(www.arya-tv.com) बिहार के मतदाताओं के फैसले के बाद कुछ ही दिनों में यह भी पता चल जायेगा कि ‘राजतिलक किसका होने वाला है। उम्मीद ही की जा सकती है कि मतदाता का निर्णय राज्य के हितों के अनुकूल रहेगा मगर चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह का बर्ताव हमारे राजनीतिक दलों ने किया है, और जिस तरह चुनाव के मुद्दों को गड्डमड्ड किया है, उससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि हमारी राजनीति में जनता के हितों के नाम पर राजनीतिक हितों को साधने की ही कोशिश होती है।
विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव में अंतर होता है। ऐसा नहीं है कि विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों के लिए कोई स्थान ही नहीं होता, पर उम्मीद यह की जाती है कि विधानसभा के चुनाव मुख्यत: स्थानीय स्थितियों और आवश्यकताओं पर केंद्रित हों। इसमें संदेह नहीं कि केंद्र की नीतियों का राज्यों पर सीधा असर पड़ता है, फिर भी जब राज्यों के चुनाव के लिए मतदाता मतदान केंद्र पर जाता है तो उसके दिमाग में क्षेत्रीय चिंताएं अधिक होती हैं।
राजनीतिक दल इस स्थिति से अपरिचित नहीं होते, और इसके अनुरूप आचरण की कोशिश वे करते ही होंगे, लेकिन बिहार के इन चुनावों में बड़े राजनीतिक दलों ने जिस तरह से प्रचार किया है, उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि इस प्रचार का उद्देश्य मतदाता को बहलाना-बहकाना कहीं अधिक था। घोषणापत्र अपनी जगह हैं, लेकिन जिस तरह से चुनाव-प्रचार के दौरान भाषणबाजी हुई है, उसे देखकर तो यही लगता है कि प्रचारकों की निगाह सिर्फ वोटों पर थी।
चुनाव प्रचार से मतदाता की अपेक्षा और आवश्यकता यही होती है कि उम्मीदवार और राजनीतिक दल अपनी उपलब्धियों और अपनी भावी योजनाओं के आधार पर तर्क सामने रखेंगे, पर जो अक्सर देखा जाता है, और इस बार भी दिखा है, वह यह है कि सारी कोशिश मतदाता को भरमाने की रहती है।
पिछले पंद्रह साल से बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार चल रही है। यह अपेक्षा करना स्वाभाविक था कि वे और उनके सहयोगी दल इस काल की अपनी उपलब्धियों के आधार पर वोट मागेंगे, पर चुनाव-प्रचार के दौरान हमने देखा कि सारा ज़ोर अपने किये गये काम पर नहीं, उससे पहले की लालू-राबड़ी सरकारों के कृतित्व पर था। एनडीए वाले उस काल को ‘जंगल-राजÓ कहते हैं और उसके नेता इस चुनाव प्रचार के दौरान लगातार इस जंगल राज का बखान करते रहे।
यह सही है कि विरोधी की कमियों-खामियों को रेखांकित करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह भी उतना ही स्वाभाविक है कि वे लालूप्रसाद यादव के उत्तराधिकारी पर लालू के शासनकाल की खामियां दिखाकर प्रहार करें, पर क्या सत्तारूढ़ मोर्चे के पास अपनी उपलब्धियों को दिखाने के नाम पर कुछ नहीं था कि वह लालू के उन्हीं ‘अपराधों को गिनाते रहे, जिनकी सज़ा मतदाता पंद्रह साल पहले ही दे चुका है यह सही है कि राजनीतिक दल और राजनेता अपने अतीत से पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ा सकते, पर यह भी तो सही है कि केवल अतीत के कामों के आधार पर किसी राजनीतिक दल को हमेशा के लिए खारिज नहीं किया जा सकता। इस चुनाव में विपक्ष नीतीश कुमार की सरकार से उन कामों का हिसाब मांग रहा था जो उन्हें करने चाहिए थे और उन्होंने नहीं किये। लेकिन वे लगातार ‘जंगल राज की दुहाई ही देते रहे!
