आल्हा: बुंदेलखंड से उपजा, अवध ने अपनाया: डाॅ रामबहादुर मिश्र

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(www.arya-tv.com)  आल्हा मूलतः बुंदेली वीरगाथा है। इसकी ओज प्रधान शैली से प्रभावित होकर अवधांचल ने इसे आत्मसात कर लिया है। महोबा बुंदेलखंड के वीर सामंत आल्हा ऊदल के शौर्य की गाथा अवधांचल की लोकप्रिय गाथा बन गई। आल्हा की लोकप्रियता का आलम यह है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी कल्लू अल्हैत के नाम से आल्हा लिखते हैं। प्रताप नारायण मिश्रा ने भी आल्हा रचा है। प्रगतिवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल भी इसके दीवाने थे। उन्होंने ‘बम्बई का रक्त स्नान’ नामक कविता आल्हा छंद में ही लिखा –
दक्खिन मा बम्बई सहर है,
साथिव यहिका सुनौ हवाल।
हुवाँ धकाधक मिलै चलति हैं,
गिनती का न करो सवाल।
आल्हाखण्ड वीर रस का अद्भुत काव्य है। मूल स्वरूप इस समय अनुपलब्ध है। इसके रचनाकार महाकवि जगनिक माने जाते हैं। उत्तर भारत के मूलतः अवध क्षेत्र और बुंदेलखंड में आल्हा साहित्य लगभग बारहवी शताब्दी से आरंभ होता है। आल्हा गायकों को अल्हैत कहा जाता है। यद्यपि आल्हा गायकों का मुख्य केन्द्र महोबा रहा है, किंतु अवधी-भाषी क्षेत्रों में इसकी व्याप्ति है। फाग की भांति ही आल्हा गायन का भी समय निर्धारित है। जेठ दशहरा से इसका गायन प्रारंभ होता है और क्वार दशहरा (विजय दशमी) तक गाया जाता है। कुल मिलाकर इसका गायन वर्ष के चार महीने ही होता है। आल्हा गायन के कुछ निश्चित विधान है। सबसे पहले मंगलाचरण अर्थात सुमरिनी गायन होता है, जो प्रायः कवित्त, सवैया अथवा घनाक्षरी छंद में होता है-
भाल विशाल त्रिपुण्ड विराजत,
माथे मा एक कलाधर सोहे।
दीन दयाल कृपालु प्रभु
दुख-दोष दुरावत पाप बिनो है।
पार न पावत भेद प्रभेद,
महिमा तुम्हरो कहि पावत को है।
मुंडन माल गले उर व्याल,
भयंंकर शंकर पालत जो है।।
आल्हा का कथानक बारहवी शताब्दी के प्रमुख चंदेल शासन परमार, चौहान शासन पृथ्वीराज तथा गहरवार वंशीय जयचंद के शासनकाल से सम्बद्ध है। इस कथा के नायक चंदेल राजा परमाल देव के वीर सामंत आल्हा ऊदल हैं। आल्हा ऊदल के पिता दस्सराज की वीरगति के समय आल्हा ऊदल शैशवावस्था में थे। ऐसे में राजा परमाल और उनको रानी मल्हना उनका पालन पोषण करती हैं। आल्हा की सुमिरनी के क्रम में ही आल्हा ऊदल और मलखान का वर्णन आता है-
आल्हा मूलतः बुंदेली वीरगाथा है। इसकी आज प्रधान शैली से प्रभावित होकर अवधांचल ने इसे आत्मसात कर लिया है। महोबा बुंदेलखंड के वीर सामंत आल्हा ऊदल के शौर्य की गाथा अवधांचल की लोकप्रिय गाथा बन गई। आल्हा की लोकप्रियता का आलम यह है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी कल्लू अल्हैत के नाम से आल्हा लिखते हैं। प्रताप नारायण मिश्रा ने भी आल्हा रचा है। प्रगतिवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल भी इसके दीवाने थे। उन्होंने ‘बम्बई का रक्त स्नान’ नामक कविता आल्हा छंद में ही लिखा –
दक्खिन मा बम्बई सहर है,
साथिव यहिका सुनौ हवाल।
हुवाँ धकाधक मिलै चलति हैं,
गिनती का न करो सवाल।
