भारतीय संस्कृति की धरोहर मल्लिका-ए-गजल बेगम अख्तर

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राजधानी दिल्ली में 1974 में सर्दी का असर थोड़ी जल्दी महसूस होने लगा था। दिन छोटे और ठंडे हो चले थे। कनॉट प्लेस के नरूलाज होटल के बाहर मल्लिका-ए-गजल बेगम अख्तर के करीब दो दर्जन चाहने वाले उनका ऑटोग्राफ लेने के लिए इंतजार कर रहे थे। तारीख थी 15 अक्तूबर 1974। बेगम अख्तर राजधानी प्रवास के दौरान इधर ही ठहरती थीं। उन्हें उसी शाम को विज्ञान भवन में अपना कार्यक्रम पेश करना था। बेगम अख्तर विज्ञान भवन जाने से पहले अपने शैदाइयों से मिलीं।

उनके विज्ञान भवन में पहुंचते ही वहां हलचल बढ़ गई। उनका सबको इंतजार था। कुछ लम्हों के बाद जब बेगम अख्तर मंच पर आईं, तो बेकरार श्रोता झूम उठे। लाल साड़ी में वो बेहद खूबसूरत लग रही थीं। उनके नाक में चमकती सोने की लौंग और उंगलियों में अंगूठियां दूर से दिखाई दे रही थीं। मुस्कुराते चेहरे के साथ वो मंच पर आईं और अपने चाहने वालों का स्वागत किया।

संगतकारों ने तबला-हारमोनियम बजाना शुरू किया, तो बेगम अख्तर ने सुदर्शन फाकिर की लिखी गजल ‘आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया।’ गाकर महफिल की शुरुआत की। उनके गाते ही विज्ञान भवन ‘वाह-वाह’ से गूंजने लगा। बेगम अख्तर ने पहली गजल खत्म करने के बाद श्रोताओं को सांस लेने का भी मौका भी नहीं दिया।

फिर उन्होंने अमर गजल गानी शुरू कर दी- ‘यूं तो हर शाम उम्मीदों में गुजर जाती है आज कुछ बात है, जो शाम पे रोना आया…’ बेगम अख्तर पूरे जोश में थीं। सूर साधक और संगीत के कार्यक्रम आयोजित करने वाले अमरजीत सिंह कोहली ( स्मृति शेष) भी विज्ञान भवन मौजूद में थे। कोहली जी बताते थे, ‘वो दिल्ली में बेगम अख्तर की यादगार महफिल थी। उनकी सुरीली आवाज ने सबको मदहोश कर दिया था।’