने और न्यूट्रल चेहरा देने की कोशिश हुई. लेकिन बिहार में लैंड सर्वे जैसे विवादित फैसले के बाद उनकी चर्चा जरूर हुई, पर प्रभाव नहीं दिखा. बिहार को न्यूट्रल नहीं बल्कि आक्रामक और विजनरी चेहरा चाहिए.

लालू-तेजस्वी से मुकाबले की चुनौती

लालू यादव और राजद की आक्रामक सियासत से मुकाबले के लिए बीजेपी को बिहार में यूपी के योगी, महाराष्ट्र के फडणवीस या असम के हेमंता जैसा नेता चाहिए. ऐसा चेहरा, जिसके पास विजन हो, जो तेजस्वी यादव के सवालों का तार्किक जवाब दे सके और प्रशांत किशोर के आक्रामक विजन का मुकाबला कर सके लेकिन फिलहाल ऐसा कोई चेहरा नजर नहीं आता.

बीजेपी के सामने नेतृत्व का संकट

सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी बिहार में अपनी शर्तों पर सियासत नहीं चला पा रही.’यस मैन’ की छवि से बाहर न आने की वजह से पार्टी अगले 5-10 सालों में भी कोई मजबूत नेता खड़ा करती नहीं दिख रही. बिहार अपना नेता खोजेगा-योगी, फडणवीस या हेमंता जैसा. लेकिन मोहन यादव, भजनलाल या नायब सिंह जैसा मॉडल यहां नहीं चलेगा. अगर बीजेपी ने जल्द कदम नहीं उठाया, तो जनता की अदालत में उसे नेतृत्व के संकट का जवाब देना होगा.