(www.arya-tv.com) (आज पुण्य तिथि पर विशेष) कविता को क्रांति और विद्रोह की मशाल बना देने वाले कवि अदम गोंडवी को गांव और अपनी रचनाओं के बाद मदिरा से प्रेम था. उनके नजदीकियों को पता है कि ये शौक आदत तक पहुंच गया था . हो सकता है व्यवस्था जिस तरह से उन्हें दरकिनार करने में लगी थी और पैसों की तंगी उन्हें इस ओर लगातार धकेलती गई. खैर, उनसे मिलने और उन्हें याद करने के लिए उनकी रचनाएं बहुत थीं. लिहाजा प्रशंसकों का एक बड़ा दायरा भी था. इसमें वे लोग भी थे जो अदम गोंडवी की पैसों से मदद करते थे. ऐसे ही एक ग्रुप ने एपी मिश्रा की अगुवाई में उनकी किताब ‘समय से मुठभेड़’ का फिर से प्रकाशन करने का फैसला लिया. किताब प्रतापगढ़ के किसी प्रकाशन से छप गई. इसी ग्रुप ने किताब का विमोचन प्रयागराज के माघ मेले में कराने का फैसला लिया.
माघ मेले में संतों का शिविर लगा रहता है. वहां कल्पवासी आ कर संतों का प्रवचन सुनते हैं. यानी श्रोताओं का समूह भी उपलब्ध होता है. इसमें गोरखपुर, बनारस से लेकर इलाहाबाद और लखनऊ, फैजाबाद, गोंडा आदि इलाके के लोगों की बहुतायत होती है. किताब छपवाने वाले ग्रुप में उस समय के चर्चित संत अंगद शरण महाराज भी थे. उन्होंने अपने शिविर में अदम साहब की किताब के विमोचन का फैसला किया. कार्यक्रम के लिए शायर मुनव्वर राना को भी आमंत्रित किया गया. मुनव्वर राना को आने में देर हो रही थी. लिहाजा मंच पर दूसरे कार्यक्रम हो रहे थे. बगल के एक खाली शिविर में अदम गोंडवी साहब ‘रस रंजन’ में लग गए. सूरज डूबते-डूबते अदम गोंडवी ‘बातरन्नुम’ नींद की आगोश में चले गए.
कार्यक्रम शुरू हुआ. किताब और कविताओं का परिचय दिया जा रहा था. श्रोता आवाज लगा रहे थे कि अदम साहब को बुलाइए. आयोजकों ने जा कर अदम साहब को जगाने की कोशिश की लेकिन वे जगने को तैयार ही नहीं थे. कहा गया पहले मुनव्वर साहब को सुन लिजीए लेकिन मुनव्वर भी कितनी देर तक सुनाते.
फिर श्रोता अदम साहब को बुलाने के लिए आवाज लगाने लगे. महाराजजी ने मुझे (लेखक को) भेजा. वहां जाकर मैंने भी कोशिश की और नाकाम रहा. महाराज जी ने श्रोताओं को तरह-तरह से बहलाया. इस तरह से उनकी किताब के पुर्नप्रकाशन का विमोचन उनकी गैरहाजिरी में ही किया गया. श्रोताओं में श्रद्धालु ज्यादा थे, लिहाजा वे अपने महाराजजी से बहुत तर्क-वितर्क नहीं कर सके.
फिर भी व्यवस्था से जूझ रही आम जनता को अदम गोंडवी की रचनाएं बहुत गहरे तक छूती हैं. क्योंकि ये उन्हीं के बारे में हैं. ये भी जानना रोचक है कि सामाजिक शोषण के ताने-बाने पर प्रहार करने वाले अदम गोंडवी उसी जाति में पैदा हुए थे, जिस पर शोषण का आरोप लगता है. उनका असली नाम रामनाथ सिंह था. हिंदी के सीधे-सादे शब्दों में क्रांति भर देने वाले रचनाकार वास्तव में माटी और गांव के ही रचनाकार थे. शहरों में उनका आना-जाना तो होता था लेकिन रहे हमेशा गांव में. अवधी में बातचीत करनेवाले इस कवि ने जब भी लिखा रचा तो विद्रोह के गीत बन गए. नारों की तरह उन्हें याद किया गया और सभाओं -गोष्ठियों में उन्हें दुहराया गया. यहां तक कि इस जनकवि का एक दोहा तो इस कदर लोकप्रिय हुआ कि बहुत सारे लोग उसे दुहराते गाते रहते हैं लेकिन रचनाकार का नाम नहीं जानते.
काजू भुने पलेट में ह्विस्की गिलास में,
उतरा है राम राज विधायक निवास में.
व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अदम गोंडवी लिखते हैं-
तुम्हारी फाइलों में हमारे गांव का मौसम बहुत गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे और ये दावा किताबी है.
सामाजिक शोषण को अपने आस-पास देखने वाले इस कवि ने जब इस कुरीति पर कलम उठाई तो लाजवाब रचना तैयार हुई. उस दौर में भी इस तरह की प्रभावकारी रचनाएं कम ही थीं. अदम गोंडवी की कविता ‘मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको’.. पढ़ कर कोई भी विचलित हो सकता है –
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
और जब सौंदर्यबोध की बात आती है तो उसका भी बेहतरीन चित्रण अदम गोडंवी करते हैं –
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
शोषितों के हक में उन्होंने और भी कविताएं लिखी है –
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें.
आम आदमी पर लिखने वाले इस कवि की रचनाएं हर संघर्ष को उकेरती हैं, आवाज देती हैं –
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को.
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को.
अदम गोंडवी का जन्म 22 अक्टूबर, 1947 को उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के परसपुर गांव में हुआ था. समय के साथ मुठभेड़ करते इस कवि ने 18 दिसंबर, 2011 को लखनऊ के अस्पताल में दुनिया को अलविदा कह दिया.