मतदाता की अपेक्षा यह थी कि वर्तमान सरकार आर्थिक मोर्चे पर किये गये अपने काम गिनाये, राज्य में शिक्षा की बदहाली के बारे में उचित सफाई दे, स्वास्थ्य के क्षेत्र में, महंगाई के संदर्भ में, बेरोजग़ारी को लेकर उठे सवालों पर अपनी बात सामने रखे, पर सत्तारूढ़ पक्ष इन सवालों से कुल मिला कर कतराता ही रहा। इसके बदले में लालू-परिवार के बच्चों की संख्या गिनवाना समूचे चुनाव-प्रचार का शायद सबसे शर्मनाक उदाहरण था। नीतीश अनुभवी और मंजे हुए नेता हैं, जब वे मोदी के विरुद्ध खड़े थे तो उनमें लोग भावी प्रधानमंत्री की सम्भावना देखते थे। पता नहीं क्यों, इस बार उनकी जबान बार-बार फिसली!
समझ तो यह भी नहीं आया कि प्रधानमंत्री चुनाव-प्रचार के दौरान ‘राष्ट्रीय मुद्दों के संदर्भ ही क्यों देते रहे बिहार के चुनावों में पाकिस्तान का नाम लेना आखिर क्यों ज़रूरी हो जाता है हमारे नेताओं के लिए सीमा पर हमारे जवानों के बलिदान की गाथा सुनाना, और फिर यह बताना कि सेना में बिहार के जवानों ने क्या-क्या शौर्य दिखाया, हमारे लिए गर्व की बात तो है, पर इसे वोटों की राजनीति का हिस्सा बनाना तो किसी दृष्टि से उचित नहीं लगता। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सीमा पर लडऩे वाले हमारे सारे जवान पहले हिंदुस्तानी हैं, फिर कोई और पहचान हो सकती है उनकी। सच तो यह है कि हम सबकी पहली पहचान ही हिंदुस्तानी होना है। ऐसे में जब हम अपने नेताओं को धर्म या जाति के नाम पर मतदाता का बंटवारा करते देखते हैं तो पीड़ा ही नहीं होती, गुस्सा भी आता है।
कौन नहीं जानता कि बिहार के इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बेरोजग़ारी था। यह चुनाव गरीबी और महंगाई के मुद्दों पर लड़ा जाना चाहिए था। तेजस्वी यादव की इसके लिए तारीफ करनी होगी कि चुनाव-प्रचार के दौरान वे लगातार यह कोशिश करते रहे कि बात बेरोजग़ारी, महंगाई, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र की दुर्दशा पर हो। निस्संदेह इन मुद्दों की शोचनीय स्थिति के लिए राज्य की पिछली सरकारें भी दोषी हैं, पर पिछले पंद्रह साल से जो सरकार राज कर रही है, वह अपने दायित्व से पल्ला नहीं छुड़ा सकती। बदहाली के लिए उसकी भूमिका और उसकी जि़म्मेदारी कहीं अधिक है।
मतदान का परिणाम भले ही कुछ भी निकले, भले ही किसी की भी सरकार बने, लेकिन यह तय है कि बिहार के इन चुनावों को घटिया प्रचार के लिए, विशेषकार सत्तारूढ़ दलों और बड़े नेताओं के किये गये और न किये गये कामों के लिए भी याद किया जायेगा। किसी नेता की कितनी बेटियां और कितने बेटे हैं, के बजाय उन बेटियों की बात होनी चाहिए, जिनके अपहरण हो रहे हैं, जिनके साथ दुराचार हो रहे हैं। पड़ोसी देश ने अपनी संसद में क्या स्वीकारा है, की बजाय हमें चिंता इस बात की होनी चाहिए कि कितने बाहुबलियों और धनपतियों को हमारे राजनेता हम पर, यानी देश की जनता पर, थोप रहे हैं। गलत है किसी भी प्रकार का ‘लव-जिहाद पर यह बात हमारे चुनावों का मुद्दा बने, यह हमारे लिए एक चिंता का विषय होना चाहिए।
बिहार में चाहे किसी की भी सरकार बने, इस बारे में तो देश में बात होनी ही चाहिए कि हमारे नेता, जिनमें हमारे बड़े-बड़े केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं, असली मुद्दों पर देश की जनता से रूबरू क्यों नहीं होते क्यों घटिया और गलत तरीकों से जीतने की कोशिश करने में हमारे नेताओं को संकोच नहीं होता जनतंत्र की सफलता का तकाज़ा है कि हमारे चुनाव सही और उचित मुद्दों पर लड़े जाएं। चुनाव सरकारें बनाने-बिगाडऩे का ही मौका नहीं होते, चुनाव जनतंत्र के प्रति हमारी आस्था की परीक्षा भी होते हैं।
विश्वनाथ सचदेव