(www.arya-tv.com) लखनऊ के हुसैनाबाद घंटाघर पर CAA (नागरिकता संशोधन कानून) और NRC (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) के खिलाफ 66 दिनों तक प्रदर्शन करने के बाद महिलाओं ने भले ही धरना खत्म कर दिया था। लेकिन यूपी पुलिस 627 दिनों से धरनास्थल पर ही जमी है। जैसे सिंधु बॉर्डर पर किसानों ने तंबू गाड़कर मोर्चा खोला। वैसे ही घंटाघर पर पुलिस धरना देने वालों को रोकने के लिए बाकायदा तंबू गाड़कर अब भी दिन-रात पहरा दे रही है।
अपनी मांगें पूरी होने के बाद दिल्ली की सीमाओं पर किसानों ने अपने तंबू खोलना शुरू कर दिए हैं। लेकिन CAA और NRC के विरोध के धरनों को लेकर यूपी पुलिस 21 महीने से दहशत में है। दरअसल, दिल्ली के शाहीनबाग के धरने से प्रेरणा लेकर लखनऊ की 25-30 महिलाएं 17 जनवरी, 2020 की शाम से घंटाघर पर CAA और NRC के विरोध में धरने पर बैठ गई थीं।
आंदोलन खत्म करने के लिए घंटाघर की बिजली तक काट दी
यूपी सरकार ने पहले दिन से ही इस आंदोलन को खत्म करने की तमाम कोशिशें कीं। कोशिशें जितनी ज्यादा हुईं, प्रदर्शन करने वालों की संख्या उतनी ही बढ़ती गई। इसे रोकने के लिए घंटाघर की बिजली तक काट दी गई। लेकिन महिलाओं ने मोमबत्तियां जला लीं। मोबाइल की टॉर्च की रोशनी में रात गुज़ारी। सर्दी की रातों में आग जलाने के लिए लाए गए कोयले पर पुलिस-प्रशासन ने पानी डलवा दिया। महिलाएं ठिठुरती रहीं, लेकिन प्रदर्शन नहीं रुका। प्रदर्शनकारियों ने तमाम तकलीफें सहने के बाद भी 66 दिनों तक धरना चलाया।
कोरोना के चलते खत्म हुआ था धरना
2020 में देश में कोरोना संक्रमण फैलना शुरू हुआ। इस पर 23 मार्च की सुबह 7 बजे महिलाओं ने अचानक प्रदर्शन खत्म कर दिया। पुलिस ने उनको सुरक्षित घर तक पहुंचा दिया। हालांकि तभी महिलाओं ने कहा था कि जब हालात ठीक होंगे, तो वे फिर से धरने पर बैठेंगी। CAA और NRC खत्म होने तक यह धरना खत्म नहीं होगा। बस तभी से यूपी पुलिस ने अपनी सबसे फुर्तीली PAC (प्रादेशिक आर्म्ड कांस्टबुलेरी) की एक प्लाटून (करीब 35 आर्म्ड सिपाही) यहां तैनात कर दिए गए । इन दिनों 48 बटालियन की प्लाटून के करीब 40 कर्मचारी-अधिकारी यहां तैनात हैं। आलम यह है कि CAA और NRC के धरनों की खबरें तक आना बंद हो चुकी हैं। लेकिन PAC की एक कंपनी अब भी घंटाघर पर तैनात है।
नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने 1887 में घंटाघर बनवाया
अवध के पहले संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्ज कूपर के स्वागत में नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने 1881 में घंटाघर बनवाना शुरू किया। यह 1887 में बनकर पूरा हुआ। कुछ लोग इसे सर जॉर्ज ताजिर को समर्पित विजय स्तंभ का रूप भी बताते हैं। इसका शानदार डिजाइन रस्केल पायने ने तैयार किया था। तकनीकी दृष्टि से विश्व की 3 ऐतिहासिक घड़ियों में यह एक है। ब्रिटेन की फर्म जेडब्ल्यू बेंसन ने इसका निर्माण बिग-बेन की तरह किया था।
घंटाघर भारत में विक्टोरियन गोथिक शैली का बेहतरीन उदाहरण है। उस जमाने में भी इसकी निर्माण लागत करीब 1.74 करोड़ रुपए आई थी। हैरत की बात यह भी है कि इमामबाड़े के सामने मौजूद 67 मीटर यानी करीब 221 फीट ऊंचे इस घंटाघर को सहारा देने के लिए किसी खंभे का इस्तेमाल नहीं हुआ है।
गन मैटल से बनी सुइयां लंदन से लाई गई थी
बताते हैं कि घंटाघर में लगी घड़ी की सुइयां बंदूक की धातु से बनी हैं। इसी वजह से यह सुइयां भारतीय मौसम के अनुकूल हैं। इसकी सुइयां लंदन के लुईगेट हिल से लाई गई थीं। 14 फीट लंबा और डेढ़ इंच मोटा पेंडुलम लंदन की वेस्टमिंस्टर क्लॉक से बड़ा है। इसमें घंटे के आसपास फूलों की पंखुड़ियों के आकार की बेल्स लगी हैं, जो हर घंटे बजती हैं।
बड़ी सुई 6 फीट लंबी और छोटी साढ़े 4 फीट
घंटाघर में 5 घंटियां लगाई गई थीं। वह भी इस तरह से कि उनकी आवाज दूर तक सुनाई पड़े। हर आधे घंटे, पौन घंटे, घंटे और सवा घंटे पर यही घंटियां बजकर समय बताती थीं। घंटाघर की बड़ी सुई 6 फीट लंबी और छोटी साढ़े 4 फीट की है। रात के समय लोगों को सही वक्त बताने के लिए तांबे के 8 लैंप डायल के साथ लगे हैं। इन लैंपों के आगे पारदर्शी कांच लगा है और पीछे की ओर चांदी चढ़े परावर्तक लगे हैं। ये लैंप लोहे की घिर्रियों की मदद से उतारे और चढ़ाए जा सकते हैं। घंटाघर की चोटी पर पीतल का एक बगुला कलश है, जो हवा की दिशा बताता है।