आशियाने की तलाश में बुजुर्ग, गांवों में अधिक बुजुर्ग अकेले रहने को मजबूर

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(www.arya-tv.com) हाल में बुजुर्गो के कल्याण के लिए स्वास्थ्य कार्यक्रमों और नीतियों को उनके अनुकूल निर्मित करने के उद्देश्य के साथ देश में पहली बार देशव्यापी सर्वेक्षण ‘लांगिटूडिनल एजिंग स्टडीज ऑफ इंडिया’ किया गया। इसके मुताबिक गांवों में 60 साल से अधिक आयु के 6.3 प्रतिशत बुजुर्ग अकेले जीवनयापन कर रहे हैं, जबकि शहर में एकाकी जीवन जीने वाले बुजुर्ग 4.1 प्रतिशत हैं। शहर में 32.6 प्रतिशत बुजुर्ग अपने बच्चों या अन्य व्यक्तियों के साथ रह रहे हैं, जबकि गांवों में 25.6 प्रतिशत अपने बच्चों के साथ रह रहे हैं। अपनी पत्नी और अन्य लोगों के साथ गांवों में 21.5 प्रतिशत तथा शहर में 17.5 प्रतिशत बुजुर्ग रह रहे हैं।

बुजुर्गो की समस्याओं के प्रति परिवार, समाज और सरकार की उदासीनता एक कड़वा सच है। बुजुर्ग लोगों का बड़ा प्रतिशत स्वयं को समाज से कटा हुआ और मानसिक रूप से दमित महसूस कर रहा है। यह असंवेदनशीलता बुजुर्गो के लिए काफी पीड़ादायी है। बुजुर्गो का उत्पीड़न उनके घर से ही शुरू होता है। बुजुर्गो के साथ भेदभाव होना आम बात है, लेकिन वे शायद ही कभी इसकी शिकायत कर पाते हैं और इसे सामाजिक परिपाटी मान लेते हैं। इस भेदभाव से सुरक्षा के बारे में वे बहुत कम जागरूक होते हैं। जब कभी कहीं बुजुर्गो के तिरस्कार की बात उठती है तो दो-चार शब्दों में वक्तव्य, टिप्पणियां, आलोचना और विवेचना के जरिये दुख व्यक्त कर लिया जाता है।

आधुनिकता ने लोगों की सोच में बदलाव लाने के साथ-साथ बुजुर्गो के प्रति आदर का भाव भी खत्म कर दिया है। आधुनिक समाज उन्हें घर में रखना कूड़े के समान समझता है और उन्हें वृद्धाश्रम में धकेल दिया जाता है। या फिर वे घर में इतने प्रताड़ित किए जाते हैं कि खुद ही घर छोड़कर चले जाते हैं। क्या यही हमारी परंपरा और संस्कृति है। तिनका-तिनका जोड़कर अपने बच्चों के लिए आशियाना बनाने वाले ये पुरानी पीढ़ी के लोग अब खुद आशियाने की तलाश में दरबदर भटक रहे हैं। ऐसे में इनका ठिकाना बन रहे हैं वृद्धाश्रम, जहां इन्हें रहने को छत और खाने को भरपेट भोजन मिल रहा है। बस यहां कमी है तो उस औलाद की, जिन्हें इन मां-बाप ने अपना खून-पसीना एक करके पढ़ाया-लिखाया था, परंतु आज उसी ने इन्हें दर-दर ठोकरे खाने को मजबूर कर दिया है।