(www.arya-tv.com) अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की आनन-फानन में वापसी को दुनिया अचरज की निगाह से देख रही है। ऐसे में यह सवाल उठ रहे हैं कि अमेरिकी बाइडन प्रशासन के इस कदम से क्या अमेरिका की महाशक्ति की साख में गिरावट आई है।
यह सवाल तब और अहम हो जाता है, जब चीन ने अमेरिका को दक्षिण चीन सागर, हिंद महासागर, ताइवान और हांगकांग में सीधे चुनौती दी है। अमेरिका ने यह कदम ऐसे वक्त उठाया है, जब वह चीन के खिलाफ क्वॉड ग्रुप को लेकर काफी संजीदा रहा है। विशेषज्ञ अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया के क्वाड ग्रुप के भविष्य पर भी सवाल उठाने लगे हैं। वह अमेरिका के इस कदम को सकरात्मक नजरिए से नहीं देखते हैं। खासकर तब जब क्वाड समूह को चीन के खिलाफ एकजुट देशों के समूह के तौर पर देखा जाता है।
अमेरिका की साख को बट्टा लगा, भारत के लिए बड़ी चुनौती
प्रो. हर्ष पंत का कहना है कि जाहिर है कि जिस तरह से अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य वापसी हुई और तालिबान अफगान सत्ता पर काबिज हुए उससे अमेरिका की साख को बट्टा लगा है। उन्होंने कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि इस पूरे मामले से भारत की नजर में अमेरिका की साख भी कम हुई है।
उन्होंने कहा कि अमेरिका अपने राष्ट्रीय हितों की खातिर मित्र देशों की चिंता किए बगैर जिस तरह से अफगानिस्तान से निकल गया, उससे सबसे ज्याद झटका भारत को ही लगा है। भारत की अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार से गहरे संबंध थे। भारत ने अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर निवेश कर रखा था। इसलिए भारत को यह बड़ा झटका है। प्रो पंत ने कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका की अफगानिस्तान नीति ने भारत की सुरक्षा को पर दांव लगाया है।
अमेरिका की अफगानिस्तान नीति ने क्वाड देशों के प्रति जिम्मेदारियों पर भी सवाल उठाया है। खासकर तब जब क्वाड समूह का गठन चीन के खिलाफ एकजुट देशों के समूह के रूप में देखा जा रहा है। इस समूह में अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया सदस्य देश हैं। अफगानिस्तान में अमेरिकी रणनीति के बाद क्वाड देशों की सुरक्षा पर सवाल उठ रहे है।
क्वाड ग्रुप अमेरिका को मित्र एशियाई देशों के साथ जमीनी स्तर पर काम करने का बेहतर अवसर देता है। हालांकि, प्रयासों की कमी के कारण एशियाई शक्तियों को यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ेगा कि अमेरिका उनके हितों के प्रति उदासीन बना हुआ है। इससे क्वाड ग्रुप के सदस्यों के लिए यह बड़ा झटका है। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में जो कुछ हुआ है, उससे सवाल उठता है कि आखिर अमेरिका अपने सहयोगी देशों के साथ कितना खड़ा हो सकता है।