आल्हाखण्ड वीर रस का अद्भुत काव्य है। मूल स्वरूप इस समय अनुपलब्ध है। इसके रचनाकार महाकवि जगनिक माने जाते हैं। उत्तर भारत के मूलतः अवध क्षेत्र और बुंदेलखंड में आल्हा साहित्य लगभग बारहवी शताब्दी से आरंभ होता है। आल्हा गायकों को अल्हैत कहा जाता है। यद्यपि आल्हा गायकों का मुख्य केन्द्र महोबा रहा है, किंतु अवधी-भाषी क्षेत्रों में इसकी व्याप्ति है। फाग की भांति ही आल्हा गायन का भी समय निर्धारित है। जेठ दशहरा से इसका गायन प्रारंभ होता है और क्वार दशहरा (विजय दशमी) तक गाया जाता है। कुल मिलाकर इसका गायन वर्ष के चार महीने ही होता है। आल्हा गायन के कुछ निश्चित विधान है। सबसे पहले मंगलाचरण अर्थात सुमरिनी गायन होता है, जो प्रायः कवित्त, सवैया अथवा घनाक्षरी छंद में होता है-
भाल विशाल त्रिपुण्ड विराजत,
माथे मा एक कलाधर सोहे।
दीन दयाल कृपालु प्रभु
दुख-दोष दुरावत पाप बिनो है।
पार न पावत भेद प्रभेद,
महिमा तुम्हरो कहि पावत को है।
मुंडन माल गले उर व्याल,
भयंंकर शंकर पालत जो है।।
आल्हा का कथानक बारहवी शताब्दी के प्रमुख चंदेल शासन परमार, चौहान शासन पृथ्वीराज तथा गहरवार वंशीय जयचंद के शासनकाल से सम्बद्ध है। इस कथा के नायक चंदेल राजा परमाल देव के वीर सामंत आल्हा ऊदल हैं। आल्हा ऊदल के पिता दस्सराज की वीरगति के समय आल्हा ऊदल शैशवावस्था में थे। ऐसे में राजा परमाल और उनको रानी मल्हना उनका पालन पोषण करती हैं। आल्हा की सुमिरनी के क्रम में ही आल्हा ऊदल और मलखान का वर्णन आता है-
कंठ मा बैठो मोरे कंठेश्वरि,
जिभिया में बैठौ शारदा माय।
जौन शब्द गायन मा भूली,
मोरे-काने मे बताऊ आय।
आल्हा, ऊदल, मलखान, लाखन, लाला सैयद, बरम्हा, करिंगा राय, अमई, जयचंद तथा पृथ्वीराज आदि सबसे प्रमुख चरित्र हैं। आल्हा खंड में 52 लड़ाइयों का वर्णन है, जिसमे माड़ौगढ़, बबुरीवन, नैनागढ़, नदी बेतवा की लड़ाई, बेला के व्याह, कीरति सागर की लड़ाई, बिठूर का गंगा स्नान, इंदल-हरण आदि प्रमुख हैं। लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण माड़ौगढ़ की लड़ाई है। इस लड़ाई में आल्हा ऊदल अपने पिता की हत्या का बदला लेते हैं। करिंगाराय को मारकर माड़ौगढ़ पर विजय प्राप्त करते हैं। माधोगढ़ की लड़ाई का एक दृश्य –
सुनी खबरिया गढ़ माड़ौ की,
हे रन बाघउ होउ तयार।
कइसै फतह करी माड़व का,
दादा मंडरीक अवतार ।।
अवध में आल्हा के अनेक रूप प्रचलित है। इनमें बड़ा आल्हा, असल बावनगढ़ की लड़ाई रचइता पं. श्याम नारायण प्रसाद, सीताराम प्रकाशन खेमराज बम्बई, आल्हखंड पं. हजारी प्रसाद शास्त्री, आल्हखंड मटरू लाल मेरठ वाले, आल्हखंड पं. श्रीधर, आल्हखंड नवल किशोर प्रेस लखनऊ आदि महत्वपूर्ण आल्हखंड हैं।
आल्हा, ऊदल, मलखान, लाखन, लाला सैयद, बरम्हा, करिंगा राय, अमई, जयचंद तथा पृथ्वीराज आदि सबसे प्रमुख चरित्र हैं। आल्हा खंड में 52 लड़ाइयों का वर्णन है, जिसमे माड़ौगढ़, बबुरीवन, नैनागढ़, नदी बेतवा की लड़ाई, बेला के व्याह, कीरति सागर की लड़ाई, बिठूर का गंगा स्नान, इंदल-हरण आदि प्रमुख हैं। लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण माड़ौगढ़ की लड़ाई है। इस लड़ाई में आल्हा ऊदल अपने पिता की हत्या का बदला लेते हैं। करिंगाराय को मारकर माड़ौगढ़ पर विजय प्राप्त करते हैं। माधोगढ़ की लड़ाई का एक दृश्य –
सुनी खबरिया गढ़ माड़ौ की,
हे रन बाघउ होउ तयार।
कइसै फतह करी माड़व का,
दादा मंडरीक अवतार ।।
अवध में आल्हा के अनेक रूप प्रचलित है। इनमें बड़ा आल्हा, असल बावनगढ़ की लड़ाई रचइता पं. श्याम नारायण प्रसाद, सीताराम प्रकाशन खेमराज बम्बई, आल्हखंड पं. हजारी प्रसाद शास्त्री, आल्हखंड मटरू लाल मेरठ वाले, आल्हखंड पं. श्रीधर, आल्हखंड नवल किशोर प्रेस लखनऊ आदि महत्वपूर्ण आल्हखंड हैं।
लेखक अवध ज्योति पत्रिका के संपादक और अवध भारती संसथान के अध्यक्ष हैं