सुखी रहने के लिए जरूरी है पूर्वजों का आशीर्वाद, पढ़ें श्राद्ध का महत्व बताने वाली पौराणिक कहानी

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(www.arya-tv.com)पूर्वजों के तर्पण का महीना शुरू हो रहा है। इस साल पितृपक्ष 2 सितम्बर से शुरू हो रहे हैं। श्राद्ध में पूर्वजों का आभार व्यक्त करते हुए उनका स्मरण किया जाता है श्राद्ध पूजन की कई विधियां और मान्यताएं हैं लेकिन एक बात सभी मानते हैं कि  पितृपक्ष में कभी भी अपने पूर्वजों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। माना जाता है कि उनकी आत्मा को अगर कलह पहुंचता है, तो कई पीढ़ियों के जीवन में उथल-पुथल हो सकती है। पूर्वजों की महिमा और पितृपक्ष के महत्व की ऐसी ही एक पौराणिक  कहानी है।

पूर्वजों के लिए श्राद्ध में श्रद्धा रखनी जरूरी 
पौराणिक कथा के अनुसार जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे। दोनों अलग-अलग घरों में रहा करते थे। जोगे के पास धन की कोई कमी न थी, लेकिन भोगे निर्धन था। दोनों भाई एक दूसरे से बहुत प्रेम करते थे। लेकिन जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था, तो वहीं भोगे की पत्नी सुशील और शांत स्वाभाव की थी। जब पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे इसे व्यर्थ का कार्य समझकर टालने की कोशिश की, लेकिन जोगे की पत्नी केवल अपनी शान दिखाने के लिए श्राद्ध का कार्यक्रम रखना चाहती थी। ताकि वह अपने मायके पक्ष के लोगों को बुलाकर दावत कर सके। जोगे की पत्नी से उसने कहा कि मुझे कोई परेशानी न हो इसलिए आप ऐसा कह रहे हैं। लेकिन मैं सत्य कहती हूं, मुझे इसमें कोई परेशानी नहीं है, मैं भोगे की पत्नी को बुला लूंगी। हम दोनों मिलकर सारा काम कर लेंगी।

दूसरे दिन भोगे की पत्नी सुबह आकर सारा कार्य करवाने लगी, उसने अनेक पकवान बनाए, फिर सभी काम निपटाने के बाद अपने घर वापस आ गई, क्योंकि उसे भी पितरों का तर्पण करना था। जब पितर भूमि पर उतरे जब वे जोगे के यहां गए तो देखा कि उसके ससुराल पक्ष के सभी लोग भोजन पर जुटे हुए हैं। वहां ये सब देखकर वे बहुत निराश हुए उसके बाद जोगे-भोगे के पितर भोगे के यहां गए, तो देखते हैं कि मात्र पितरों के नाम पर केवल ‘अगियारी’ दे दी गई है। पितर उसकी राख चाटते हैं, और भूखे ही नदी के तट पर पहुंच जाते हैं।
कुछ ही देर में सारे पितर अपने-अपने यहां का श्राद्ध ग्रहण करके इकट्ठे हो गए और बताने लगे कि उनकी संतानों ने किस-किस तरह से उनके लिए श्राद्धों के पकवान बनाए। जोगे-भोगे के पितरों ने भी अपना सारा कुछ बताया। उन्होंने सोचा कि अगर भोगे निर्धन न होता और श्राद्ध करने में समर्थ होता तो शायद उन्हें भूखा वापस नहीं आने पड़ता, क्योंकि भोगे के घर में तो खाने के लिए भी दो जून की रोटी नहीं थी। ये सारी बातें सोचकर पितरों को भोगे पर दया आ गई। अचानक से वे नाच-नाचकर गाने लगे कि भोगे के घर धन हो जाए, भोगे के घर धन हो जाए।
इस तरह पितरों के आशीर्वाद से भोगे भी धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है, लेकिन वह इस बात का बिल्कुल अंहकार नहीं करता है, और अगले बरस पूरी श्रद्धा के साथ भोगे एवं उसकी पत्नी अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। भोगे की पत्नी पितरों के लिए 56 प्रकार के व्यंजन तैयार करती है, वे दोनों ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, अपने जेठ-जेठानी को बुलाकर सम्मान के साथ सोने और चांदी के बर्तनों में भोजन कराते हैं। इससे उनके पितर बहुत प्रसन्न होते हैं।